तीसरी कसम : न कोई इस पार हमारा, न कोई उस पार

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फिल्म एक ऐसी विधा है, ऐसा आर्टफॉर्म है जिसमें कहानी… किसी फिल्म का सबसे अधिक और सबसे कम महत्वपूर्ण तत्व होता है। सबसे कम इसलिए कि पर्दे पर जो दुनिया रची जाती है उसमें दृश्य-ध्वनि-प्रकाश-अभिनय जैसी तमाम चीज़ों का बहुत बड़ा योगदान होता है और सबसे अधिक इसलिए कि इस पूरी दुनिया की मूल में वो कहानी ही होती है जिसमें अपनी अनुभूतियां जोड़कर एक दर्शक उसके इर्दगिर्द एक नया संसार बुनता है। फिल्मों की समीक्षा जब होती है, तो फिल्ममेकिंग के सभी पक्षों पर बात होती है… और इसमें अक्सर कथानक पर विस्तृत चर्चा की जगह नहीं निकल पाती… । हमने सिनेमा के साहित्य की समीक्षा के नाम से चुनिंदा फिल्मों की कुछ अलग किस्म की समीक्षाओं की सीरीज़ शुरु की है, जो उनके कथानक और उनमें अंतर्निहित साहित्य को लेकर लिखी गई हैं… जीवन और समाज के दर्शन और विश्लेषण के आधार पर लिखी गई ये समीक्षाएं प्रस्तुत कर रहे हैं लेखक-समीक्षक अजय चंद्रवंशी महेश भट्ट की सारांश के बाद आज राज कपूर के जन्मदिन और उनके मित्र, गीतकार और फिल्म तीसरी कसम के निर्माता शैलेंद्र की पुण्यतिथि के मौके पर फिल्म तीसरी कसम की समीक्षा। तीसरी कसम का निर्देशन बासु भट्टाचार्य ने किया था।

Ajay Chandravanshi

अजय चंद्रवंशी एक लेखक और आलोचक हैं। उनकी अनेकों रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। कविता, ग़ज़ल और फ़िल्म समीक्षा के अतिरिक्त इतिहास और आलोचनात्मक आलेख भी प्रकाशित हो चुके हैं। वो छत्तीसगढ़ प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के राजनारायण मिश्र पुनर्नवा पुरस्कार (2019) से सम्मानित हो चुके हैं। फिलहाल सहायक विकासखण्ड शिक्षा अधिकारी के पद पर कवर्धा में कार्यरत हैं।

रेणु की चर्चित कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफ़ाम‘ पर आधारित फ़िल्म ‘तीसरी कसम‘(1966) की काफ़ी चर्चा होती रही है। फ़िल्म के निर्माता गीतकार शैलेन्द्र थे।उन्होंने बहुत उत्साह और जोख़िम से फ़िल्म का निर्माण कराया था,मगर अपेक्षित सफलता नही मिलने पर काफ़ी आहत भी हुए थे, जिसकी एक अलग कहानी है।

Raj Kapoor & Shailendra: Pic courtesy: Silhouette Magazine & Apnaorg

कहानी और फ़िल्म के कथानक में थोड़ी भिन्नता भी है, जो फ़िल्म निर्माण के माध्यम के मांग के अनुसार किया गया होगा। मसलन कहानी में हीराबाई का हिरामन के प्रति एक तटस्थता का भाव है। उसके लिए हीरामन एक सहज, सरल, ईमानदार व्यक्ति है, इसलिए वह उस पर भरोसा करती है और उसका संग-साथ उसे अच्छा लगता है।उसके अंदर भावना तो है मगर वह व्यवहारिक दुनिया को जानती है। सम्भवतः नौटंकी में काम करने के कारण और भी। हिरामन के प्रति उसके मन में प्रेमाकर्षण नही है,मगर वह हिरामन के भोलापन को पसन्द करती है। आख़िर में जब जाने के समय रेलवे स्टेशन में उससे मिलती है तो उसका गला भी भर आता है। यह मानवीय प्रेम है। कहानी में इस बात के संकेत हैं कि तत्कालीन समय में स्त्री का नौटंकी में काम करने को अच्छी निग़ाह से नही देखा जाता था।उस समय हीराबाई का भावुक होना सम्भवतः उसके मन में जीवन की अनिश्चितता और सुप्त आकांक्षा का एक क्षण के लिए कौंध जाने के कारण है।

pic courtesy: NFAI

फ़िल्म में कुछ अतिरिक्त बातें जोड़ी गई हैं, वह कहानी के परिवेश के अनुरूप ही है। मसलन ज़मीदार का पात्र। वह सामंती रौब से हीराबाई को खरीदना चाहता है और सफल न होने पर बल प्रयोग का प्रयास करता है।फ़िल्म में हीराबाई का का हिरामन के प्रति दबा सा प्रेमाकर्षण भी है। वह चाहती है कि वह रोज उसके कार्यक्रम देखने आए और उसके न आने और नाराज हो जाने से बेचैन हो जाती है। हालांकि उसके अंदर अंतर्द्वंद्व भी है। वह हीरामन से नौंटकी की ‘हक़ीकत’ को छुपाए रखती है और एक जगह कहती भी है “कब तक उससे सती-सावित्री होने का नाटक करूंगी।” जाहिर है यह आरोपित सामंती मूल्य परिवेश जनित है, जो कहानी के देश-काल के अनुरूप है।उसे ज़मीदार के आगे हिरामन का छोटा दिखना भी आहत करता है। आख़िर में नौंटकी को छोड़कर जाने का एक कारण ज़मीदार द्वारा हिरामन को नुकसान पहुँचाये जाने की सम्भावना भी दिखाया गया है।

हिरामन सहज, सरल स्वभाव का गाड़ीवान है। पत्नी नही है। गवन से पहले उसका निधन हो गया था। दूसरा विवाह नही किया है। निर्णय भाभी पर छोड़ दिया है। वह कुंआरी लड़की ढूंढ रही है, जो इस उम्र(गांव के हिसाब से) में कठिन है। हिरामन बेफिक्र है। उसकी दुनिया सीमित है। गाड़ी में माल-असबाब ढोता है। एक बार चोरी का माल ढोने के कारण मुश्किल से जान बची तो चोरी का माल न ढोने की कसम खायी। दूसरी बार बांस ढोने के कारण असुविधा के चलते लोगों से गाली खायी तो बांस न ढोने की कसम खायी। इस बार हीराबाई को गाड़ी से मेले तक(फारबिसगंज) ले जाने का काम मिलता है। वह जनाना सवारी का अभ्यस्त नही है। थोड़े संकोच के बाद हीराबाई के बातचीत की सहजता से खुल जाता है। वह हीराबाई के रूप के आकर्षण और मीठी बोली दोनो से आकर्षित है।राह के लंबे सफर में कई पड़ाव आते हैं जिससे दोनों घुलमिल जाते हैं।

मेले में पहुँचने पर हीराबाई उसे नौटंकी देखने का आग्रह करती है और ‘पास’ दिलवा देती है। हिरामन अपने साथियों के साथ कार्यक्रम देखता है। उसके साथी भी हीराबाई के रूप के दीवाने हैं। कार्यक्रम शुरू होता है तो दर्शक दीर्घा में कई तरह की बातें होने लगती है। बहुतों की निग़ाह में हीराबाई ‘बाज़ारू औरत’ है , वे उसे ‘रंडी’ तक कहते हैं। ये बातें हीरामन को चुभती हैं और वह उनसे भिड़ जाता है, जिससे कार्यक्रम में बाधा पँहुचती है।

इस तरह हिरामन के अंतस में हीराबाई के प्रति प्रेम उत्पन्न हो गया होता है, जिसे वह ख़ुद नही समझ पाता, मगर धीरे-धीरे उसे अहसास होने लगता है, पर व्यक्त नही करता। इसी कारण वह उससे नौटंकी का काम छोड़ने का आग्रह करता है।हीराबाई इसको समझने लगती है जिसका ऊपर जिक्र किया जा चुका है।

फ़िल्म के अंतिम दृश्य में जब हीराबाई नौंटकी को छोड़कर दूसरे नौंटकी में काम करने वापस जाती है तो हीरामन उससे मिलने रेलवे स्टेशन आता है। हीराबाई उसके पैसे, जो उसके पास धरोहर के रूप में थे उसे लौटाती है और अपना शाल भेंट में देती है। हीरामन हतभ्रत हो जाता है, उसे उम्मीद नही थी हीराबाई इतनी जल्दी चली जायेगी। वह अपने दिल की बात दिल मे रखे ठगा सा महसूस करता है। हीराबाई चली जाती है और वह अपनी खीझ बैलों पर निकालते हुए कहता है कि कसम खाओ किसी नौटंकी वाली बाई को गाड़ी में नही बिताएंगे। यही उसकी तीसरी कसम है।

कहानी की पृष्ठभूमि में महुआ घटवारिन की लोककथा गूंजती रहती है जिसे एक सौदागर ख़रीद ले जाता है मगर वह किसी तरह वापस आ जाती है।इस बार हीराबाई को मानो किसी सौदागर ने खरीद लिया है और शायद वह कभी वापस नही आएगी ! हिरामन पहले अकेले होकर भी अकेला नही था क्योंकि उसे इसका अहसास नही था।वह अपनी दुनिया में मगन था।हीराबाई के कारण उसके अंदर यह अहसास पैदा हुआ। हिरामन के लिए यह अहसास पहले मीठा था क्योंकि उसमें हीराबाई थी, भले ही उसके कल्पना लोक में। हीराबाई के जाने के बाद उसे इसका वास्तविक बोध होता है। पर किसे दोष दे!”चिठिया हो तो हर कोई बाँचे, भाग न बाँचे कोय”।

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