दास्तान-ए-आलम आरा
– शरद दत्त
हिंदी सिनेमा की पहली बोलती फिल्म आलम आरा को रिलीज़ हुए 14 मार्च को 90 साल हो गए। दिल्ली दूरदर्शन केंद्र के पूर्व निदेशक शरद दत्त ने इस फिल्म और इसके बनने की दास्तान पर एक किताब लिखी है दास्तान-ए-आलम आरा जो सारांश प्रकाशन से करीब 12 वर्ष पूर्व प्रकाशित हुई थी। शरद दत्त की फिल्मों और संगीत में गहरी अभिरुचि रही है। दूरदर्शन के लिए बनाई उनकी सीरीज़ मेलोडी मेकर्स खासी चर्चित रही है। कुंदन लाल सहगल और अनिल बिस्वास पर लिखी किताब के लिए उन्हे 2002 और 2007 में नेशनल अवॉर्ड भी मिला था। प्रस्तुत लेख शरद जी की किताब ‘दास्तान-ए-आलम आरा ‘से लिया गया है। ये लेख पहले भी हमारी ई-सोसायटी ‘न्यू डेल्ही फिल्म फाउंडेशन ‘के ब्लॉग पर 2009 में छपा था जब आलम आरा को रिलीज़ हुए करीब 78 साल हो गए थे।
यह बात तकरीबन अस्सी (अब 90) साल पहले की है । तब पारसी थिएटर के मशहूर लेखक जोसेफ डेविड का नाटक आलम आरा रंगमंच पर काफी लोकप्रिय हो चुका था। इसलिए अमेरिकी निर्माता यूनिवर्सल की फिल्म ‘शो बोट’ देखने के बाद जब आर्देशर इरानी के सिर पर पूरी तरह सवाक फिल्म बनाने की धुन सवार हुई तो बरबस उनका ध्यान इस नाटक की ओर गया। उन्हे लगा कि इस रचना को एक संपूर्ण बोलती फिल्म में रुपांतरित करने की संभावना है। हालांकि उस समय मंच प्रस्तुतियों के अंश फिल्मांकित करने की शुरूआत हो चुकी थी। इसलिए यह स्वाभाविक होता कि आर्देशर भी आलम आरा की नाट्य प्रस्तुति का फिल्मांकन कर देते। लेकिन उन्होने ऐसा नहीं किया। वे चाहते थे कि बाकायदा फिल्म की पटकथा लिखवाई जाए, संवाद लिखवाए जाएं ताकि फिल्म रंगमंच से अलग दिख सके। लेकिन यह काम आसान नहीं था। खैर पटकथा तो जोसेफ डेविड ने ही लिखी और संवाद भी शायद उन्होने ही लिखे होंगे। हालांकि इसका कहीं जिक्र नहीं है। गीतों के बारे में जरुर कहा जाता है कि उनकी धुनों का चुनाव ईरानी ने किया था। इससे दो संकेत मिलते हैं। पहला यह कि नाटक आलम आरा की प्रस्तुति में भी गानों का प्रयोग होता था किंतु आर्देशर ने उन्हे फिल्म में शामिल नहीं किया और दूसरा यह कि फिल्म में इस्तेमाल गाने उस समय लोक में प्रचलित रहे होंगे। मगर गीतों के चुनाव के बाद समस्या रही होगी उनके फिल्मांकन की। उसका कोई आदर्श ईरानी के सामने नहीं था और नहा ही बूम जैसा कोई ध्वनि उपकरण था। सारे गाने टैनार सिंगल सिस्टम कैमरे की मदद से सीधे फिल्म पर ही रिकॉर्ड होने थे और यह काम काफी मुश्किल था। जरा सी खांसी आ जाए या उच्चारण में कोई कमी आ जाए तो पूरा गाना नए सिरे से करो।
बहरहाल यह बात हैरत की है कि पहली सवाक फिल्म में संगीतकार, गीतकार या गायकों के नामों का उल्लेख नहीं है। इस बात के साक्ष्य मौजूद हैं कि आलम आरा पूरे एशिया में मशहूर हुई। अकेले मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में यह लगातार आठ हफ्ते तक चली थी। लोगों ने सिर्फ गाने सुनने के लिए इस फिल्म को देखा। दुर्भाग्य से इस फिल्म के गाने रिकॉर्ड नहीं किए जा सके। बताते हैं कि फिल्म में कुल सात गाने थे। जिनमें से एक फकीर की भूमिका करने वाले अभिनेता वजीर मुहम्मद खान ने गाया था। उसके बोल थे- ‘दे दे खुदा के नाम पर प्यारे, ताकत है गर देने की।’ एक और गाने के बारे में एल वी प्रसाद ने अपने संस्मरण में लिखा है- वह गीत सितारा की बहन अलकनंदा ने गाया था- बलमा कहीं होंगे…। बाकी पांच गानों के बोल क्या थे और किसने गाया, पता नहीं। फिल्म के संगीत में केवल तीन साजों का इस्तेमाल किया गया था- तबला, हारमोनियम और वायलिन।
‘आलम आरा’ के लिए अमेरिका से टैनार साउंड सिस्टम आयात किया गया। उसके साथ उपकरण का प्रशिक्षण देने के लिए विलफोर्ड डेमिंग नाम के साउंड इंजीनियर आए थे। आर्देशर और उनके सहयोगी रुस्तम भड़ूचा ने उनसे एक महीने में ही बारीकियां सीखीं और पूरी फिल्म की रिकॉर्डिंग खुद की। फिल्म की भूमिका में ज़ुबेदा और मास्टर विट्ठल के अलावा कई नामी-गिरामी कलाकार काम कर रहे थे। पृथ्वीराज कपूर, जगदीश सेठी और वजीर मुहम्मद खान के नाम तो फिल्म की प्रचार पुस्तिका में दिए गए हैं। लेकिन सोहराब मोदी और याकूब के नाम नहीं मिलते। एल वी प्रसाद और महबूब खान ने भी फिल्म में छिटपुट भूमिका की थी। आगे चलकर ये नामी निर्माता-निर्देशक बने।
‘आलम आरा’ में कलात्मकता और तकनीकी गुणवत्ता अधिक नहीं थी, लेकिन पहली सवाक फिल्म होने के कारण उसके महत्व को किसी तरह कम करके नहीं आंका जा सकता। ‘द बांबे क्रोनिकल’ के दो अप्रैल 1931 के अंक में ‘आलम आरा’ को लेकर कुछ ऐसे ही विचार व्यक्त किए गए थे। ‘ किसी खास व्यक्तिगत भारतीय फिल्म के दोषों पर बात करने का मतलब ज्यादातर मामलों में ऐसे दोषों पर बात करना है जो सभी फिल्म में समान रुप से पाए जाते हैं। इन दोषों से आलम आरा भी पूरी तरह मुक्त नहीं है। लेकिन एक सांगोपांग कहानी पर फिल्म बनाने में ध्वनि का अपेक्षित उतार-चढ़ाव और वैविध्य मौजूद है….इसने दिखा दिया कि यथोचित संयम और गंभीर निर्देशन हो तो विट्ठल, पृथ्वीराज और ज़ुबेदा सरीखे कलाकार अपनी प्रभावशाली अभिनय क्षमता और वाणी से ऐसे नाटकीय प्रभाव पैदा कर सकते हैं, जनकी मूक चित्रपट पर कल्पना भी नहीं की जा सकती है।’
पहली सवाक फिल्म होने के कारण सामने आने वाली तमाम समस्याओं के बावजूद आर्देशर ने साढ़े दस हजार फीट लंबी इस फिल्म का निर्माण चार महीने में ही पूरा किया। इस पर कुल मिलाकर चालीस हजार रुपए की लागत आई थी। आखिरकार 14 मार्च 1931 को इसे मैजेस्टिक सिनेमा में रिलीज किया गया, तो वह दिन सिने इतिहास का एक सुनहरा पन्ना बन गया। आर्देशर ईरानी के साझीदार अब्दुल अली यूसुफ अली ने फिल्म के प्रीमियर की चर्चा करते हुए लिखा था- ‘जरा अंदाजा लगाइए, हमें कितनी हैरत हुई होगी यह देखकर कि फिल्म रिलीज होने के दिन सुबह सवेरे से ही मैजेस्टिक सिनेमा के पास बेशुमार भीड़ जुटना शुरू हो गई थी और हालात यहां तक पहुंचे कि हमें खुद को भी थिएटर मे दाखिल होने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी…उस जमाने के दर्शक कतार में लगना नहीं जानते थे और धक्कमधक्का करती बेलगाम भीड़ ने टिकट खिड़की पर सही मायनों में धावा बोल दिया था-हर कोई चाह रहा था कि जिस जबान को वे समझते हैं उसमें बोलने वाली फिल्म देखने का टिकट किसी तरह हथिया लिया जाए। चारों तरफ यातायात ठप हो गया था और भीड़ को काबू करने के लिए पुलिस की मदद लेनी पड़ी थी।’ बाद में नानू भाई वकील ने 1956 और 1973 में, दो बार इस फिल्म का पुनर्निर्माण किया।