वोदका लेमन: बिना विकल्पों वाले जीवन के सफ़र का संगीत
विश्व के सिनेमाई सौंदर्य के गुह्य रस्म-रिवाज़ सीरीज़ की चौथी और अंतिम कड़ी के तौर पर प्रस्तुत है आर्मीनियाई फिल्मकार हिनर सलीम की फिल्म वोदका लेमन की समीक्षा। इस सीरीज़ के लिए सुख्यात युवा साहित्यकार पूनम अरोड़ा ने विश्व सिनेमा से जिन 4 फिल्मों का चयन किया था वो अपने कथ्य-प्रस्तुति के लिहाज से जितनी बेहतरीन थीं, उतनी ही संवेदनशील और काव्यात्मक दृष्टि उनकी इस विशिष्ट समीक्षा में भी देखने को मिलती है।पूनम अरोड़ा की कविताओं, कहानियों और आलेखों का प्रकाशन देश की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में हो चुका है। इनका एक कविता-संग्रह ‘कामनाहीन पत्ता’, एक उपन्यास ‘नीला आईना’ प्रकाशित हो चुका है। एक किताब ‘बारिश के आने से पहले’ का सम्पादन कर चुकी हैं। कुछ कविताओं का अंग्रेज़ी, नेपाली और मराठी भाषा में अनुवाद हो चुका है। वो हरियाणा साहित्य अकादमी के युवा लेखन पुरस्कार से सम्मानित हो चुकी हैं। वोदका लेमन की कहानी उत्तर-सोवियत काल के आर्मीनिया के एक दूरस्थ यज़ीदी-कुर्दिश गांव की है। बर्फ से ढके इस गांव की निस्तब्धता में विकल्पहीनता का सन्नाटा है और इसके रहवासियों के जीवन-संघर्षों का मौन कोलाहल भी। ये फिल्म वेनिस फिल्म फेस्टिवल में पुरस्कृत हो चुकी है।
जहाँ जीवन और उसके विकल्प उदास चेहरों की परिणीति में किसी उल्लास की कामना करते मिलते हैं.
जहाँ यह चाहा जाता है कि गरीबी में किसी एक, केवल एक विकल्प की खोज कर ली जाए जो भयावह अपमान की व्याकुल तत्परता को अपराध और मानुषिक पीड़ा से मुक्ति दिला दे.
जहाँ बर्फ के फूलों में खामोशी के तसव्वुर अपनी चंचलता के साथ मीठे नग़्मे गाये और किसी अंतहीन धुन का पीछा करते रहे.
लेकिन अफ़सोस!
ऐसा होना किसी व्यंग्य की सबसे तेज़ धार से उत्पन्न हुआ आवाज़ का एक जखीरा है. एक आदमकद कोलाहलपूर्ण जखीरा. जिसके मध्य रोशनी की एक भी किरण बची दिखाई नहीं देती.
‘वोदका लेमन’ हिनर सलीम (Hiner Saleem) द्वारा सन 2003 में निर्देशित की गई आर्मीनियाई फिल्म है. प्रथम दृष्टि में ही यह फिल्म एक जिज्ञासा को लेकर चलती है और अंत में जब सारी जिज्ञासाओं से परदा हट जाता है तो विकल्पों के अभाव के विरोध में सुख का संगीत बजता सुनाई देता है.
हैमो और नीना दोनों अकेले हैं और दोनों ही अपने मृत साथियों की कब्रों पर रोज़ जाते हैं. कब्रें बर्फ से ढकी हैं, आर्मीनिया का वह पिछड़ा गाँव बर्फ से ढका है. जीवन बर्फ से ढका है. सब कुछ बर्फ के सफेद फूलों के भयावह सन्नाटे से ढका है. यह सन्नाटा रात को नीला और अधिक तन्हा हो जाता है. नीना और हैमो की मुलाकातें उन्हीं कब्रों से शुरू होती हैं. वे अपने साथियों की तस्वीरों से बर्फ हटाते हैं, उनसे अपनी आपबीती कहते हैं और लौट आते हैं. रोज़ाना के इस सिलसिले में दोनों की मुलाक़ात हैमो द्वारा नीना के बस का भाड़ा देने से शुरू होती है जबकि हैमो स्वयं अभावों से जूझ रहा होता है.
नीना एक लोकल बार में काम करती है जो कि बन्द होने वाला है. यह नीना के लिए एक त्रासदी है. और जिस समय वह यह बात अपनी बेटी से कहती है तो दोनों के आँसू किसी विनीत क्षण के लिए प्रार्थना करते दिखाई देते हैं. नीना की खूबसूरत बेटी जो कि पियानो से बेहद लगाव रखती है और उसके संगीत को अपनी आजीविका बताती है दरअसल एक वेश्या है. वह केवल एक भोग्या ही नहीं बल्कि अपमानित और त्रस्त भी है. ऐसी स्थितियों में नीना और उसकी बेटी अपना पियानो बेचने को मजबूर हो जाते हैं.
पियानो को बेचने ले जाने से पूर्व नीना की बेटी उसे रोते हुए आखिरी सुर के साथ विदा करती हैं. वह पियानो बजाती रहती है और आँसू उसके हवाले से पियानो के लिए विदाई गीत गाते रहते हैं. यह दृश्य अनंतिम पीड़ा का परिचायक है. यह देख समझ आता है कि जीवन के चारों तरफ त्रासदियों के जाले किस तरह बुने होते हैं.
एक हिस्से में आकर देखे तो पता चलेगा कि यहाँ सब कुछ बिक रहा है. हैमो अपने घर की सब चीजें (अलमारी, कपड़े, टेलीविजन) बेच रहा है. यहाँ तक कि हैमो का घर अब पूरी तरह से खाली हो चुका है. नीना भी इसी कगार पर खड़ी है. जीवन जैसे अभावों की एक हास्यास्पद नींद है और बर्फ की ख़ामोशी में यह नींद कभी नही खुलने वाली है.
‘वोदका लेमन’ का एक किरदार फिल्म में किसी फ़रिश्ते सरीखी अपनी उपस्थिति को कई बार दर्ज करता है, वह है बस का ड्राइवर. वह कई बार नीना को उसके अगली बार भाड़ा देने के वादे पर सिमेट्री से गाँव ले जाता है और कई बार गाना गाते हुए बर्फ की सर्द ख़ामोशी से भरे रास्ते से होकर गुजरता है. उसके गीत दिल हारने तक सम्मोहित करते हैं. और इस सम्मोहन में हम गीत गाने वाले को भला रोक भी कैसे सकते हैं. इसलिए जब कोई गीत गाये तो उसे कभी मत रोकना
*(क्योंकि गीत गुनगुनाना महज़ एक तकल्लुफ़ नहीं. गीत हृदय की श्वेत-श्याम स्मृतियों का एक सघन नीड़ होता है. गुनगुनाने वाला जाने किसे अपनी आँखों से ओझल होता हुआ देख रहा होता है या फिर ये भी तो नहीं मालूम कि हो सकता है किसी की सर्द आहटें मन की कांपती धुन पर बिना पूछे ही चली आईं हों.
मत रोकना किसी को गीत गाने से जब वह अलविदा की किसी सीढ़ी पर खड़ा हो. एकाकी और स्वप्नदृष्टा होकर कि उस समय उसका दिल एक चिड़िया-सा होता है.
और तब भी नहीं जब उसने यूँ ही अपने गिरेबान खोल दिए हों कि आओ, आओ सारी जन्नतें और समा जाओ मुझमें कि मैं प्यास की आंधियों के बिल्कुल बीच में हूँ और मेरे ‘मैं’ को दूर ले जाओ माइग्रेटरी पक्षियों के साथ जैसे कि मैं हल्का होकर अस्तित्वहीन हो जाऊं.
और हाँ अब तुम्हें बहुत धीमे से बताती हूँ कि मत रोकना किसी को गीत गाने से जब कोई ज़िन्दगी की माचिस की सारी तीलियाँ जला कर ख़त्म कर चुका हो. जो लगभग आँखे खोल कर बेहोशी में रंग को खुशबुओं से अलग कर लेना चाहता हो. जिसे बहते पानी की ठंडक अपनी प्रेयसी की स्मृति से मिल जाती हो.
किसी को उसकी तन्हाई से कभी मत डराना और कभी मत रोकना किसी को, जब कोई गीत गाये.)
फिल्म अपनी गति, खामोशी, मानवीय पीड़ा और सिमेट्री से गाँव के सफर में बनते नये रिश्तों को दिखाती हुई अंत में उस आशा पर पहुँच जाती है जहाँ कोई भी यातना बिना विकल्पों के जीवन के संगीत को अपनी उंगलियों से बजाती हुई ऊँचे झरने की तरह बह सकती है.
सिनेमा अपने अंतर्जगत में संवादों का प्रौढ़ हो जाना है. यह एक ऐसा माध्यम है जो दृश्यों द्वारा अपना एक स्थायी असर छोड़ता है. जो एक तरफ मिथकों को खारिज करता है तो दूसरी तरफ मनुष्यता को एक समानांतर संसार में ले जा कर यातनाओं और कलाओं का अनुभव भी कराता है. एक विशेष प्रस्थान बिंदु से होकर हम अपने-अपने सत्यों को टटोलते हुए प्रयोगात्मक होने लगते हैं और शायद यही वो सौंदर्य है जिसे हम कैमरे की आँख से सिनेमा के गुह्य रस्मों-रिवाज़ की तरह देख पाते हैं.