News/ Updates

News/ Updates

हिन्दी सिनेमा में ब्राह्मणवाद और दलित मुक्ति के संदर्भ 2

भारतीय समाज में निहित जटिलताओं को कहीं ज्यादा सूक्ष्मता से चित्रित उन फ़िल्मकारों ने किया है जिन्होंने यथार्थवादी परंपरा से अपने को जोड़ा है। 1970 के लगभग भारतीय सिनेमा में यथार्थवाद की जो नयी लहर उभरी उसने दलित समाज की समस्याओं को भी अपना विषय बनाया। श्याम बेनेगल ने आरंभ से ही इस ओर ध्यान दिया है। ‘अंकुर’ (1973), ‘मंथन’ (1976) और ‘समर’ (1998) में उन्होंने दलित समस्या को अपनी फ़िल्मों का विषय बनाया है।

News/ Updates

हिन्दी सिनेमा में ब्राह्मणवाद और दलित मुक्ति के संदर्भ 1

“ठाकुर साहब हम गरीब हैं तो क्या, हमारी भी इज्जत है”। 1960-70 के दशक में हर दूसरी-तीसरी फ़िल्मों में इस तरह के संवाद सुनने को मिलते थे। लेकिन यह भी सच्चाई है कि उच्चवर्गीय अहंकार का भौंडा प्रदर्शन भी हम फ़िल्मों में देखते हैं। ‘रेशमा और शेरा’ (1971), ‘राजपूत’ (1982), ‘क्षत्रिय’ (1993) और इस तरह की कई फ़िल्मों में इस श्रेष्ठता को विषय बनाया गया है। “हम ठाकुर हैं जान दे देंगे लेकिन किसी के सामने सिर नहीं झुकायेंगे”, “ब्राह्मण की संतान होकर तूने यह कुकर्म किया”, “एक सच्चा राजपूत ऐसा कर ही नहीं सकता”।

News/ Updates

सभी भूमिकाओं में श्रेष्ठ थे  बलराज- परीक्षित साहनी

डैड ने 1938 में एक साल के लिए महात्मा गाँधी के साथ सेवाग्राम में काम किया था। अगले साल उन्हें अन्य देशों में युद्धरत भारतीय सैनिकों के लिए हिंदी में कार्यक्रम प्रसारित करने के लिए भारत-भूमि को छोड़कर इंग्लैण्ड की उड़ान भरने के लिए कहा गया। डैड पल-भर के लिए भी नहीं झिझके। वह परिवार के किसी भी सदस्य से अलग थे। वे हमेशा नई-नई ख़तरनाक चुनौतियों की तलाश में रहते थे।

News/ Updates

1947 के जूनागढ़ में छूटी एक घूंट चाय…

‘द मिनिएचरिस्ट ऑफ जूनागढ़’ उसी दौर पर बनाई एक शॉर्ट फिल्म है, जब हवा में फैली दहशत, नफ़रत, अनिश्चितता और शक ने लोगों की बुद्धि और विवेक का काफी हद तक नाश कर दिया था। ज़माना नहीं खराब था, पर हवा खराब थी।
29 मिनट की इस शॉर्ट फिल्म की दिल्ली में पहली बार स्क्रीनिंग आयोजित की गई, जिसमें फिल्म के डायरेक्टर कौशल ओज़ा भी दर्शकों से मुखातिब हुए और उनके सवालों का जवाब दिया।

Vinod Tewari Book on film appreciation
News/ Updates

सिनेमा की समझ बेहतर करने वाली हिंदी किताब का लोकार्पण

आज के दौर में ऐसी पुस्तक की ज़रूरत और बढ़ गई है, जब फिल्म पत्रकारिता लगभग खत्म हो चुकी है या कह लें पीआर एक्सरसाइज़ में बदल चुकी है। किसी फिल्म की ईमानदार और निष्पक्ष समीक्षा देख-पढ़ पाना बेहद दुरूह हो चुका है। ऐसे में ज़रूरी है कि दर्शक सिनेमा को देखने समझने के अपने नज़रिए को समृद्ध करें, ताकि उन्हे बरगलाया न जा सके।

Kolkata International Children Film Festival 2025
News/ Updates

11वां अंतरराष्ट्रीय बाल फिल्म महोत्सव: पर्दे पर बच्चों का खूबसूरत संसार

तकरीबन डेढ़ हजार बच्चों के बीच अंतरराष्ट्रीय बाल फिल्म महोत्सव का उद्घाटन निर्देशक ध्रुव हर्ष की खूबसूरत हिंदी फिल्म ‘इल्हाम’ से हुआ।लंदन के ‘रेनबो अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव’ में पुरस्कृत ध्रुव हर्ष की ‘इल्हाम’ वाकई एक बढ़िया बाल फिल्म है, जिसमें एक बच्चे और एक बकरे की दोस्ती को खूबसूरत ढंग से पिरोया गया है।

News/ Updates

इमरजेंसी: इंदिरा की तलाश में भटकती कंगना की फिल्म

यह फिल्म इमरजेंसी की घटना को शीर्षक रूप में रख कर बनाई ज़रूर गई है लेकिन फिल्म की निर्माता-निर्देशक और केंद्रीय भूमिका निभा रही कंगना रनौत ने इसका कालखंड इंदिरा गांधी के बचपन से लेकर उनकी हत्या तक फैला दिया है। इस वजह से यह पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ढीलीढाली, छितरी हुई बायोपिक जैसी बन गई है।

News/ Updates

मृणाल सेन की ‘भुवन शोम’ क्यों मानी जाती है खास?

मनुष्य का जीवन एकरेखीय नहीं होता। अलग-अलग जगहों में वह अलग-अलग भूमिकाओं में होता है। वह कहीं अफसर हो सकता है तो कहीं पिता, प्रेमी, पुत्र या किसी का दोस्त भी हो सकता है। हम उससे हर जगह एक जैसे व्यवहार की उम्मीद नहीं कर सकते। व्यक्ति को इन सभी भूमिकाओं को जीना होता है। यही जीवन का सौंदर्य है।

News/ Updates

‘गर्ल्स विल बी गर्ल्स’: किशोर लड़कियों के मन में झांकता संवेदनशील सिनेमा

इस फिल्म में मुख्य भूमिका पायल कपाड़िया की ‘ऑल वी इमैजिन ऐज़ लाइट’ फिल्म से मशहूर हुई कनी कुश्रुति, प्रीति पाणिग्रही (पहली फिल्म), केशव बिनय किरण आदि ने निभाई है। इस फिल्म की एक और खासियत है कि इसकी अधिकतर तकनीशियन औरतें हैं। शुचि तलाती का कहना है कि ऐसे संवेदनशील विषय फिल्म शूट करते हुए यदि सेट पर केवल महिलाएं ही हों तो कलाकारों को बहुत सुविधा हो जाती है।

News/ Updates

द शेमलेस: दो त्रासद ‘स्त्रीत्व’ के बीच जीवन की तलाश

फिल्म ‘द शेमलेस’ कहीं से भी अलग से कोई नैतिक उपदेश देने की कोशिश नहीं करती और न ही किसी पर कोई आरोप लगाती है। परिस्थितियों और मानवीय संवेदनाओं के जरिए पटकथा का ताना-बाना बुना गया है। एक तरफ दादी (मीता वशिष्ठ) की निष्क्रिय आध्यात्मिकता है तो दूसरी तरफ मां की खानदानी जिम्मेदारी निभाने की क्रूरता तो इन सबसे ऊपर बेटी की मुक्ति-लालसाएं है।

Scroll to Top