पायल कपाड़िया की फिल्म ‘ए नाइट ऑफ नोइंग नथिंग’
पायल कपाड़िया की फिल्म ‘ऑल वी इमैजिन ऐज़ लाइट‘ ने इस साल 77वें कान फिल्म समारोह में न सिर्फ तारीफ बटोरी बल्कि इस प्रतिष्ठित फिल्म समारोह का दूसरा बड़ा अवार्ड भी जीता। ये पायल की चौथी फिल्म थी। इसके पहले पायल ने दो शार्ट फिल्में बनाई थी और एक फीचर फिल्म। 2021 के कान फिल्म समारोह में उनकी फीचर फिल्म को गोल्डन आई अवार्ड मिला था। फिल्म का शीर्षक है ‘ए नाइट ऑफ नोइंग नथिंग‘। करीब डेढ़ घंटे की इस फिल्म पर एक समीक्षात्मक आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं जाने-माने लेखक-अनुवादक अरुण जी।
पायल कपाड़िया की जिस फिल्म को इस वर्ष कान फिल्म फेस्टिवल में ग्रां प्री मिला उसने काफी सुर्खियां बटोरीं। पर उनकी एक और फिल्म अपने आप में कम महत्वपूर्ण नहीं है। उसे भी कान 2021 में पुरस्कार मिल चुका है। फिल्म का नाम है ‘ए नाइट ऑफ नोइंग नथिंग’।
फिल्म के शीर्षक को देखकर लगता है कि यह एक अंग्रेजी फिल्म होगी। पर ऐसा नहीं है। ये पूर्ण रूप से हिंदी भी नहीं है। यह भाषा की सीमाओं को तोड़ती है। भाषा के अलावा आवाज़, दृश्य एवं अन्य कई सीमाओं को तोड़ती है। ‘ए नाइट ऑफ नोइंग नथिंग’ एक अनूठी फिल्म है जो दर्शकों को बांध कर रखती है। उनके विचारों को झकझोरती है।
इस फिल्म में दो कहानियां हैं। दोनों साथ-साथ चलती हैं। एक-दूसरे से जुड़ी भी हैं और अलग भी। एक है प्रेम में विरह की कहानी। दूसरी है उन छात्र आंदोलनों की, जिसकी शुरुआत 2015 में पुणे फिल्म ऐंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट से हुई थी।
पहली कहानी में पुणे फिल्म एवं टेलीविजन इंस्टीट्यूट में पढ़ने वाली एक छात्रा को अपने एक सहपाठी लड़के से प्रेम हो जाता है। लड़के के माता-पिता को जब इस बात का पता चलता है, तो वे इन्स्टीट्यूट में उसकी पढ़ाई पर प्रतिबंध लगा देते हैं क्योंकि लड़की छोटि जाति से है। लड़का इंस्टीट्यूट लौटकर नहीं आता है और अपनी प्रेमिका से अलग हो जाता है। लड़की जिसका नाम नाम एल (L) है विरह में तड़पती है एवं अपनी भावनाओं एवं इच्छाओं को चिट्ठियों में व्यक्त करती है।
उन्हीं चिट्ठियों के माध्यम से हमें दूसरी कहानी के बारे में पता चलता है। 2015 में पुणे फिल्म ऐंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट में जब छात्र-छात्राओं ने वहां के अध्यक्ष गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू किया था तो एल और उसका प्रेमी दोनों इसमें अग्रणी भूमिका में थे। उसी दौरान दोनों एक-दूसरे के करीब आए थे। उसके बाद छात्र आंदोलन देश के कई विश्वविद्यालयों में फैल गया और एल उससे जुड़ती चली गई। हालांकि उसका प्रेमी अब उसके साथ नहीं था।
एल ने देखा कि उन सभी आंदोलनों में छात्रों के वाजिब मांगो पर भी सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगी। सबको बेरहमी से कुचल दिया गया। चाहे वो हैदराबाद सेन्ट्रल विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की आत्महत्या एवं जातिगत भेद-भाव से जुड़ी बात हो या जेएनयू, अलीगढ़ एवं जामिया मिल्लिया के मुद्दे। सरकार ने सबको अपनी दमनकारी नीतियों से नियंत्रित कर लिया। 2015 से 2019 के बीच देशभर में फैले विश्वविद्यालयों में हुए इन आन्दोलनों से एल निराश हो रही थी। उसे महसूस हो रहा था कि वह ठगी जा रही है। अपने प्रेमी से भी और स्टेट से भी।
इस फिल्म में दो थीम हैं। एक जो एल की प्रेम कहानी पर आधारित है। जिसमें व्यक्ति एवं समाज के टकराव को दर्शाया गया है। एल और उस लड़के का प्रेम एक स्वाभाविक मानवीय घटना है जिसमें समाज की जाति-व्यवस्था रुकावट बन कर खड़ी हो जाती है। समाज उनके निजी जीवन को नियंत्रित करता है। उनके अधिकारों का हनन करता है।
दूसरी थीम उभरती है उन छात्र आंदोलनों से जिनमें नागरिक और स्टेट के टकराव को दिखाया गया है। लोकतांत्रिक व्यवस्था पर आधारित स्टेट की जिम्मेवारी है कि वह नागरिकों को अच्छी एवं सस्ती शिक्षा प्रदान करे। शिक्षण संस्थाओं में विद्यार्थियों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए तत्पर हो। लेकिन फिल्म में हम देखते हैं कि ठीक इसके विपरीत स्टेट नागरिकों के इन्हीं अधिकारों को छीनने पर तुली है।
पायल कपाड़िया ने इस फिल्म में समाज एवं देश में व्याप्त कुछ विडंबनाओं को उजागर करने की कोशिश की है। पहली विडम्बना एल के प्रेमी से जुड़ी है जिसके बारे में वह अपनी चिट्ठी में जिक्र भी करती है। वह उसे कहती है कि तुम अपने अधिकारों के लिए स्टेट का विरोध कर सकते हो पर अपने प्रेम के लिए परिवार का विरोध नहीं कर सकते। दूसरी स्टेट से जुड़ी है। स्टेट का कर्तव्य है नागरिकों के हितों की रक्षा करना। लेकिन इसके ठीक विपरीत वह नागरिकों के अधिकारों को छीनता है। इन विडंबनाओं के माध्यम से फिल्मकार देश में राजनीतिक एवं सामाजिक बदलाव की जरूरत की ओर दर्शकों का ध्यान आकृष्ट करता है।
कहानी एवं थीम के अलावा इस फिल्म के कई और आयाम हैं। जैसे सिनेमेटोग्राफी, अभिनय, निर्देशन, संपादन, आवाज़ इत्यादि। फिल्ममेकर ने हरेक का उपयोग खूबसूरती से किया है।
पूरी फिल्म में एल की धीमी आवाज़ और उसके साथ चल रहे चित्र दर्शकों के मानसपटल पर गहरी छाप छोड़ते हैं। धीमी होने के बावजूद एल की आवाज़ में दर्द, पश्चाताप एवं द्वंद्व है। ऐसा लगता है कि अपने प्रेम के बारे में याद कर या छात्रों की दुर्दशा के बारे में सोचकर वह उदास है। उसकी यह उदासी उसकी चिट्ठियों में झलकती है। रातों में उसके तड़पने की आवाज़ फिल्म खत्म होने के बाद भी दर्शकों के कानों में गूंजती है। फिल्म में छात्र आंदोलनों से जुड़े कुछ वास्तविक विडियो क्लिप हैं जो दिल दहलाने वाले हैं। वे बार-बार हमारी आंखों के सामने कौंधते हैं।
ए नाइट ऑफ नोइंग नथिंग के निर्माण की कहानी भी दिलचस्प है। 2015 में फिल्म ऐंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट पुणे में छात्रों ने जब गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति के खिलाफ विरोध शुरू किया था तब पायल कपाड़िया उस वक्त वहां की छात्रा थीं। उन्होंने उस आन्दोलन में भाग लिया था। आन्दोलन की गतिविधियों को पायल और उनके साथी अपने कैमरे में क़ैद कर रहे थे। बाद के वर्षों में उनके पास हैदराबाद, जेएनयू, जामिया, अलीगढ़ में हुए आन्दोलनों के विडियो फुटेज भी आने लगे। कुछ अपने थे, कुछ दोस्तों ने दिए और कुछ इंटरनेट पर मिल गये। 2017 तक इन आन्दोलनों के फुटेज का जब एक अच्छा संग्रह हो गया तब उनके मन में इसे एक फिल्म के रूप में परिवर्तित करने का विचार आया। और उन्होंने एक काल्पनिक प्रेम कहानी को इससे जोड़ा। इस प्रकार यह फिल्म कल्पना और सच्चाई का एक अद्भुत मिश्रण है जिसमें एल की कहानी काल्पनिक एवं आन्दोलनों की कहानी सच है।
हालांकि 2021 के कान फिल्म फेस्टिवल में इस फिल्म को एक डाक्यूमेंट्री के रूप में पुरस्कार मिला है। शायद इसलिए क्योंकि इसमें आन्दोलनों की सच्चाई को दर्ज किया गया है। पर डाक्यूमेंट्री की परिधि में इस फिल्म को सीमित करना इसके महत्व को कम करने जैसा है।
ए नाइट ऑफ नोइंग नथिंग एक कलात्मक फिल्म है जो दर्शकों का मनोरंजन करती है। उनके विचारों को छूती है। उन्हें समृद्ध करती है। यह आनेवाले फिल्मकारों के लिए नये प्रतिमान गढ़ती है।