इमरजेंसी: इंदिरा की तलाश में भटकती कंगना की फिल्म
बतौर डायरेक्टर-एक्टर कंगना रनौत की एक और फिल्म इमरजेंसी कुछ ही दिन पहले रिलीज़ हुई है, जो इंदिरा गांधी के जीवन पर आधारित है। फिल्म की कई पहलुओं से चर्चा हो रही है। चूंकि कंगना रनौत सत्ताधारी दल से सांसद हैं और राजनीतिक व्यक्तित्वों और राजनीतिक घटनाओं पर एक विशेष नज़रिए से फिल्म बनाने का चलन चल निकला है… इसलिए फिल्म की समीक्षा या उसके गुण-दोष पर चर्चा में ये तथ्य खुद-बखुद जुड़ जाते हैं। यहा पर इस फिल्म पर एक समीक्षात्मक आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार और फिल्म समीक्षक अमिताभ श्रीवास्तव। अमिताभ श्रीवास्तव आजतक, इंडिया टीवी जैसे न्यूज़ चैनलों में बतौर वरिष्ठ कार्यकारी संपादक कार्य कर चुके हैं। NDFF से इसकी शुरुआत से ही जुड़े रहे हैं और ‘टॉक सिनेमा’ सीरीज़ के लाइव सत्रों का संचालन करते रहे हैं। इन दिनों सत्य हिंदी पोर्टल पर नियमित रुप से ‘सिनेमा संवाद’ सत्र का संचालन कर रहे हैं।
हिंदी फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौत बीजेपी की सांसद हैं और उनकी पार्टी पिछले दस साल में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में कांग्रेस के वर्तमान गांधी-नेहरू परिवार के पुरखों यानी जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी पर लगातार हमलावर रही है। आजाद भारत में देश में इकलौता आपातकाल या इमरजेंसी लागू करने के लिए इंदिरा गांधी की कड़ी आलोचना नरेंद्र मोदी के केंद्रीय राजनीति में आने से पहले भी होती रही है लेकिन मोदी ने इसे एक अभूतपूर्व आक्रामकता के साथ कांग्रेस विरोध की राजनीति के प्रमुख तत्व के रूप में प्रतिस्थापित किया और कांग्रेस विरोधी विमर्श का एक स्थायी अंग बना दिया। भारतीय राजनीति के एक काले अध्याय के रूप में इमरजेंसी के विरोध के लिए लोकसभा में बाकायदा प्रस्ताव पारित करवाया गया और एक दिन इसके विरोध के नाम तय कर दिया गया है । ऐसे में कंगना रनौत की फिल्म Emergency को क़ायदे से तो सरकार, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री की तरफ से कश्मीर फाइल्स, केरल स्टोरी और साबरमती रिपोर्ट जैसी फिल्मों की तरह जबरदस्त प्रोत्साहन मिलना चाहिए था लेकिन सत्ता और जनता की तरफ से इस फिल्म को जिस तरह का शुरुआती रिस्पॉंन्स मिला है, उससे इस फिल्म की सराहना और सफलता दोनों की ही उम्मीद धुँधली पड़ गई है।
यह फिल्म इमरजेंसी की घटना को शीर्षक रूप में रख कर बनाई ज़रूर गई है लेकिन फिल्म की निर्माता-निर्देशक और केंद्रीय भूमिका निभा रही कंगना रनौत ने इसका कालखंड इंदिरा गांधी के बचपन से लेकर उनकी हत्या तक फैला दिया है। इस वजह से यह पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ढीलीढाली, छितरी हुई बायोपिक जैसी बन गई है जो अंतत: इंदिरा गांधी को उनकी तमाम सियासी ख़ूबियों और ख़ामियों के साथ एक ऐसी महिला की तरह प्रस्तुत करती है जो बहुत महत्वाकांक्षी थी, बेहद असुरक्षित थी, पुत्रमोह का शिकार थी, राजनीतिक तौर पर बेहद हिम्मती और चतुर-चालाक थी, अपने हित के लिए किसी भी हद तक जा सकती थी लेकिन साथ-साथ जनता से जुड़ाव भी रखती थी और अंतत: जिसकी उसके ही अंगरक्षकों ने निर्ममता से हत्या कर दी थी। फिल्म इंदिरा गांधी को उस तरह भारतीय राजनीति की खलनायिका की तरह नहीं दिखाती जैसा कंगना रनौत की पार्टी करती रहती है। इस अर्थ में वह प्रोपेगैंडा फिल्म की तरह होते हुए भी मौजूदा सरकार या सत्ता तंत्र के किसी काम आने वाली नहीं है।
दरअसल, इमरजेंसी के विषय को लेकर कंगना रनौत ने फिल्म जिस नज़रिये से बनाई है, उसकी वजह से फिल्म देखने के बाद सबसे ज्यादा नाराज़गी सोनिया-राहुल-प्रियंका गांधी को नहीं बल्कि मेनका गांधी और वरुण गांधी को होगी क्योंकि कंगना की फिल्म में संजय गांधी इमरजेंसी के खलनायक दिखाये गये हैं। फिल्म जिन दो किताबों पर आधारित बताई गई है, उनमें वरिष्ठ पत्रकार कूमी कपूर की किताब भी है जिसका शीर्षक भी इमरजेंसी है। कंगना रनौत की यह तीसरी बायोपिक है। इससे पहले वह जयललिता, रानी लक्ष्मीबाई की भूमिका निभा चुकी हैं। बतौर अभिनेत्री कंगना रनौत निर्देशक कंगना रनौत से बेहतर लगी हैं। हालांकि कंगना रनौत को समझना चाहिये कि सिर्फ सफ़ेद बालों वाली विग लगाकर या इंदिरा गांधी के बोलने के लहजे की नक़ल करके परदे पर इंदिरा गांधी को साकार नहीं कर सकतीं। इंदिरा गांधी अपनी जवानी से लेकर प्रौढ़ावस्था तक बहुत सुंदर महिला तो थीं ही, बहुत धड़ल्लेदार नेता भी थीं , उनकी आवाज़ में एक खनक थी और बहुत आत्मविश्वास झलकता था। कंगना रनौत यह सब दिखाने में नाकाम रही हैं। इमरजेंसी जैसे गंभीर विषय पर फिल्म में जब आप इंदिरा गांधी, जयप्रकाश नारायण, अटलबिहारी वाजपेयी और फ़ील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ को अचानक गाना गाते देखते हैं तो आपको निर्देशक की अक़्ल पर तरस आता है।
कंगना ने बहुत कुछ दिखाने की हड़बड़ी या अतिउत्साह में ढेर सारे चरित्र ठूँस दिये हैं लेकिन कोई भी ठीक से उभर कर नहीं आ पाता। अनुपम खेर जय प्रकाश नारायण नहीं लगते, श्रेयस तलपड़े अटल बिहारी वाजपेयी नहीं लगते। सतीश कौशिक को जरूर जगजीवन राम से काफी हद तक मिला दिया गया है। कंगना रनौत की फिल्म के संजय गांधी के मुकाबले मधुर भंडारकर की फिल्म इंदु सरकार में नील नितिन मुकेश बहुत बेहतर संजय गांधी लगे थे।
फिल्म के बारे में बहुत उदार होकर भी कहा जाए तो इसे बेहद औसत कहा जाएगा।