उत्पलेंदु चक्रवर्ती: ‘चोख’ और ‘देबशिशु’ का फिल्मकार
‘चोख’ और ‘देबशिशु’ जैसी फिल्में बनाने वाले निर्देशक उत्पलेंदु चक्रवर्ती नहीं रहे। आज की पीढ़ी न उनके नाम से, न ही इन फिल्मों के नामों से परिचित होगी। लेकिन इन फिल्मों ने 70 के दशक में फली-फूली न्यू वेव सिनेमा की परंपरा को 80 के दशक में आगे बढ़ाया और काफी प्रशंसित, सम्मानित हुईं। कलकत्ता के वरिष्ठ पत्रकार जयनारायण प्रसाद उत्पलेंदु चक्रवर्ती से 1983 से संपर्क में रहे हैं। इस लेख के ज़रिए वो उत्पलेंदु चक्रवर्ती के जीवन और उनकी फिल्मों को याद कर रहे हैं। जयनारायण प्रसाद इंडियन एक्सप्रेस समूह के अखबार जनसत्ता कलकत्ता में 28 सालों तक काम करने के बाद रिटायर होकर कलकत्ता में ही रहते हैं। हिंदी में एम ए जयनारायण प्रसाद ने सिनेमा पर व्यापक रुप से गंभीर और तथ्यपरक लेखन किया है। गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी, गायक मन्ना डे, फिल्मकार श्याम बेनेगल, अभिनेता शम्मी कपूर से लेकर अमोल पालेकर, नसीरुद्दीन शाह और शबाना आज़मी तक से बातचीत। जय नारायण प्रसाद ने जाने माने फिल्मकार गौतम घोष की राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त बांग्ला फिल्म ‘शंखचिल’ में अभिनय भी किया है।
मैं उत्पलेंदु चक्रवर्ती से पहली दफा 1983 में मिला था। जिस दिन उनके कलकत्ता वाले मकान (पाइकपाड़ा, श्यामबाजार से थोड़ी दूर पर) पर मिलने पहुचा था, उनकी पहली पत्नी इंद्राणी उनके जूते का फीता बांध रही थीं। कोई चार घंटे बाद उत्पलेंदु की फ्लाइट थीं बर्लिन के लिए। मुझे बिठाया और चाय पिलाई। कहा- बर्लिन से लौटता हूं, तो आपसे बात होगी। मैं लौट आया। ‘चोख’ को 1983 के बर्लिन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में Forum of New Cinema कैटेगरी में OCIC (International Catholic Organization for Cinema and Audiovisual) अवॉर्ड मिला, जो गैर-प्रतियोगिता खंड का एक स्वतंत्र पुरस्कार होता है।
मैं दो हफ्ते बाद उत्पलेंदु के पास फिर गया, तो सिनेमा की दीन-दुनिया और उनकी बांग्ला फिल्म ‘चोख’ (आंख) पर लंबी बातचीत हुई। इंदौर में ‘नई दुनिया’ को भेजा। तब राजेंद्र माथुर वहां संपादक थे, जिन्होने इसे बाद शानदार ढंग से छापा। उत्पलेंदु से फिर-फिर मुलाकातें होती रहीं। वर्ष 1985 में जब हिंदी में उन्होने ‘देबशिशु’ बनाई, तो शूटिंग पर बुलाया। स्मिता पाटिल से मिलना हुआ – रोहिणी हट्टंगड़ी से भी और साधु मेहर से भी। ‘देबशिशु’ अपने विषय और कलात्मकता की वजह से बहुत चर्चित भी हुई और प्रशंसित भी। हालांकि इस फिल्म को लेकर साहित्यकार स्वदेश दीपक से उनका विवाद भी हुआ जो दिल्ली की अदालत तक पहुंचा। स्वदेश दीपक का आरोप था कि ये फिल्म उनकी कहानी ‘बाल भगवान’ पर आधारित है। हालांकि बाद में इन दोनों में समझौता हुआ और दोस्ती भी।
ये सब लिखते हुए लगता है जैसे कल की ही बात हो… । सोमवार 19 अगस्त, 2024 की शाम उत्पलेंदु को दिल का दौरा पड़ा और 76 साल के उत्पलेंदु देखते ही देखते चल बसे। बताया गया कि थोड़ी देर पहले तक वो बिलकुल ठीक थे और चाय पी रहे थे।
उत्पलेंदु चक्रवर्ती का जन्म बांग्लादेश में राजशाही संभाग के पाबना जिले के शंख गांव में वर्ष 1948 में हुआ था। उनके पिता निर्मल रंजन चक्रवर्ती शिक्षक थे। बाद में पिताजी का प्रभाव ऐसा पड़ा कि उत्पलेंदु चक्रवर्ती भी शिक्षक हो गए। बांग्लादेश से कलकत्ता आने के बाद उत्पलेंदु चक्रवर्ती ने कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध स्कॉटिश चर्च कॉलेज से स्नातक किया। ये वो कॉलेज है जहां स्वामी विवेकानंद, परमहंस योगानंद, ए सी भक्तिवेदांत स्वामी परमपाद और मन्ना डे जैसे लोगों ने भी शिक्षा प्राप्त की थी। स्नातक करने के बाद वो एक स्कूल में टीचर बन गए।
उत्पलेंदु चक्रवर्ती को छात्र जीवन से राजनीति में दिलचस्पी थीं। बंगाल के पुरुलिया जिले में आदिवासियों के बीच भी उन्होंने समय गुजारा। बाद में सब कुछ छोड़ कर सिनेमा को अपना लिया। 1979 में उन्होने मूवी कैमरा उठाया और फिल्म बनानी शुरू कर दी। नाम था ‘मोयना तदंत’ (पोस्टमार्टम)। यह उत्पलेंदु चक्रवर्ती की पहली मूवी थीं। 28वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह में उत्पलेंदु की इस पहली बांग्ला फिल्म को निर्देशक की प्रथम फिल्म का राष्ट्रपति पुरस्कार मिला और रातोंरात वे राष्ट्रीय फलक पर आ गए।
वर्ष 1982 आते-आते उत्पलेंदु चक्रवर्ती ने अपनी दूसरी फीचर फिल्म शुरू की। नाम था ‘चोख’ (Eye, आंख)। इस फिल्म को दो राष्ट्रीय पुरस्कार मिले; वर्ष 1983 में 30वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का और उत्पलेंदु चक्रवर्ती को सर्वश्रेष्ठ फिल्मकार का। इस बांग्ला फिल्म में ओमपुरी, श्रीला मजूमदार और श्यामानंद जालान ने डूबकर अभिनय किया था। अब ना अभिनेता ओमपुरी हैं और ना श्यामानंद जालान और ना ही अब उत्पलेंदु चक्रवर्ती जिंदा हैं। उत्पलेंदु चक्रवर्ती की ‘चोख’ (आंख) को उसी वर्ष बर्लिन अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में भी सराहा गया और जब बर्लिन फिल्म फेस्टिवल से उत्पलेंदु लौटे, तो देशभर खासकर बंगाल के घर-घर में उनका नाम पहुंच चुका था। फिल्म दिसंबर 1975 के आपातकाल के दौर पर आधारित है। उस दौर को बैकग्राउंड में रखकर एक मजदूर के साथ हुई नाइंसाफी और नेत्रदान के प्लॉट के बीच इसमें एक मिल में काम करने वाले मजदूरों के संघर्ष की कहानी है
उत्पलेंदु की एक और चर्चित फिल्म ‘देबशिशु’ हिंदी में बनाई गई थी, जिसमें स्मिता पाटिल ने अभिनय किया था। इस फिल्म के पोस्टर में स्मिता पाटिल की तस्वीर बहुत चर्चित रही है और इसे स्मिता पाटिल के अविस्मरणीय किरदारों में से एक माना जाता है। ये फिल्म स्मिता पाटिल की अंतिम फिल्मों में गिनी जाती है और कहा जाता है कि इसमें अभिनय के लिए उन्होने कोई फीस नहीं ली थी। इस फिल्म में स्मिता पाटिल के अलावा ओमपुरी, रोहिणी हट्टंगड़ी और साधु मेहर ने बहुत असरदार अभिनय किया था। काफी दमदार विषय था ‘देबशिशु’ का। इसमें गरीबी और आपदा से ग्रस्त एक ग्रामीण परिवार के संघर्ष की कथा के बीच एक विकलांग पैदा हुए बच्चे को अशिक्षित और पिछड़े इलाकोंं में बाल भगवान बता कर पूजने और उसके ज़रिए कमाई करने के गोरखधंधे का ज़रिया बनाने की कहानी है। लेकिन इस पूरी फिल्म के मूल में समाज में फैले अंधविश्वास और गरीबी की व्यथा-कथा है। ‘देबशिशु’ को मानव जीवन पर गरीबी और अंधविश्वास के दुखद परिणामों का एक बेहतरीन कथात्मक और सिनेमाई अभिव्यक्ति माना जाता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उत्पलेंदु चक्रवर्ती की ‘देबशिशु’ भी काफी सराही गई। कई पुरस्कार भी मिले। स्विट्जरलैंड के लोकार्नो फिल्म महोत्सव में भी यह फिल्म काफी सराही गई।उसके बाद वर्ष 1984 में सत्यजित राय के संगीत पर एक डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाई ‘द म्यूजिक आफ सत्यजित राय’। उत्पलेंदु की इस डाक्यूमेंट्री फिल्म की भी काफी सराहना हुई और इसे बेस्ट नॉन फीचर फिल्म कैटगरी में राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। उत्पलेंदु चक्रवर्ती कहानियां भी लिखते थे ‘स्वर्ण मित्र’ के छद्म नाम से और बांग्ला की मशहूर लघु-पत्रिका ‘अनुष्टुप’ में वे नियमित लिखते थे।
उत्पलेंदु चक्रवर्ती अपनी फिल्मों के ज़रिए अक्सर हाशिये पर पड़े और उत्पीड़ितों के संघर्षों पर फोकस करते थे और उनके काम में सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों के प्रति गहरी प्रतिबद्धता झलकती थी।
उनकी फिल्मों में कहानी कहने की शैली में रियलिज़्म के साथ-साथ एक तरह की लयात्मकता का मिश्रण होता था। उनमें मानवीय भावनाओं और सामाजिक मुद्दों की जटिलताओं को पकड़ने की क्षमता थी। उनकी निर्देशकीय शैली में अक्सर पारंपरिक और प्रयोगात्मक तकनीकों का मिश्रण शामिल होता था, जिससे उनकी फिल्में दिलचस्प और विचारोत्तेजक दोनों बन जाती थीं।
लेकिन रचनात्मकता की बहुमुखी प्रतिभा वाले, ढेर सारी फीचर फिल्म और नौ डाक्यूमेंट्री फिल्में बनाने वाले उत्पलेंदु चक्रवर्ती आखिरी वक्त में बिखर गए थे। कुछ महीने पहले अपने कमरे में गिर जाने से उनकी कमर की हड्डी टूट गई थीं। सांस लेने में भी उत्पलेंदु को दिक्कत होती थीं। उत्पलेंदु ने दो शादियां की थीं। पहली पत्नी इंद्राणी चक्रवर्ती से काफी पहले तलाक हो गया था फिर दूसरी शादी शतरूपा सान्याल से की थी, जो फिल्में बनाती हैं और राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार विजेता भी है। शतरूपा से उनकी दो बेटियां भी हुईं और दोनों बांग्ला धारावाहिकों की जानी-मानी अभिनेत्री हैं। लेकिन शतरुपा से भी उनकी बनी नहीं.. रिश्ता बिखर गया, शतरूपा सान्याल काफी दिनों से उनसे अलग रहती थीं।
इस तरह, उत्पलेंदु चक्रवर्ती लगातार टूटते चले गए। और आखिर में बिखरते रिश्तों और गिरती सेहत के बीच 19 अगस्त, 2024 की शाम हमेशा के लिए एक दूसरी दुनिया में चले गए।