इरफ़ान से चार मुलाक़ातें…

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Irrfan in Life of Pi
Varun Grover

इरफ़ान को गए देखते देखते एक साल बीत गए… लेकिन उनकी फिल्में या उनकी फिल्मों का ज़िक्र जब जब सामने आता है, उनके न रहने की टीस बढ़ जाती है। इरफ़ान की अदाकारी का फ़लक इतना बड़ा शायद इसलिए था क्योंकि उनकी सोच की गहराई बहुत बड़ी थी। इसी गहराई को समझने की कोशिश कर रहे हैं वरुण ग्रोवर… उनसे अपनी चार मुलाकातों के ज़रिए। इसे पढ़कर शायद आप भी उस गहराई के एक पहलू को समझ पाएं और जान पाएं कि कोई कलाकार इरफ़ान कैसे बनता है…. । वरुण हिंदी फिल्म जगत का जाना माना नाम हैं। अपने खास अंदाज़ के लेखन… खासकर गीतों के ज़रिए उन्होने एक बड़ी और अलग पहचान बनाई है।

2005

मुंबई मुश्किल शहर है। ख़ासकर के जब आप नए नए हों। फ़िल्म इंडस्ट्री में काम ढूँढ रहे हों। तेज़ भागता महानगर, अव्यवस्थित इंडस्ट्री और आदतन परेशान लोग। और फिर कलाकार बन ने अमूमन आप घरवालों से झगड़ा कर के ही इस शहर में आए होंगे। इसलिए भी यहाँ नए परेशान लोगों से पुराने परेशान लोग अक्सर मिलते ही नहीं या मिलते हैं। मिलते हैं तो रूखे मन से या अपना फ़ायदा देखकर।

ऐसे ही हाल में 2005 में मैं अपने सह-परेशान लेखक दोस्त राहुल पटेल के साथ मलाड स्थित इनोरबिट मॉल में टहल रहा था। मुझे मुंबई आए हुए क़रीबन सवा-डेढ़ साल हुआ था। हम लोग मंगलवार सुबह मॉल आ जाते थे। पिछले शुक्रवार की नयी रिलीज़ मंगलवार सुबह बहुत सस्ते रेट पर देखने को मिल जाती थी। हमने एक टीवी शो में लिखना शुरू कर दिया था लेकिन कच्चा काम था। कब छूट जाए पता नहीं था। हर नए लेखक की तरह हमारे पास भी चार-पाँच धाँसू आइडिया थे। (2–3 साल में वो सब कचरा लगने लगे।) हमारी कोशिश रहती थी कि किसी भी निर्माता, निर्देशक, या एक्टर को अपनी कहानियाँ सुनाएँ,पर कठिन मामला था।

Film: Maqbool

हम फ़िल्म देख कर निकले ही थे कि सामने इरफ़ान खान टहलते हुए दिखे। तब तक उनकी दो ही मुख्य फ़िल्में आयीं थीं — विशाल भारद्वाज की मक़बूल और तिग्मांशु धूलिया की हासिल। दोनों ही फ़िल्में कामर्शियल नहीं थीं लेकिन सिनेमा देखने वालों में धूम मचा चुकीं थीं। हमारे लिए इरफ़ान तभी से बहुत बड़े कलाकार थे। हालाँकि तब तक मलाड के उस मॉल में बहुत कम लोग ही उन्हें पहचानते होंगे।

इरफ़ान ने 1987 में एन.एस.डी.(नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा) से एक्टिंग का कोर्स किया था। उसके बाद TV पर ग़ज़ब की कई भूमिकाएँ निभायीं (चंद्रकांता, कहकशाँ, और स्टार बेस्टसेलर्स में)। लेकिन एक एक्टर का सफ़र इस शहर में सबसे लम्बा होता है। 2006 में मीरा नायर की फ़िल्म The Namesake में उन्हें वो रोल मिला जो उनका नाम दुनिया भर के महान कलाकारों की जुबान तक लाने वाला था। पर वो रोल जिससे पूरे हिंदुस्तान ने उन्हें जाना उन्हें 2012 में मिला। फिल्म थी तिग्मांशु धूलिया की पान सिंह तोमर। देश के सर्वोच्च विद्यालय से एक्टिंग का सर्टिफ़िकेट मिलने के 25 साल बाद! मैं अक्सर सोचता हूँ कि वो क्या है जो किसी कलाकार को इतनी लम्बी तपस्या करने की शक्ति देता है। कौन से सत्य की खोज उसे उलझाए भी रखती है और हर दिन का हौसला भी देती है।

मैं और राहुल थोड़ा सकुचाते हुए उनके पास पहुँचे और हेलो कहा। हमने उन्हें बताया कि हम उनके काम के मुरीद हैं और ख़ुद लेखक बनने की जुगत में हैं। उन्होंने तसल्ली से हमें सुना और थोड़ी सी हैरत जतायी कि हमने मक़बूल और हासिल दोनों देखी हैं। हमने कहा कि हमारे पास कुछ कहानियाँ हैं जो हम उनको सुनाना चाहते हैं। उन्होंने तुरंत अपना नम्बर दिया और कहा कि जब भी रेडी हो, कॉल करो। अब हमारे पास काम का बोलने को और कुछ नहीं था लेकिन बातें करने का मन भी था। राहुल ने विदेशी फ़िल्मों में देखा था कि अगर आपको किसी का वक़्त चाहिए तो तहज़ीब के हिसाब से कहते हैं कि ‘Can I buy you a coffee?’ (‘क्या मैं आपको कॉफ़ी के लिए आमंत्रित कर सकता हूँ?’) शायद ऐसी विदेशी फ़िल्में इरफ़ान ने भी नहीं देखीं थीं इसलिए वे और मैं दोनों थोड़े अचंभित हो गए। उन्होंने तुरंत कहा अरे तुम क्यों पिलाओगे कॉफ़ी। मैं पिलाता हूँ चलो।

हम लोग बग़ल की एक कॉफ़ी शॉप पर बैठ गए लेकिन कुछ मँगाया नहीं। इरफ़ान को अजीब लग रहा था कि हम उन्हें कॉफ़ी पिलाएँगे और हमें अजीब लग रहा था कि वो हमें। इसलिए हम लोग शायद पाँच-सात मिनट बैठ कर ही उठ गए। इतनी देर में क्या बातें हुयीं, याद नहीं। लेकिन उन्होंने हम अनुभवहीन लेखकों के साथ सह-कलाकारों सा बर्ताव किया, इज़्ज़त दी और हमारे हड़बड़ाए से सवालों के बावजूद हमें नौसिखिया नहीं महसूस कराया।

Film: Paan Singh Tomar

2012

असल में ये मुलाक़ात नहीं थी, सिर्फ़ फ़ोन पे एक बातचीत थी। मैंने Peddlers नाम की एक फ़िल्म में गाने लिखे थे। गीतकार के बतौर ये मेरी दूसरी फ़िल्म थी। फ़िल्म के एक्टर, संगीतकार, और निर्माता सब नए लोग थे। इसी साल इरफ़ान की पान सिंह तोमर आयी थी। उन्हें हिंदी फ़िल्मों के दमदार अदाकारों में गिना जाने लगा था। उनका दर्ज़ा बहुत बड़ा हो चुका था और अब वो किसी मॉल में मंगलवार सुबह घूमने नहीं निकल सकते थे।

पेडलर्स 2012 में फ्रांस के मशहूर फ़िल्म फ़ेस्टिवल कान’ में गयी थी। लेकिन ढेरों फ़िल्मों की तरह कभी रिलीज नहीं हो पाई। साल ख़त्म होते होते फ़िल्म के निर्देशक वासन बाला हर दरवाज़ा खटखटा रहे थे कि कोई हो जो उनकी फ़िल्म देख के, पसंद कर के, रिलीज़ कर दे। फ़िल्म से जुड़े हम सब लोग मायूस से थे और दूसरे कामों में ध्यान लगाने की कोशिश कर रहे थे।

एक दिन बिना किसी पूर्व सूचना के मुझे इरफ़ान का फ़ोन आया। उन्होंने हाल ही में पेडलर्स देखी थी और उसका एक गीत (‘चिड़िया में जैसे अम्बर, मछली में जैसे पानी’) उन्हें बहुत पसंद आया था। वे जानना चाहते थे कि मैंने ऐसा गीत क्यों लिखा? किस तरह के हिंदी साहित्य से प्रभावित होकर मैं गीतकार बना? मेरा बचपन कहाँ बीता? एक भूली हुयी फ़िल्म के गीत की चार लाइनों को समझने के लिए वो मुझे पूरा पूरा समझना चाहते थे।

मेरे पास भी उनके लिए सवाल थे — उनकी कला को लेकर — लेकिन पूछने की हिम्मत नहीं हुयी। अब लगता है कि उनके सवाल ही उनको समझने का सबसे पारदर्शी रास्ता थे।

एक्टिंग की कला इसलिए भी बाक़ी सबसे अलग होती है क्योंकि इसमें कोई ठोस, मूर्त कलाकृति नहीं बनती। पेंटर की पेंटिंग को आप छू सकते हैं, लेखक का काम किताब में बाँध सकते हैं लेकिन एक्टिंग में कलाकार ख़ुद अपनी कला होते हैं। इसलिए इस कला को समझने के लिए इंसान को समझने के अलावा कोई और रास्ता नहीं।

मैंने उन्हें बताया कि हम लोग बहुत पहले एक मॉल में मिले थे और उन्होंने तब भी इज़्ज़त बख़्शी थी और आज भी वही कर रहे हैं। उन्होंने कहा इस बार मिलोगे तो मैं पक्का कॉफ़ी पिलाऊँगा।

फ़ोन रखने के बाद भी बहुत देर तक मैं हैरान रहा। ऐसा बहुत कम होता है कि कोई कलाकार सिर्फ़ आपकी कविता पर बात करने के लिए फ़ोन करे। लेकिन इरफ़ान इसीलिए अलग थे। उनके पास बहुत से सवाल थे। परदे पर भी आप उन्हें देखें — जब वो संवाद नहीं बोल रहे होते हैं तो लगता है कुछ बहुत गहरा और कठिन सुलझा रहे हैं। और कई बार एक हल्की सी मुस्कान आती थी — जैसे कोई एक छोटी-सी गाँठ खुल गयी हो।

Film: Namesake

मीरा नायर की नेमसेक में एक सीन है — इरफ़ान का किरदार अशोक गांगुली अपने ३-४ साल के बेटे गोगोल और पत्नी आशिमा के साथ अमेरिका के एक समुद्र तट पर हैं। वे भारत से अमेरिका गए हैं और उनके लिए सब कुछ नया है। आशिमा अपनी नवजात बेटी को गोद में लिए कार के पास रेत पर खड़ी रहती है। एक छोटा-सा जेट्टी जैसा रास्ता बना है जो एकदम लहरों तक ले के जाता है। अशोक गोगोल के साथ पानी के नज़दीक जाते हैं। दोनों प्रकृति के इस नज़ारे से हैरान हैं। बहुत आगे आकर अशोक को याद आता है कि वो कैमरा वहीं आशिमा के पास छोड़ आए हैं। वो मुड़कर, थोड़े उदास होकर आशिमा को देखते हैं और हाथ हिला कर इशारा करते हैं कि कैमरा वहीं छूट गया — इस सुंदर नज़ारे को क़ैद कैसे कर पाएँगे अब। आशिमा को आवाज़ नहीं सुनायी देती — वो सोचती है अशोक हाथ हिला के हेलो बोल रहे हैं। वो भी जवाब में हाथ उठा देती है। यहाँ इरफ़ान की ग़ज़ब की अदाकारी देखिए — अशोक का वही हाथ जो इशारे से समझा रहा था कि कैमरा छूट गया, हल्का सा हिलता है — अभिवादन के जवाब में अभिवादन की तरह। अपनी उदासी और आशिमा को अपनी ग़लती समझाने के लिए उठा हाथ एक ही पल में अभिवादन बन जाता है। अशोक का मूड भी साथ साथ बदल जाता है — वो झुक कर गोगोल को कहते हैं अब कैमरा तो नहीं है बाबा। तो तुम वादा करो कि ये दिन, ये समय, ये नज़ारा हमेशा याद रखोगे।

उस दिन इरफ़ान ने फ़ोन पे मुझे नहीं कहा कि ये बातें हमेशा याद रखना — लेकिन अशोक गांगुलीर दिब्बी, मैंने याद रखी हैं।

2013

Film: Lunchbox

कनाडा के टोरंटो फ़िल्म फ़ेस्टिवल में इरफ़ान की दो फ़िल्में — अनूप सिंह की क़िस्सा और रीतेश बतरा की लंचबॉक्स प्रदर्शित हो रही थीं। मैं भी एक स्क्रिप्ट लैब (फ़िल्म लेखन को लेकर एक छोटा कोर्स) के चलते उस फ़ेस्टिवल का हिस्सा था। लंचबॉक्स के प्रदर्शन के बाद शाम को डिनर पार्टी थी। कनाडा में लोग सूरज ढलने से पहले ही खाना खा लेते हैं।

इरफ़ान का क़द सिनेमा जगत में अब और बड़ा हो चुका था। लंचबॉक्स दुनिया भर में पसन्द की जा रही थी। उन्हें विदेशी फ़िल्मों के बहुत से ऑफ़र आ रहे थे।

इस सबके बावजूद जब मैं पार्टी में पहुँचा तो इरफ़ान एक तरफ़ अकेले बैठे थे। छोटी-सी पार्टी थी। कोई पचास लोग रहे होंगे। इरफ़ान कहीं और गुम थे। ऐसा नहीं था कि वे भीड़ या अंजाने देश की वजह से अस्वाभाविक लग रहे थे। अब तक वो ना जाने कितने देश और कितनी पार्टियों में कितने ही अजनबियों संग मिल बैठ चुके होंगे। फिर भी एक पल को मेरे दिल ने मानना चाहा कि टोंक, राजस्थान से आया वो सीधा सादा लड़का जो बचपन में क्रिकेटर बनना चाहता था और फिर ना जाने कैसे एक्टर बन गया अचानक से ख़ुद को कनाडा की एक पार्टी में पाकर सहम गया है।

K Asif

मैं उनके पास गया और बताया कि आपने पिछले साल फ़ोन किया था एक गीत सुन के। उन्होंने बात करना शुरू किया। और पूछा, ‘कोई बढ़िया स्क्रिप्ट हो तो सुनाओ।’मैंने कहा, ‘अभी आपके दर्जे का कुछ नहीं है।’वो अचानक से बोले — ‘तुमने मुग़ल-ए-आज़म के बारे में कभी सोचा है?’ मेरे ‘ज़्यादा नहीं’ कहने पर वो बोले कि उनका सपना है कि मुग़ल-ए-आज़म और के. आसिफ़ साब की ज़िन्दगी पर कोई फ़िल्म बने और वो के. आसिफ़ का रोल अदा करें। इरफ़ान में अचानक से जोश आ गया। उन्होंने बताया कि उस वक़्त के काफी रिकार्ड नहीं बचे हैं। के. आसिफ़ ने इतने साल लगाकर ये फ़िल्म क्यों और कैसे बनायी इस पर बहुत कम रिसर्च हुयी है। मैंने पूछा, आपको इस कहानी में सबसे ज़्यादा क्या चीज़ प्रभावित करती है। वे बोले, ‘फ़ना (तबाह) हो जाना।कैसे एक इंसान ने लगभग पंद्रह साल एक फ़िल्म में लगा दिए। कैसे उसके एक-एक छोटे-बड़े पहलू पर इतनी बारीकी से काम किया — जैसे वो आदमी फ़िल्म नहीं अपनी बिखरी ज़िंदगी जोड़ रहा हो’ ये सच भी है कि मुग़ल-ए-आज़म बनाने में के. आसिफ़ लगभग फ़ना हो गए। उसके पहले भी उन्होंने एक ही फ़िल्म बनायी और बाद में एक अधूरी फ़िल्म उनके गुज़रने के बाद ही रिलीज़ हुयी।

यहाँ से मेरे लिए इरफ़ान को समझने की एक और खिड़की खुली। कला साधने और फ़ना होने को वो एक ही नज़र से देखते थे। पंजाबी के महान कवि शिव कुमार बटालवी ने भी कहा है — ज़िंदगी एक slow suicide है। धीमी गति से प्रकट होती आत्महत्या। मैंने बहुत कम कलाकारों को मृत्यु पर सहज होके बात करते सुना है। अक्सर ये ख़ुद से सहज होने की एक निशानी भी होती है।

इस मुलाक़ात के बाद मैंने के. आसिफ़ पर थोड़ी बहुत रिसर्च की। एक-दो नयी तस्वीरें और बातें मिलीं भी जो तुरंत इरफ़ान को भेजीं। लेकिन कभी पूरी लगन से इस आइडिया के पीछे नहीं लग पाया। और फिर काम के थपेड़े मेरी कश्ती को इरफ़ान के जहाज़ से दूर ले गए।

2019

2018 में उनकी बीमारी की ख़बर ने पूरी दुनिया में फैले उनके चाहने वालों में उदासी की एक धुँध फैला दी। इसी साल उनकी फ़िल्म ‘हिंदी मीडियम’ ने कई रिकार्ड बनाए थे और उन्हें ढेरों अवार्ड मिले थे। अब वो सिर्फ़ कला या विदेशी फ़िल्मों के ही नहीं, हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री के भी सितारे थे।

इस बीच उनकी एक फ़िल्म (‘क़रीब क़रीब सिंगल’, निर्देशक: तनुजा चन्द्रा) में उन पर फ़िल्माया एक गीत मैं लिख चुका था। इस तरह से अब उनसे सीधा परिचय था। लेकिन मेरी हिम्मत नहीं हुयी कि उनसे बात करूँ। फ़ोन और ईमेल पर संदेश भेज चुका था और मन ही मन किसी करिश्मे का इंतज़ार कर रहा था।

Film: Qarib Qarib Singlle

ऐसे वक़्त पर भी उन्होंने ना तो अपनी बीमारी को दुनिया से छुपाया और ना उसे ख़ुद पर हावी होने दिया। बल्कि जीवन को और खुले मन से जीने लगे। अपनी जिज्ञासाओं में और गहरे हो गए। उन्होंने लंदन के अपने अस्पताल से एक चिट्ठी लिखी जिसे शायद लोग सदियों तक पढ़ेंगे। ‘इतना दर्द था कि पूरी सृष्टि उसमें डूब गयी। दर्द — इतना दर्द — कि वो भगवान से भी बड़ा लगता था…।’ ‘…मेरा अस्पताल लॉर्ड्ज़ क्रिकेट मैदान के ठीक सामने था। मुझे अचानक समझ आया — ज़िंदगी का खेल और मौत का खेल एक ही सड़क के दो किनारे हैं।’ ‘…ये सब इतना अचानक हुआ कि मुझे लगा मैं समुद्र में थपेड़े खाता कॉर्क का ढक्कन हूँ। और बार-बार कोशिश कर रहा हूँ कि समुद्र मेरी मर्ज़ी से चले।’ ‘…पहली बार मुझे एहसास हुआ सच्ची आज़ादी क्या है। ज़िंदगी का जादुई रूप देखने को मिला। ये समझ आया कॉर्क के ढक्कन को समुद्र पर विजय पाने की कोई ज़रूरत नहीं। प्रकृति की गोद में झूलने को मिल रहा है,यही वरदान है।’

लंदन में एक साल के इलाज के बाद वो वापस मुंबई आए। लगा कि वो पूरी तरह स्वस्थ हो गए हैं। उनको लेकर एक फ़िल्म की शूटिंग भी शुरू हो गयी। मैंने फिर से संदेश भेजा — ‘पता लगा आप शहर वापस आ गए हैं। कहिए क्या खाएँगे?हम बना के लाते हैं।’ ये बात यूँ निकली कि मैंने उनके लिए जो गीत लिखा था वो खाने के बारे में था (‘बैर करावे मंदिर मस्जिद, मेल करावे दाना-पानी’) और उस दौरान हम जब भी मिलते खाने की ख़ूब बातें होतीं। वो भी तरह-तरह के नए व्यंजनों के शौक़ीन थे और मुझे खाना बनाना जीवन का सबसे सुंदर काम लगता है।

उनका तुरंत जवाब आया, ‘अभी तो शूटिंग पर निकल गया लेकिन पक्का खाएँगे। वापस आते ही संदेश भेजूँगा।’

लेकिन वो शूटिंग से कब वापस आए और कब फिर से बीमारी के कारण लंदन चले गए इसकी ख़बर ही नहीं लगी।

लेकिन इस बार भी ना उनकी हिम्मत टूटी ना जज़्बा। उनके परिवार ने भी बाद में बताया वो कभी विचलित नहीं हुए। बल्कि हमेशा इस पूरे अनुभव को इस जादुई अस्तित्व का हिस्सा मानते रहे।

यह सिर्फ़ मेरा क़यास है कि उन्होंने इस बीमारी को अपने एक्टिंग जीवन के सबसे कठिन रोल की तरह देखा होगा। अगर उनके पास कोई एक स्क्रिप्ट लेकर आता जिसमें एक महान एक्टर को एक महान बीमारी हो जाती है और फिर वो कैसे उस बीमारी को अपनाता है,कैसे उसे समझता है, कैसे उसके ज़रिए दर्शकों को कोई बहुत ही नया,बहुत ही गहरा अनुभव दे कर जाता है — तो वो ये रोल बिलकुल इसी तरह करते जैसा उन्होंने असल ज़िंदगी में किया।

एक ऐसा एक्टर जिसे ताले खोलने का ही चस्का था — उन मकानों के ताले जो किसी ने कभी नहीं खोले।जिनमें किसी ने कभी नहीं झाँका — उसे सृष्टि ने इतना बड़ा ताला दे दिया कि वो अपने पसंदीदा किरदार के.आसिफ़ की तरह उसमें रम गया और खोल कर ही छोड़ा।

जब कोई गुज़र जाता है तो उसके साथ एक पूरी डिक्शनरी इस धरती से ग़ायब हो जाती है। वो शब्द जो सिर्फ़ उसे आते थे। ऐसे वाक्य जो सिर्फ़ वो इंसान ही बोल सकता था। वो अर्थ जो सिर्फ़ उसने समझे थे। और जाने वाला जब इरफ़ान जितना जीवन में डूबा हुआ कलाकार हो तो अनेक ग्रंथ साथ लिए चला जाता है। इस मुश्किल जीवन को समझने की आसान विधियों वाले ग्रंथ। लेकिन इरफ़ान जितने ग्रंथ ले गए,उतने ही छोड़ भी गए। और ये हमारी ख़ुशक़िस्मती है।

काश मैं उनसे किया वो वादा पूरा कर देता तो ये हल्की-सी टीस दिल में ना रहती। लेकिन उन्होंने ही कहा था — ‘समुद्र में थपेड़े खाते ढक्कन को समुद्र पे विजय पाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।’

तो ठीक है इरफ़ान साब, नहीं करूँगा।

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