नाम में क्या रखा है : दिलीप कुमार के बहाने
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आमतौर पर किसी भी समाज में अलग अलग मतों का अस्तित्व समाज के स्वस्थ और शिक्षित होने का एक सूचक होता है। आज हमारे समाज में ज्ञान के साथ साथ मत भी संकुचित हो गए हैं और उनका आधार भी। यही वजह है कि आए दिन हमें समाचार पत्रों में अनर्गल आक्षेपों, आरोपों और विवादों के बारे में खबरें दिखती रहती हैं। ऐसा ही एक चर्चा भारतीय सिनेमा के लीजेंड कहे जाने वाले दिलीप कुमार के निधन के बाद उनके नाम को लेकर उठा। प्रस्तुत है प्रोफेसर जवरीमल्ल पारख की एक टिप्पणी, जो हमारे समय के संस्कृति, मीडिया और सिनेमा के गंभीर समीक्षक-लेखक हैं। प्रोफेसर पारख इंदिरागांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (IGNOU) के Humanities Faculty के निदेशक पद पर रहे हैं। उनकी तमाम पुस्तकों में से सिनेमा आधारित ‘हिन्दी सिनेमा का समाजशास्त्र’ और ‘लोकप्रिय सिनेमा और सामाजिक यथार्थ’ काफी चर्चित और लोकप्रिय रही हैं।
दिलीप कुमार (1922-2021) का नाम मैंने सबसे पहले किशोर वय में सुना होगा। जब दिलीप कुमार का नाम सुना होगा, उसके आगे-पीछे अशोक कुमार, राजकपूर, देवानंद, गुरुदत्त, राजेंद्र कुमार आदि का भी नाम सुना था। नरगिस, मीना कुमारी, मधुबाला, नूतन, माला सिन्हा का भी। फिर फ़िल्में भी देखनी शुरू कर दी थी। जाहिर है कि फ़िल्म कलाकारों के प्रति एक गहरी दिलचस्पी उस उम्र में स्वाभाविक रूप से पैदा होने लगती है। इसलिए उस उम्र में ही आगे-पीछे कभी यह भी पता लगा होगा कि दिलीप कुमार का असली नाम मोहम्मद यूसुफ खान है। यह भी पता लगा होगा कि नरगिस, मीना कुमारी और मधुबाला भी मुसलमान हैं। लेकिन बहुत सालों तक यह जानने की जरूरत नहीं समझी कि मीना कुमारी और मधुबाला के नाम मुसलिम नाम नहीं है। इन लोकप्रिय अभिनेताओं का हिंदू होना या मुसलमान होना, कम से कम लंबे समय तक मेरे लिए कोई महत्त्व नहीं रखता था (वैसे तो आज भी नहीं रखता है)।
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यूसुफ खान ने अपना नाम दिलीप कुमार क्यों रखा, इसे जानने की ज़रूरत भी कभी महसूस नहीं हुई। लेकिन समस्या तब शुरू हुई जब यह पढ़ने को मिला कि देविका रानी ने यह सोचकर कि यूसुफ खान यानी मुस्लिम नाम से दर्शकों के बीच स्वीकृति नहीं मिलेगी इसलिए उनका हिंदू नाम रखा गया। देविका रानी ने ही उन्हें 1944 में पहली बार अपनी फ़िल्म ज्वारभाटा में नायक के रूप में पेश किया था। कहा जाता है कि हिंदी कथाकार भगवतीचरण वर्मा जो उस समय बांबे टॉकीज से जुड़े थे, उन्होंने दिलीप कुमार नाम का सुझाव दिया और यह स्वीकार कर लिया गया। यह भी कहा जाता है कि दिलीप कुमार को यह भय था कि उनके पिता को यदि यह मालूम पड़ा कि उनका बेटा यूसुफ फ़िल्मों में काम करता है, तो वे बहुत नाराज़ होंगे। दिलीप कुमार नाम की आड़ में वे अपने फ़िल्मों में काम करने को छिपा सकेंगे। शायद वे दो-तीन साल छुपाने में कामयाब भी रहे। लेकिन जुगनू (1947) की कामयाबी ने इस बात को पिता तक पहुंचा भी दिया।
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फ़िल्मों में काम करने वाले कलाकारों के नाम बदले जाते थे, लेकिन मुझे इस बात में बिल्कुल यकीन नहीं है कि नाम बदलने का एक कारण यह रहता था कि मुस्लिम नाम की बजाय हिंदू नाम दर्शकों के बीच ज्यादा स्वीकार्य होगा। अगर ऐसा कुछ था भी तो वह फ़िल्म निर्माताओं के दिमाग़ की उपज था। इसका वास्तविकता से कुछ भी लेना-देना नहीं था। यदि ऐसा होता तो उस समय भी मुस्लिम नामों के साथ बहुत से अभिनेता और अभिनेत्रियां फ़िल्मों से जुड़े नहीं होते। नूरजहां जिसने दिलीप कुमार से लगभग नौ साल पहले फ़िल्मों में काम करना शुरू कर दिया था, और अपने ज़माने की मशहूर अभिनेत्री और गायिका थी, अपने मुस्लिम नाम के साथ ही मकबूल हुई। हालांकि नूरजहां का नाम भी बदला गया था। उनका वास्तविक नाम अल्लाह वसाई था। उसी दौर की नरगिस और सुरैया भी अपने मुस्लिम नामों के साथ लोकप्रिय हुईं। हालांकि नरगिस का असली नाम फ़ातिमा रशीद और सुरैया का नाम सुरैया जमाल शेख था। मीना कुमारी जिनका नाम बदला गया उनका असली नाम महज़बीन बानो था और मधुबाला का नाम मुमताज़ जहां बेगम देहलवी था। सायरा बानो की मां नसीम बानो ने भी अपने मुस्लिम नाम के साथ ही फ़िल्मो में काम किया। उसी दौर की सरदार अख्तर भी एक लोकप्रिय नाम था।
दिलीप कुमार की तरह उन्हीं के समय के मशहूर अभिनेता अजीत का असली नाम हामिद अली खान था और अमज़द खान के पिता जयंत का असली नाम ज़कारिया खान था। लेकिन उसी दौर के शेख मुख्तार, रहमान, याकूब, इफ़्तखार, आग़ा, महमूद जैसे छोटे-बड़े कलाकार थे, जिन्होंने नाम नहीं बदले। दरअसल नाम बदलने की इस परंपरा का हिंदू और मुसलमान से कोई संबंध नहीं है। नाम आसानी से जबान पर चढ़ सकें और खूबसूरत हो, शायद ये ही दो बातें सामने रहती थीं। जॉनी वाकर का नाम शराब के एक ब्रांड के नाम पर रखा गया क्योंकि उन्हें ज़िंदगी भर हास्य अभिनेता ही रहना था जबकि उनका असली नाम बदरुद्दीन ज़मालुद्दीन काज़ी था।
फ़िल्म एक लोकप्रिय माध्यम है और कलाकारों का नाम बदला जाना शायद फ़िल्म निर्माताओं को ज़रूरी लगता था। लंबे और पुराने ढंग के नाम वे जरूर बदलना चाहते थे। यही वजह थी कि कुमुदलाल गांगुली अशोक कुमार हो गये। मोहम्मद यूसुफ खान की बजाय देविका रानी को दिलीप कुमार ज्यादा आकर्षक नाम लगा होगा। किसी अभिनेता का नाम धर्मदेव पिशोरीमल आनंद हो और यह कहा जाय कि यह रोमांटिक हीरो है, शायद लोगों के गले नहीं उतरे। लेकिन देवानंद एक रोमांटिक हीरो का नाम है, इसे स्वीकार करने में किसी को दिक्कत नहीं होगी। मुमताज जहां बेगम देहलवी की जगह मधुबाला को लोकप्रिय होने से कौन रोक सकता था। लेकिन बेबी मीना जो बड़ी होकर मीना कुमारी बनी, उसका असली नाम महज़बीन कम खुबसूरत नहीं है। महज़बीन की बजाय एक बाल कलाकार का बेबी मीना नाम ज्यादा उपयुक्त लगा होगा।इसलिए युवा होते ही बेबी मीना को मीना कुमारी बनाना आसान रहा होगा। लेकिन मीना कुमारी का महज़बीन नाम किसी अभिनेत्री का नाम भले ही न हो, नायिका का नाम तो हो ही सकता है। पाक़ीज़ा में मीना कुमारी का नाम महज़बीन ही होता है।
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हिंदू हो या मुसलमान कलाकारों में नाम बदलने की प्रवृत्ति बहुत मजबूत रही है। पृथ्वीराज कपूर ने अपने नाम में लगा नाथ जो उन्हें अपने पिता से मिला था, हटाकर राज कर दिया और इस प्रकार पृथ्वीनाथ कपूर पृथ्वीराज कपूर हो गये। शायद पृथ्वीराज पृथ्वीनाथ की तुलना में ज्यादा स्वीकार्य नाम लगा होगा। राजा का नाम जो ठहरा। रणवीरराज कपूर ने रणवीर नाम त्याग कर केवल राज कपूर रहना ही उचित समझा और उसी वज़न पर छोटे भाई भी शम्मी कपूर और शशि कपूर हुए। जुल्फिक़ार अली शाह खान ने छोटा सा नाम रखा फ़िरोज खान लेकिन छोटे भाई शाह अब्बास खान ने संजय खान रखा। जयंत के बेटे इम्तियाज] और अमजद खान अपने असली नाम के साथ् ही फ़िल्मों में काम करते रहे। अशोक कुमार, दिलीप कुमार के दौर में बलराज साहनी अपने असली नाम के साथ ही फ़िल्मों में बने रहे। लेकिन बसंत कुमार शिवशंकर पाडुकोन ने अपने लंबे नाम को त्यागकर छोटा सा नाम रखा गुरुदत्त। इन्हीं गुरुदत्त ने अपनी खोज वहीदा रहमान का नाम बदलने की कोशिश की, लेकिन वहीदा ने नाम नहीं बदलने दिया और हिंदी दर्शकों ने वहीदा रहमान को उनके पूरे नाम के साथ स्वीकारा भी और भरपूर प्यार भी दिया। मुसलमान अभिनेताओं के हिंदू लड़कियों से शादी करने में ‘लव ज़िहाद’ देखने वाले नरगिस से वहीदा रहमान तक के उदाहरण भूल जाते हैं। यह बात कितने लोग जानते हैं कि दोनों परिवारों का विरोध झेलते हुए शमशाद बेगम ने 15-16 साल की उम्र में गणपतलाल बिट्टू से शादी की थी और जब 1955 में पति की दुर्घटना में मृत्यु हुई तो इतना गहरा सदमा पहुंचा कि लगभग गाना छोड़ दिया था।
फ़िल्मी दुनिया नामों को लेकर कभी संकीर्ण और सांप्रदायिक नहीं रही। यूसुफ खान ने दिलीप कुमार नाम ज़रूर धारण कर लिया। लेकिन न उन्होंने और न फ़िल्मी दुनिया ने इसे कभी छुपाने की ज़रूरत समझी कि वे मुसलमान हैं। यही नहीं अपने साथी कलाकारों, फ़िल्मकारों, सहकर्मियों, मित्रों, परिजनों के लिए वे यूसुफ भाई ही रहे। शायद यही वजह है कि उनका दिलीप कुमार नाम जितना मशहूर हुआ, लगभग यूसुफ भाई नाम भी उतना ही प्रचलन में रहा। यहां तक कि जवाहरलाल नेहरू भी उन्हें यूसुफ ही कहते थे।
अभिनेताओं-अभिनेत्रियों में नाम बदलने की प्रवृत्ति भले ही रही हो, लेकिन फ़िल्मों के दूसरे क्षेत्रों में काम करने वाले कलाकारों ने नाम बदलने की ज़रूरत नहीं समझी। ख्वाजा अहमद अब्बास, ए आर कारदार, ज़िया सरहदी, महबूब खान, करीमुद्दीन आसिफ़, नौशाद, खय्याम, मोहम्मद रफ़ी, तलत महमूद, शमशाद बेगम, मुबारक बेगम और न जाने कितने नाम। मज़रूह सुलतानपुरी, साहिर लुधियानवी, कैफी आज़मी आदि अपने तखल्लुस के साथ मशहूर हुए। असरारुल हसन खान, अब्दुल हई, अतहर हुसैन रिज़वी नाम से कितने लोग परिचित हैं जो उनके असली नाम हैं।
हिंदुस्तानी सिनेमा की जो धर्मनिरपेक्षता और साझा संस्कृति की परंपरा रही है, दिलीप कुमार उसी परंपरा के महान आइकन हैं क्योंकि वे जितने दिलीप कुमार हैं, उतने ही यूसुफ खान भी हैं। वे जितने देवदास हैं, उतने ही शहज़ादा सलीम भी हैं, जितने मुंबई के हैं, उतने ही पेशावर के भी हैं और जितने उर्दू के हैं, उतने ही हिंदी के हैं। उन्हें धर्म, भाषा और राष्ट्र् की संकीर्णता में बांधकर देखने वाले न दिलीप कुमार को जानते हैं, न यूसुफ खान को। और हिंदुस्तान की सांस्कृतिक विरासत को तो बिल्कुल नहीं जानते।