भारतीय फिल्मों में त्रयी परंपरा और बुद्धदेब बाबू

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Joydev Das

बुद्धदेब दासगुप्ता एक ऐसे निर्देशक रहे हैं जिन्होने 80 और 90 के दशक में समांतर सिनेमा की धारा को और मज़बूती दी। उनकी 5 फिल्मों (बाघ बहादुर, चराचर, लाल दर्जा, मोंडो मेयेर उपाख्यान और कालपुरुष) को सर्वश्रेष्ठ फिल्मों का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला जबकि दो फिल्मों (स्वप्नेर दिन, उत्तरा) के लिए उन्हे सर्वश्रेष्ठ फिल्म निर्देशक का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। उनकी कुछ फिल्में फिल्मकारों और फिल्म छात्रों के लिए देखना अनिवार्य मानी जाती हैं। 11 फरवरी को बुद्धदेव दासगुप्ता की जयंती होती है। उनके 80वें जन्मदिन के मौके पर बांग्ला की महान सिनेमा परंपरा में प्रचलित रही त्रयी परंपरा के बरक्स बुद्धदेब दासगुप्ता के रचनात्मक व्यक्तित्व, उनकी फिल्मों और उनकी शैली पर प्रस्तुत है जयदेव दास का विस्तृत लेख। वाराणसी में रहने वाले जयदेव दास सिनेमा और रंगमंच के अध्येता हैं। लेखक-निर्देशक-अभिनेता के तौर पर बांग्ला और हिंदी रंगमंच में पिछले दो दशक से सक्रिय हैं। कई नाटकों का लेखन-निर्देशन और रंगमंच का अध्यापन करने के साथ ही विभिन्न शहरों में नाट्य कार्यशालाओं व संगोष्ठी में भागीदारी रही है। इसके साथ ही रवींद्र संगीत और संगीत रसास्वादन का उन्होने बीएचयू में विशेष अध्ययन किया है। नाट्यलेख ओह काफ्का, इत्ती सी बात, पिघला चाँद आदि कई पूर्णांग एकांकी व नाटिकाओं का लेखन जननायक बिरसा मुंडा के जीवन पर आधारित पूर्णांग नाटक “धरती आबा बिरसा मुंडा” शीघ्र प्रकाश्य है। जयदेव डॉक्यूमेंट्री फिल्मनिर्माण में भी सक्रिय हैं, कई फिल्मों का निर्देशन व अंतरराष्ट्रीय सम्मान प्राप्त, फिल्मों में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन।

बिम्बों का सटीक प्रयोग-शिल्प ही कवि के काव्य सौष्ठव का परिचायक है। बिम्ब काव्य को स्तरीय बनाता है और कवि को पहचान दिलाता है। कभी कभी तो बिम्ब के कारण ही कवि आमजन के ज़ेहन में वर्षो दर्ज रह जाता है। बिम्ब-विधान ही कवि को औरों से अलग एक विशेष दर्जा दिलाता है। आप कहेंगे कि जनाब सिनेमा की बात करनी है, न कि काव्य की। जी साहब, मैं भी उसी की बात कर रहा हूँ। बस आप सिर्फ “बिम्ब” शब्द की जगह “इमेज”और “कवि” की जगह “फ़िल्मकार” शब्द रख कर पढ़ें तो आपको भी स्पष्ट हो जाएगा। दरअसल इमेज के बगैर सिनेमा की कल्पना बेमानी है। हर बड़ा फ़िल्मकार किसी दूसरे फ़िल्मकार की कहानी पर नहीं बल्कि फ़िल्म का मूल विचार और उस विचार या आइडिया या इमेज को दर्शाने के लिए अपनाई गई इमेजरी का ही मुरीद बनता है। आपस में जब भी उनकी चर्चा होती है, तो वो इन्हीं दो विषयों पर चर्चा करते हैं या करना पसंद करते हैं। इन्हीं दो तत्वों की वजह से एक फ़िल्मकार एक कवि के रूप में सम्मान पाने लगता है। और उसका सिनेमा महज कथा नहीं बल्कि कविता बनने लगता है। सही मायने में दृश्य-काव्य बनता है।

हर फ़िल्मकार का मानना रहा है कि बिम्ब निर्माण आसान काम नहीं। इसलिए विश्व में पिछले सौ-सवा सौ साल में भले ही सिनेमा ने समाज में एक व्यवसाय के रूप जरूर पैठ बनाई हो, पर कुछ ही फ़िल्म और फ़िल्मकारों को बार बार देखने का जी करता है। और वैसी फ़िल्म को कविता और फ़िल्मकार को कवि या दार्शनिक तक लोग कह देते हैं। तो वो कौन सी चीज है जो फ़िल्मकार को अलग पहचान दिलाती है, वो है ‘बिम्ब’। बिम्ब को ही इमेज जाने। जिसका अर्थ है, – “मूर्त रूप प्रदान करना”। और बिम्ब-विधान से आशय ‘इमेजरी’ से है।

क्या है ये इमेजरी! आइए कुछ दृश्यों को याद करें।  ‘काश वनों के बीच से गुजरती धुंआ छोड़ती रेलगाड़ी’ ( फ़िल्म – पथेर पांचाली 1955, फ़िल्मकार- सत्यजित राय); ‘मृत्यु दूत के साथ शतरंज खेलता इंसान’ (फ़िल्म – द सेवेंथ सील 1957, फ़िल्मकार – इंगमार बर्गमैन); ‘बड़े से पेड़ से निकल करीब आती लड़की’ ( फ़िल्म- मेघे ढका तारा 1960, फ़िल्मकार-ऋत्विक घटक); ‘किसी पहाड़ की ढलान से लुढ़कता गोल पत्थर’ ( फ़िल्म- उत्तरा 2000, फ़िल्मकार – बुद्धदेब दासगुप्ता)। हर फ़िल्मकार की अपनी विशेष इमेजरी। और ये इमेजरी ही उस फ़िल्मकार पर बात करने को आकर्षित करती है कि दर्शक को उसकी अगली फ़िल्म के लिए प्रतीक्षा करने को बाध्य करती है कि समालोचकों को विमर्श का मुद्दा देती है।

बुद्धदेब दासगुप्ता उन्हीं बिरले फिल्मकारों में शुमार हैं जिन्होंने सिनेमा घर के सफेद कैनवास पर शब्द-चित्र उकेरा। भारतीय फिल्मों की उस धारा को अपनी फिल्मों से आगे बढ़ाया, जिसने भारत को विश्व सिनेमा के आंगन में विशेष स्थान बनाने में मदद दी। क्षेत्रीय भाषा की फ़िल्म कह कर हम जिसे भरसक दबाने या उपेक्षित करने की भरसक कोशिश करते हैं। वही सिनेमा विश्व दरबार में समादृत हो रही है। बुद्धदेब दासगुप्ता ने अपनी फिल्मों से कला फिल्मों की धारा का निरूपण किया, जिसकी परम्परा में बंगाल के सत्यजित राय, ऋत्विक घटक या मृणाल सेन साहब रहे। साथ ही बंगाल के इन्हीं त्रि शक्तियों ने किसी एक विषय को केंद्र में रखकर तीन-तीन फिल्मों का निर्माण किया। जिसे ट्रिलोजी या त्रयी कहा जाता, वर्तमान में हम जिसे सीक्वल या सीरीज कह रहे हैं, पर इन्हें गम्भीर फिल्में नहीं कहा जा सकता। कला फिल्में तो बिल्कुल ही नहीं।

त्रयी या ट्रिलोजी शब्द वैसे करीब ढाई हजार वर्ष पहले ग्रीक त्रासदी नाटकों में प्रचलित था। एक ही विषय को केंद्र में रखकर तीन नाटकों की प्रस्तुति। जिनकी कहानियां एक दूसरे में गुथी हुई होती थी। उन कहानियों में किसी महान राजा के त्रासदपूर्ण अंत को दर्शाया जाता था। नाटक का आयोजन दिन के प्रथम किरण से अंतिम किरण तक ही खेला जाता।

Pther Panchali, Aparajito, Apur Sansar by Satyajit Ray

 सत्यजित राय ने त्रयी फिल्मों का प्रयोग एकाधिक बार किया। उन्होंने विभूति भूषण बंद्योपाध्याय के उपन्यास पर अपु-त्रयी (पथेर पांचाली, अपराजितो व अपुर संसार)। रवींद्रनाथ ठाकुर की तीन कहानियां क्रमशः पोस्ट मास्टर, मोनिहार व समाप्ति, जिनके केंद्र में स्त्री विमर्श है; अलग-अलग छोटी-छोटी तीन फिल्मों को एक साथ प्रदर्शित करते हैं और नाम देते हैं ‘तीन कन्या’। ऋत्विक घटक ने अपनी फिल्मों में देश के बंटवारे से उपजी त्रासदी को जहां अपनी फिल्मों में अधिक महत्व दिया। कोमल गांधार, मेघे ढका तारा और सुवर्णरेखा त्रयी के माध्यम से देश के बंटवारे की पीड़ा और त्रासदी को उकेरते दिखते हैं।

Komal Gandhar, Meghe Dhaka Tara, Suvarnarekha by Ritwik Ghatak

बंगाल के फिल्मकारों ने अपने शहर ‘कोलकाता’ को केंद्र में रखकर त्रयी फिल्मों का निर्माण किया। जो ‘नगर-त्रयी’ के रूप में जाना जाता है। फ़िल्म तो ऐसे ही किसी किरदार को चुनती है जिसके इर्दगिर्द घटनाओं का अम्बार लगा हो। और बंगाल में इतनी घटानएं त्वरित घट रही थी कि जिस ओर ध्यान जाना लाज़मी था। खास कर राजनीतिक धरातल पर जिसका सीधा प्रभाव आम आदमी पर पड़ रहा था। ऐसे में कोलकाता एक शहर ही नहीं किरदार के रूप में नजर आने लगा था। साठ के दशक के मध्य से ही राष्ट्र आधुनिकता, उन्नयन जैसे मिथक भारतीय राजनीति में मोहक, शून्य व अवान्तर लगने लगा था। ऐसे में खाद्य संकट पनपने लगा, राष्ट्रीय कॉंग्रेस में दरार साफ दिखने लगी थी।  बंगाल और आंध्र में रैडिकल लेफ्ट विचारधारा का विकास होने लगा था। अन्तरराष्ट्रीय फलक पर भी ‘शीत युद्ध’ प्रबल रूप धारण करने लगा था। 1966 में कोलकाता विश्वविद्यालय का अनिश्चित काल के लिए बन्द होना। छात्र आंदोलन का हिंसक रूप नगर में फैलते चले जाना। नक्सल आंदोलन का प्रारंभ, पुलिस व वामपंथीयों में युद्ध का वातावरण। ‘बंदूक की नली ही शक्ति का उत्स है’, जैसी आवाजें आंदोलनकारियों के जुबान से निकलने लगी थी। अराजकतापूर्ण वातावरण पूरे नगर को अपने चपेट में लेने लगा था। ऐसे में संवेदनशील फ़िल्मकार खामोश कैसे बैठ सकते थे। अभिव्यक्ति के माध्यम से वो भी अभिव्यक्त हुए। जो सत्यजित राय बंगाल के रेनेसॉ के सूत्र को थामे ‘तर्क और ज्ञान ही शक्ति का उत्स है’ जैसी बातों पर आस्था रखते थे एवं जिनका शहर कोलकाता उनके लिए आगे बढ़ते रहने का स्थान था; रूप बदलकर उनका वही शहर कोलकाता मूल्यबोध हीन व एकला पड़ते जाने को बाध्य कर रहा था। जो उनकी फिल्मों में साफ नजर आने लगा। कोलकाता त्रयी के नाम से ख्यात प्रतिद्वंद्वी 1970, सीमाबद्ध 1971 एवं जन अरण्य 1976 में बेकारी, घूसखोरी, वेश्यावृत्ति, विश्वासघात, नैतिक मूल्यों में गिरावट जैसे विषय दिखने लगते हैं।

Pratidwandi, Seemabaddh, JanAranya by Satyajit Ray

सत्यजित राय के समकालीन फिल्मकारों में मृणाल सेन भी कोलकाता की तत्कालीन परिस्थितियों को अपने फिल्मों में चित्रित करते हैं। मृणाल सेन जिनकी ‘भुवन शोम’ फ़िल्म को भारतीय सिनेमा इतिहास में समानांतर सिनेमा के आरम्भ का श्रेय दिया जाता है। उनके द्वारा बनाई गई ‘नगर त्रयी’ की श्रृंखला ‘इंटरव्यू’ (1970), ‘कोलकाता-71’ एवं ‘पदातिक’ (1973) अनिवार्य रूप से क्रांति की जरूरत को चित्रित करते हैं। जहां मध्यवर्गीय अस्तित्व का क्षरण बारम्बार फ़िल्म में उभर कर आता दिखता है। पदातिक फ़िल्म का नायक नक्सल आंदोलन का सक्रिय सदस्य है। जिसे फिलहाल छुपने की एक जगह चाहिए। पर छुपने के लिए उसे उच्चवर्गीय आवास में ही शरण लेना पड़ता है, विडम्बना ही है यह तो। अपनी फिल्मों में तत्कालीन कोलकाता नगर की राजनैतिक उठापटक, उपनिवेश, सन्त्रास, हिंसा, सामाजिक प्रताड़ना, क्रांतिकारी मतादर्श जैसे विषय ही मृणाल साहब के फिल्मों में स्थान पाते हैं।

Interview, Calcutta 71, Padatik by Mrinal Sen

कवि, प्रोफेसर और फिल्म निर्माता, बुद्धदेव दासगुप्ता समकालीन भारत की सबसे अहम सिनेमाई आवाजों में से थे। उनकी फिल्मों में गीतात्मकता और उनकी सामाजिक चिंताओं के साथ कुछ विनोद भी होता था। फिल्म निर्माण के अपने सफर की शुरुआत उस समय की थी जब न सिर्फ बंगाल, बल्कि भारतीय सिनेमा के दो महान फिल्मकार सत्यजीत रे और मृणाल सेन अपनी रचनात्मकता के शीर्ष पर थे। वह कभी एक फिल्मकर के तौर पर प्रशिक्षित नहीं हुए, उनके पास कल्पना थी और एक कवि की गीतात्मकता थी और इसे सिनेमा में बदलने का हुनर था। यह उनके चार दशक लंबे करियर में दिखा जिसमें उनकी फिल्में मानवता की जटिल परतों और समाज के साथ व्यक्ति के संबंधों का पता लगाती दिखती थी। उनकी अपनी शैली थी और वह अपनी खुद की फिल्में बनाने के लिए जल्द ही मृणाल बाबू की विशाल छाया से निकल आए। पर त्रयी सिनेमा की परंपरा को कायम रखा। जिसकी कड़ी में उन्होंने ‘दुरोत्तो (1978), गृहयुद्ध (1982) और अंधी गली (1984) त्रयी फिल्मों को जोड़ा।

Dooratwa, Grihajuddha, Andhi Gali by Buddhadeb Dasgupta

1978 में ‘दुरत्व’ बनाई थी जो राजनीति विज्ञान के एक उदार प्रोफेसर की कहानी की पड़ताल करती है, जो राजनीतिक विश्वासों में संकट का सामना करते हैं और उनकी शादी भी टूट जाती है। फिल्म बड़ी चतुराई से 1970 के दशक के कोलकाता में नक्सल आंदोलन के साथ व्यक्तिगत कहानी को जोड़ती है। इस फिल्म के लिए उन्हें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार मिले थे और बंगाली सिनेमा के परिदृश्य में एक फिल्म निर्माता के रूप में उनका आगमन पुख्ता हुआ। वैसे ही गृहजुद्ध’ एक फैक्ट्री के मालिक और श्रमिक संघ के बीच संघर्ष के इर्द-गिर्द घूमती है। जहां श्रमिक की मौत होने से उसका परिवार दाने दाने को मोहताज हो जाता है। अंततः सबकुछ जानते हुए भी बहन को उसी ऑफिस में काम करने के लिए राजी होना होता है, जिसके ख़िलाफ़ भाई ने अपनी जान ढ़ी थी। इस फ़िल्म का परिवेश भी उसी दौर का रखा था यानी नक्सल आन्दोलन का दौर। त्रयी फिल्मों की तीसरी कड़ी ‘अंधी गली’ से पूरी होती है। जिसका नायक कभी नक्सल आंदोलन में सक्रिय था। अब एक स्वाभाविक जीवन जीना चाहता है पर उसका अतीत उसे अपने गिरफ्त से बाहर नहीं आने देता।

बुद्धदेव बाबू की त्रयी फिल्मों में मुख्य रूप से नक्सल आंदोलन के दौर का बर्बर नजारा साफ नजर आता है। इससे समझ आता है कि निर्देशक ने उस दौर की त्रासदी को कितने करीब से देखा और जाना है। इसके अलावा जब बुद्धदेव बाबू सिर्फ 12 साल के थे, तब कोलकाता चले गए, लेकिन पुरुलिया और बीरभूम जिलों ने उनकी कई फिल्मों की पृष्ठभूमि के रूप में काम किया। उनके निर्देशन में बनीं कुछ प्रसिद्ध फिल्मों में ‘नीम अन्नपूर्णा’, ‘गृहजुद्ध’, ‘बाघ बहादुर’, ‘तहादेर कथा’,‘चाराचर’, ‘लाल दर्जा’, ‘उत्तरा’, ‘स्वपनेर दिन’, ‘कालपुरुष’ और ‘जनाला’ शामिल है। उन्होंने दो हिंदी फिल्में ‘अंधी गली’ और ‘अनवर का अजब किस्सा’ भी उन्हीने बनाई। दासगुप्ता को उनकी फिल्मों के लिए कुल 12 राष्ट्रीय पुरस्कर मिले ये किसी रेकॉर्ड से कम नहीं

Anwar Ka Ajab Kissa (2013) by Buddhadev Dasgupta

भारत के बाहर फिल्मों को लेकर अनेक प्रयोग हुए। कई आंदोलनों के लिए फिल्मों ने हथियार सा काम किया। सोवियत फिल्मों ने तो सत्ता पलटने में महती भूमिका अदा की। फिल्मों में आये नित नए नव तरंगों ने फिल्मों को आगे बढ़ने की दिशा दी। नव तरंगों के प्रभाव में सिनेमा और निर्देशकों ने सामाजिक पृष्ठभूमि को आम जन तक पहुँचाया। इनमें से कई नई लहरों या तरंगों का नाम हम जब तब लेते हैं। जिनमें फ्रेंच न्यू वेव, इटालियन न्यू वेव, जैपनीज़ न्यू वेव, ऑस्ट्रेलियाई न्यू वेव आदि आदि। पर यदि भारतीय सिनेमा के नव तरंग की बात हो तब सोच में पड़ जाते हैं कि किस दौर को और किन फिल्मों को इसकी संज्ञा देनी चाहिए। एक दिलचस्प यह भी की त्रयी फिल्मों के लिए बांग्ला के अलावा और भाषाई निर्देशकों में वैसा उत्साह, जज्बा या साहस नहीं दिखता। मेरा प्रस्ताव है कि इन त्रयी फिल्मों को ही या इस दौर को ही यानी 1969-80 का ये दौर जहां बंगाल के चार दिग्गज फ़िल्म निर्देशकों ने कोलकाता महानगर को केंद्र में रखकर त्रयी फिल्मों का निर्माण किया। इसी को भारतीय सिनेमा का नव तरंग माना जाए।

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