पठान: राष्ट्रवाद के टेंपलेट वाला एक ‘छद्म सिनेमा’
जैसा कि होता है और होना चाहिए भी कि किसी भी फिल्म का वास्तविक मूल्यांकन अंतत: उसके सिनेमैटिक अंतर्वस्तु पर होगा न कि बॉक्स ऑफिस कलेक्शन पर। शाहरुख खान की फिल्म पठान के यूफोरिया के बीच बहुत सारी ज़रुरी टिप्पणियों और समीक्षाओं के ज़रिए चर्चा नहीं हो सकी। एक सुधी सिनेमा दर्शक और नागरिक के तौर पर प्रस्तुत है ऐसी समीक्षा वैभव सिंह की कलम से। इलाहाबाद विश्वविद्यालय और जेएनयू, नई दिल्ली में शिक्षित वैभव सिंह हिंदी के एक लेखक और अनुवादक हैं। उनकी प्रमुख कृतियों में ‘इतिहास और राष्ट्रवाद’, ‘भारतीय उपन्यास और आधुनिकता’, ‘शताब्दी का प्रतिपक्ष’, ‘ भारतः एक आत्मसंघर्ष’, ‘कहानी- विचारधारा और यथार्थ’, ‘रवीन्द्रनाथ टैगोर: उपन्यास, स्त्री और नवजागरण’। इसके अतिरिक्त उन्होने टेरी ईगलटन की पुस्तक का अनुवाद ‘मार्क्सवाद और साहित्यालोचन’ तथा पवन वर्मा की पुस्तक का अनुवाद ‘भारतीयता की ओर’ के नाम से किया। उन्होने कुछ पुस्तकों का संपादन किया है तथा एक उपन्यास भी शीघ्र प्रकाश्य। है। संप्रति- विभिन्न मीडिया-संस्थानों से जुड़ाव तथा विश्वविद्यालय में अध्यापन। फिल्मों में उनकी विशेष रुचि है।
‘पठान’ देखकर लगा कि हिंदी फिल्म उद्योग अब पूरी तरह ऐसी बेजान किस्म की वीडियो गेमिंग तकनीक में समा गया है जहाँ कृत्रिम मुद्दे, भावहीन संवाद, पैरनाॅइया, छिछला राष्ट्रवाद ही परोसने के लिए बचा है। ‘टेकनीक’ ने ‘कंटेंट’ को भी पूरी तरह यांत्रिक बना दिया है। अभिनय व गायन-कला को तबाह कर दिया है। कुल मिलाकर यह सिनेमा उस नायक और नायकत्व को नष्ट करता है जो सिनेमा की जान होते हैं। पुराना सिनेमा नायकत्व को कहानी या पटकथा के भीतर से धीरे-धीरे विकसित होता दिखाता था। उसमें नायक परिवेश से टकराव में अपने नायकत्व को हासिल करता था और इस प्रक्रिया में दर्शकों का मन मोह लेता था। पर अब वीडियो गेम तकनीक में वह मशीनों का ही प्रतिरूप है, एक पूर्वनिर्धारित चरित्र, जहाँ आदमी-औरत सब घातक हथियारों, कंप्यूटर, जिम ट्रेनिंग, आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस के शिल्प के बीच ‘डीह्यूमनाइज’ हो चुके हैं और इसलिए वे किसी भी छद्म राष्ट्रवाद और कारोबारी आकाओं के हाथ की कठपुतली हैं। इसमें रोमांस, सेक्सुअलिटी, रति और स्त्रीगत कमनीयताएँ भी बेजान प्रतीत होती हैं।
स्त्री-देह और पुरुष-देह को निर्वस्त्रता का पूरी तरह शिकार बनाने के बावजूद उससे कोई सौंदर्य नहीं पैदा किया जा सकता है। यहाँ तक कि वे अब अश्लीलता जैसी कोई नैतिक दुविधा भी नहीं पैदा करते क्योंकि अश्लीलता भी मानवीय अवस्था है और यह सिनेमा किसी भी ‘स्वाभाविक मानवीय स्थिति’ के बाहर चला गया है।
जिस मानव समाज को अभी भयानक विषमता, विपन्नता, सूखते पर्यावरण और सामाजिक संबंधों की जटिलता जैसी समस्याओं को हल करना है, वहाँ सिनेमा ही अगर केवल तकनीकी फार्मूलों वाली वीडियो गेमिंग व डिब्बाबंद फूड का रूप ग्रहण कर ले, मनोरंजन को तकनीक की ‘अनरियल’ धमाचौकड़ी में बदल डाले तो समाज को उसका उपभोक्ता बनने से पहले सोचना चाहिए, न कि आठ सौ करोड़ का बिजनेस थमा देना चाहिए। ऐसा सिनेमा कई बार इस रूप में छल भी करता है कि वह सैन्य व आतंकी बलों की वैश्विक हिंसा के विरोध में कुछ ‘ड्राॅपआउट’ के माध्यम से धूमधड़ाका वाली देशभक्ति के फाॅर्मूले को भी इस्तेमाल कर लेता है, लेकिन प्रभाव के स्तर पर वह सब मानव चेतना को समृद्ध नहीं करता। सच तो यह है कि समाज और विश्व को प्रेम-करुणा व संघर्षों का संवाहक बनने वाले वास्तविक आमजनों की तलाश है जिनके पास भारी मशीनें नहीं हैं और न हेलिकाॅप्टरों पर बैठकर किसी भारी विश्व समस्या का हल तलाशते हैं। वे इस सदी में भी आसपास के छोटे लेकिन वास्तविक संसार में अपने ढंग से नायक-नायिकाएँ हैं। वे अपनी भावात्मक स्वायत्तता और विशालता के कारण ही पूंजीवाद के द्वारा खड़े किए राष्ट्रवाद बनाम आतंकवाद, भूमंडलीकरण बनाम देशज यथार्थ, तकनीक बनाम संस्कृति आदि विवादों की कैद से मुक्त हैं। आसपास की दुनिया के सच्चे मनुष्य हैं, रियल नायक, यथार्थ को जीवित रखने वाले, न कि वीडियो स्क्रीन की नकली छवियाँ। वे निर्वस्त्र या अर्धनग्न न भी हो तो भी कमनीय, सौंदर्यपूर्ण और आकर्षक प्रतीत होते हैं। वे केवल तकनीकी कौशल व पूंजीवाद की बर्बर संपन्नता का प्रचार करने के लिए प्रयुक्त नहीं होते बल्कि अपनी नगण्यता, विफलता व साधारणपन में ही महान नायक प्रतीत होते हैं। वे बर्बर शूरवीरों का प्रतिपक्ष हैं।