याद-ए-साहिर बरास्ते ‘ख़ूबसूरत मोड़’: ‘चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों’
25 अक्टूबर को हिंदी सिनेमा के सबसे अहम गीतकार माने जाने वाले साहिर लुधियानवी की पुण्यतिथि होती है। साहिर की शायरी में अधूरे इश्क की कसमसाहट कई तरह से अलग अलग अंदाज़ में देखने को मिलती है। प्रस्तुत है अजय चंद्रवंशी की कलम से साहिर के जीवन, उनकी शायरी और ‘खूबसूरत मोड़’ पर चर्चा। लेखक-समीक्षक अजय चंद्रवंशी बतौर शिक्षा अधिकारी कवर्धा, छत्तीसगढ़ में कार्यरत हैं।इस साइट पर ‘सिनेमा के साहित्य की समीक्षा’ सीरीज़ के तहत उनकी कई फिल्म समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकी हैं।
साहिर प्रेम के द्वंद्व और कशमकश को प्रकट करने में अद्वितीय हैं। यों तो पूरे उर्दू साहित्य में प्रगतिशील आंदोलन के प्रभाव से प्रेम का द्वंद्व मुखर हुआ। पहले द्वंद्व का रूप मुख्यतः अमीरी-गरीबी के ‘शाश्वत’ रूप में हुआ करता था, अब यह ‘ग़मे-जानां’ से ‘ग़मे-दौरां’ में हुआ। फ़ैज़ ने इसे ‘कू-ए-यार’ से निकले तो सू-ए-दार’ चले कहा। मजाज़ ने कहा ‘तू इस आँचल को परचम बना लेती तो अच्छा था’।
द्वंद्व का यह सामाजिक रूप साहिर के यहां भी है। इसलिए ‘किसी को उदास देखकर’ भी वे कहते हैं ‘तुम्हारे ग़म के सिवा और भी तो ग़म है मुझे’।
मगर साहिर के यहां प्रेम के द्वंद्व का जितना सामाजिक पहलू है उतना ही व्यक्तिक भी।ज़ाहिर है इसका कारण निजी जीवन के अनुभव हैं।
विचारधारा पर व्यक्तिक अनुभव के इस रंग से महत्वपूर्ण रचनाएं निकल कर आईं,जो उनके पहले संग्रह ‘तल्खियां’ में संग्रहित हैं। उस दौर में उनका ‘ताजमहल’ नज़्म बहुत लोकप्रिय था और हर मुशायरे में उसे सुनाने की मांग की जाती थी।
‘ताजमहल’ में रोमानियत को जिस ढंग से सामाजिक आधार दिया गया है,वह अद्भुत है। युवावस्था की दहलीज में इस तरह का विद्रोह आकर्षक होता है।कहना न होगा ताजमहल को इस नजरिए और अंदाज़ से साहिर से पहले किसी ने नहीं देखा था।
‘ख़ूबसूरत मोड़’ भी साहिर की चर्चित नज़्म है जो ‘तल्खियां’ में संकलित है। इस नज़्म की लोकप्रियता में इसके ‘गायन’ का भी योगदान है,जो 1963 में फ़िल्म ‘गुमराह’ में रवि के संगीत और महेंद्र कपूर की आवाज़ में स्वरबद्ध है।
संगीतकार रवि की यह खासियत थी कि वे अपनी धुन पर शायर को गीत लिखने नहीं कहते थे,बल्कि उनके लिखे गीतों को संगीतबद्ध करते थे ।इसलिए गीतकारों को निर्बन्ध रूप से गीत रचने में मदद मिलती थी।
बहरहाल यह नज़्म तो पहले से लिखी जा चुकी थी जिसे उन्होंने संगीतबद्ध किया। कहना न होगा यह संगीत संयोजन अत्यंत लोकप्रिय हुआ। रवि ने इस नज़्म के भावानुरूप जिस तरह से लय और अंदाज़ बहुत कम साजो के साथ तैयार किया वह बेमिसाल है। खासकर तीसरे बंद (तआरुफ़ रोग हो जाये…) में आवाज़ की उठान भाव को और तीव्र कर देता है। गायक महेंद्र कपूर ने भी नज़्म के भाव के साथ पूरा न्याय करते हुए उसकी ‘आत्मा’ को प्रकट कर दिया है।
नज़्म का शीर्षक ‘ख़ूबसूरत मोड़’ से ही कथ्य की विडंबना की तीव्रता का अहसास होता है। ज़िंदगी की राह में ख़ूबसूरत मोड़ तो अमूमन सुखद स्थिति के लिए होगा, मगर यहां मोड़ बिछोह के लिए है। वह भी खूबसूरत!
सम्बन्धों में एक स्थिति ऐसी भी आती है जब हालात बदल जाते हैं और व्यक्ति उस बदले हालात में सम्बन्धों का निर्वहन कर नहीं पाते, ऐसे में अपनी-अपनी अलग राह में मुड़ जाना ही बेहतर होता है। इस मुड़ने में एक टीस तो होती है मगर यही बेहतर विकल्प है।
नज़्म से स्पष्ट है कि नरेटर (वाचक) जिसे सम्बोधित कर रहा है उससे आत्मीय सम्बन्ध रहा है और किन्ही कारणों से वे अलग हो गए हैं,मगर ज़िंदगी के किसी मोड़ पर मुलाकात होने पर पुराने दिनों की बातें कौंध गयी हैं। एक क्षण के लिए दोनो तरफ से जज़्बात जैसे बेकाबू होने लगते हैं, मगर दूसरे क्षण वाचक होश में आ जाता है और आज की हक़ीक़त मूर्त हो जाती है। इस हक़ीक़त से वह दूसरे पक्ष को अवगत कराने के लिए बेताब है।
“न मैं तुमसे कोई उम्मीद रक्खूँ दिल-नवाज़ी की
न तुम मेरी तरफ देखो ग़लत-अंदाज़ नज़रों से
न मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाए मेरी बातों में
न ज़ाहिर हो तुम्हारी कश्मकश का राज़ नज़रों से”
दबा हुआ प्रेम उभर जाना चाहता है। सरापा ज़िस्म से यह प्रकट हो रहा है, मगर वाचक सचेत होकर इसे रोकने को आतुर है। वह ख़ुद को समझाता है कि अब ‘उससे’ कोई सांत्वना की चाह उचित नहीं, और ‘उसे’ भी समझा रहा है कि वह भी अब प्रेम की चाह की नज़र से न देखे।
“तुम्हे भी कोई उलझन रोकती है पेश-क़दमी से
मुझे भी लोग कहते हैं कि ये जल्वे पराए हैं
मेरे हमराह भी रूसवाइयां हैं मेरे माज़ी की
तुम्हारे साथ भी गुज़री हुई रातों के साए हैं”
दिल धड़क रहा है मगर ‘वह’ सचेत रूप से भाव को शब्दों में झलकने से रोक रहा है और चाहता है ‘उसकी’ कशमकश भी भी आँखों से न झलक पाए।
परिस्थितियां बदल गई हैं। जो प्रेम था, न रहा। है भी तो अब फलित नहीं हो सकता। इसलिए उलझन दोनों तरफ है। ‘वह’ भी इस इस स्थिति में है कि अब कदम आगे नहीं बढ़ा सकती।इधर लोग भी उसकी बदली आभा और भंगिमा को पहचानने लगे हैं। वाचक को अपने अतीत की बदनामी का अहसास है जो जाहिर है इस नाकाम प्रेम जनित ही रहा होगा, उसी तरह ‘उसके’ अतीत का जीवन भी उसके वर्तमान पर हावी है।
“तआरुफ रोग हो जाये तो उसको भूलना बेहतर
तअल्लुक बोझ बन जाये तो उसको तोड़ना अच्छा
वो अफ़साना जिसे तकमील तक लाना न हो मुमकिन
उसे इक ख़ूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा”
आख़िरी बंद में द्वंद चरम में आकर अपने अंजाम में पहुँच गया है। वाचक का यह बयान कि परिचय यदि रोग हो जाये,सुखद न रह जाये तो उसे भूल जाना बेहतर है; सम्बन्ध यदि बोझ बन जाये तो तो उससे विच्छेद कर लेना अधिक अच्छा है, से उसके अपने सम्बन्ध की विडम्बना का ही बोध है।
वह कहानी जिसको पूर्णता प्रदान करना सम्भव न हो उसे ‘एक ख़ूबसूरत मोड़’ देना बेहतर होता है। ज़ाहिर है जिस रिश्ते को किसी ‘नाम’ के अंजाम तक न पहुँचाया जा सके समाज मे उसकी कोई ‘मान्यता’ नहीं होती, इसलिये उस ‘रिश्ते’ को तोड़ देना ही अच्छा होता है।
यह नज़्म इस भावदशा की श्रेष्ठ नज़्मों में है। यहां प्रेम सम्बन्ध के टूटने का दुख है मगर विलाप नहीं है। वाचक का आत्मसम्मान कहीं आहत हुआ है,इसलिए पीड़ा के बावजूद वह ‘प्रेम की भीख’ नहीं मांग रहा है। यह भाव साहिर के और नज़्मों में भी है। मसलन ‘नूरजहां की मजार में’ जहां सामंती विलास के लिए स्त्रियों के शोषण का चित्रण करते हुए वे एकदम वर्तमान में आकर कहते हैं
“तू मेरी जान! मुझे हैरतो – हरसत से न देख
हम में कोई भी नूरो-जहांगीर नहीं
तू मुझे छोड़ के, ठुकरा के भी जा सकती है,
तेरे हाथों में मेरे हाथ हैं, जंजीर नहीं।।”
इस तरह समानता और आत्मसम्मान साहिर की शायरी में प्रेम के अनिवार्य तत्व हैं।