विश्व के सिनेमाई सौंदर्य के गुह्य रस्म-रिवाज़-2: ‘रेज़ द रेड लैंटर्न’
पूनम अरोड़ा सुख्यात युवा साहित्यकार हैं जो साहित्य और सिनेमा को लेकर बहुत गंभीर और संवेदनशील दृष्टि और समझ रखती हैं। इनकी कविताओं, कहानियों और आलेखों का प्रकाशन देश की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में हो चुका है। इनका एक कविता-संग्रह ‘कामनाहीन पत्ता’, एक उपन्यास ‘नीला आईना’ प्रकाशित हो चुका है। एक किताब ‘बारिश के आने से पहले’ का सम्पादन कर चुकी हैं। कुछ कविताओं का अंग्रेज़ी, नेपाली और मराठी भाषा में अनुवाद हो चुका है। वो हरियाणा साहित्य अकादमी के युवा लेखन पुरस्कार से सम्मानित हो चुकी हैं। प्रस्तुत है वर्ल्ड सिनेमा की कुछ चुनिंदा फिल्मों को लेकर ‘विश्व के सिनेमाई सौंदर्य के गुह्य रस्म-रिवाज’ के नाम से प्रकाशित होने वाली उनकी सीरीज़ का दूसरा भाग। इसमें चीनी फिल्म निर्देशक झांग इमोउ की 1991 की फिल्म ‘रेज़ द रेड लैंटर्न’ की समीक्षा।
चमत्कृत वैभव में शोकगीत गाता विनाश का प्रारब्ध जिसके तमस में रोशनी की एक आखिरी आभा भी नहीं.
एक अदृश्य संघर्ष और उसके तथाकथित विजेताओं के मध्य सामूहिक विचार कई तरह से आवाज़, कल्पना और कष्ट के माध्यम से हस्तक्षेप करते हैं. लेकिन जीवन से तालमेल मिलाते हुए ये विचार इंसानों (स्त्रियों) को इस कदर शिथिल कर देते हैं कि अंत में पुरुष सत्ता के अस्तित्व के छिपे वार चार अलग-अलग स्त्रियों को पार्थिव सांत्वना ही दे पाते हैं। इस भूदृश्य के रहस्य इतने अमूर्त होते हैं कि यह कह पाना लगभग असंभव ही होता है कि घृणा और कर्म में कितनी दूरी रह गई है. और षडयंत्रो के मूल में पितृसत्तामक षड़यंत्र का आखिर कौन सा गरल स्त्रियों के कंठ से सदियों से गुनगुनाता आ रहा है.
चीनी फिल्मकार ‘झांग इमोउ’ (Zhang Yimou) के निर्देशन में सन् 1991 में बनी फिल्म ‘Raise The Red Lantern’ एक ऐसे चीनी समाज का प्रतिनिधित्व करती है जिसमें पारिवारिक परंपराओं की घृणात्मक भावशून्यता को चार स्त्रियां अपनी-अपनी संभावनाओं में परस्पर विरोधी होकर ढोती हैं.
उन्नीस साल की सोंगलियान (Songlian) अपने पिता की मृत्यु के बाद एक रईस व्यक्ति की चौथी मिस्ट्रेस बनने को इसलिए तैयार होती है क्योंकि सौतेली माँ उसे अपने पास नहीं रखना चाहती. न ही उसकी शिक्षा को आगे बढ़ाना चाहती है. ऐसा करना अब उसके लिए संभव नहीं होता. हालातों के चलते क्षुब्ध सोंगलियान एक नए माहौल में अपने जीवन को सहजता में लाने का प्रयास करती है.
चौथी मिस्ट्रेस बनने के बाद जिस वैभव का भोग उसके हिस्से का होता है वह एक के बाद एक निरंतर षडयंत्रों के कारण उसके लिए एक दिवास्वप्न बन कर रह जाता है.
प्राचीन पारिवारिक परंपरा के चलते एक रिवाज़ हर रोज़ मनाया जाता है. जिस भी मिस्ट्रेस के साथ मास्टर को रात बितानी होती है उसके घर के बाहर और घर के भीतर लाल रंग की लालटेनें जलाई जाती हैं. लालटेनें जब हवा में ऊपर उठाईं जा रही होती हैं तो यह दृश्य इतना स्वप्निल लगता है मानो आसमान किसी पारदर्शी सुख की बरसात कर रहा हो. जो लाल रंग दृश्य में दिखाई देता है दरअसल वह उन चार स्त्रियों के लिए कई मायने रखता है. मास्टर का एक रात का चुनाव, दूसरी स्त्रियों की पीड़ा, अंतर्द्वंद्व और ईर्ष्या का कारण भी बन जाता है. और जिस स्त्री का चुनाव किया जाता है उस मिस्ट्रेस के पैरों को अच्छी मसाज दी जाती है. पैरों की मसाज भी एक ऐन्द्रिक भावबोध में लयबद्ध होती है जिसका कुनमुना स्वर पूरे घर में गूँजता हुआ धुंए की एक लौ समान खो जाता है. उसी तरह से चारों स्त्रियां भी अपने-अपने अस्तित्व के कैदखानों में अपनी इच्छाओं और आशाओं की लौ पर लगातार भ्रमित होती जा रही हैं. लेकिन उन्हें यह तमाम वैभव बन्द घर में दिए जाते हैं और इस के पीछे केवल एक सुनिश्चित भावना कि मिस्ट्रेस का केवल और केवल यही कर्म है कि वे अपने मास्टर को तृप्त रखेंगी. इस भावना में शरीर में कैद आत्मा की तड़प का कोई अर्थ नहीं. आनंद है तो केवल मास्टर के लिए और गर्भ के प्रतिबिम्बों में केवल पुत्र पाने की कामना.
फिल्म अपनी सघन वृत्ति में रंगों और तीसरी मिस्ट्रेस मेईशान (Meishan) के भावपूर्ण अद्धभुत गीतों से बहुत आकर्षित करती है. मध्यरात्रि और भोर का नीला रंग जहां सघनता का अवलोकन करता दिखाई देता है तो लाल रंग प्रेम, सम्भोग और ईर्ष्या की आवृत्ति घनीभूत करता है. और मौसम के बदलने के साथ बर्फ मृत्यु की ठण्ड से सहमा जाती है.
अलसभोर में छत पर टहलते हुए बेहद आच्छन्न स्वर में गाती तीसरी मिस्ट्रेस मेईशान किसी रहस्य से कम नहीं लगती. और उसके गीत आत्मा के रूदन और उल्लास के बीच की कोई धुँधली रेखा समान ही कानों में घुल कर किसी तृप्ति का अनुष्ठान पूरा करते प्रतीत होते हैं.
सोंगलियान प्रतिवाद करना जानती है, असहमति जताना जानती है लेकिन हृदय से कोमल भी है. जब पहली मिस्ट्रेस का पुत्र जो कि उसी का हमउम्र है, एकांत में घर की ऊपरी मंजिल पर बाँसुरी बजा रहा होता है तब यह बेहद विराट आत्मिक अभिव्यक्ति की तरह सोंगलियान की आत्मा के कई हिस्सों को छूती है.
यहाँ एक और किरदार का होना मुझे बेचैन करता है और वह है यानर (Yan’er). सोंगलियान की व्यक्तिगत केयर टेकर. उसे उस घर में सोंगलियान का चौथी मिस्ट्रेस बनकर आना ही अखरता है. कई तरह से वह उसका विरोध और यहाँ तक कि घृणा भी करती है. उसके पीछे षड़यंत्रो की एक और गुफानुमा पहेली है. यह सब फिल्म में इस तरह से घट रहा होता है जैसे हर कोई एक डार्क स्पेस में जी रहा है. और जिसका अंत कोई नहीं जानता. लेकिन यानर को भी इसकी कीमत चुकानी पड़ती है.
वहीं नियति और षड़यंत्र चौथी मिस्ट्रेस सोंगलियान को एकालाप के नीरस और भ्रमित संसार में किसी संयोग से इतने चुपके से ले आते हैं जहां वह स्वयं को संदिग्ध पाती है. जहां एक ओर वह षड़यंत्रो का शिकार खुद हो रही होती है वहीं दूसरी ओर किसी शगल में उन निरर्थकताओं का घेरा भी स्वयं ही निर्मित कर रही होती है जिसमें नृशंस हत्या से अनभिज्ञ वह स्वयं किसी दोषी से कम नहीं होती.
मेईशान और छत पर बना रहस्यमयी कमरा, गिरती हुई बर्फ और डरी हुई सोंगलियान पश्चाताप और सजा की विभूतियाँ ही हैं जिसके साथ एक पल हम भी सहम कर आँखें मूँद लेते हैं और जब आँखें खोलते हैं तो सब समाप्त हो चुका होता है.
लेकिन दोष किसका माना जाए ? यह विध्वंस किसका है ? और क्या यह विध्वंसकारी वैभव समाज को पितृसत्ता की पापपूर्ण ग्लानियों के पार ले जाएगा कभी ? इस चमत्कृत वैभव में शोकगीत गाता विनाश का प्रारब्ध जिसके तमस में रोशनी की एक आखिरी आभा भी नहीं है.