40 साल पहले की ‘सुबह’ में झलकता आज का सच

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Ajay Chandravanshi

70 के दशक में परवान चढ़ा समांतर सिनेमा 80 के दशक में कई चुनिंदा नगीने लेकर आया। वक्त की आपाधापी उस दौर का सिनेमा भी गुमनाम है और उसका ज़िक्र भी। 13 दिसंबर को स्मिता पाटिल की पुण्यतिथि के मौके पर हम चर्चा कर रहे हैं उनकी मुख्य भूमिका वाली एक ऐसी ही बेहतरीन फिल्म सुबह की, जो निर्देशक जब्बार पटेल ने मूल रुप से मराठी में उंबरठा के नाम से बनाया था। ये फिल्म शांता निसल के मराठी उपन्यास ‘बेघर’ पर आधारित थी। ‘सिनेमा के साहित्य की समीक्षा’ के तहत प्रस्तुत है 1982 में बनाई फिल्म सुबह की समीक्षा, अजय चंद्रवंशी की कलम से। करीब 40 साल पुरानी इस फिल्म की कहानी और इसके मुद्दे आज भी प्रासंगिक हैं। इस सीरीज़ में हम किसी फिल्म के कथानक के साहित्यिक-सामाजिक पक्ष पर एक समीक्षा देते हैं, क्योंकि सिनेमा साहित्य से ही बनता है। लेखक-समीक्षक अजय चंद्रवंशी बतौर शिक्षा अधिकारी कवर्धा, छत्तीसगढ़ में कार्यरत हैं।

समाज में स्त्री द्वारा अपनी अस्मिता की तलाश का संघर्ष जटिल रहा है। एक तो जैविक रूप से मातृत्व की जिम्मेदारी का निर्वहन और दूसरा पितृसत्ता के मूल्य जनित बाधाएं; इनके कारण उसका रास्ता कठिन हो जाता है। संघर्ष पुरूष वर्ग में भी रहा है, खासकर आर्थिक। क्योंकि आर्थिक अक्षमता अधिकांश समस्याओं की जड़ है।लेकिन सामाजिक व्यवस्था में पुरुष को जो ‘नवाचार’और ‘जोखिम’ की छूट मिलती रही है वह स्त्री के लिए दुर्लभ रहा है। अमूमन स्त्री का कार्य सन्तान पालन और घर-गृहस्थी तक सीमित रहा है। पुरुष से भिन्न स्त्री की अलग पहचान की ‘जरूरत’ लगभग नहीं समझी जाती रही है। कहना न होगा स्त्री भी लगभग इस ‘सामूहिक चेतना’ से मुक्त नहीं थी और इसे स्वाभाविक मानती रही है।

इधर सामाजिक परिस्थिति और स्त्री चेतना में व्यापक बदलाव के बावजूद यह ‘सामूहिक चेतना’ पूरी तरह विखंडित नहीं हुई है,मगर इसमें उल्लेखनीय परिवर्तन अवश्य हुआ है।

फ़िल्म ‘सुबह’ की ‘सावित्री’ का द्वंद्व इसी अस्मिता और पारिवारिकता के बीच सामंजस्य का है। वह जितना अपनी अस्मिता के प्रति सचेत है उतना ही अपने परिवार से प्रेम भी करती है। मगर विडम्बना कि ‘परिवार’ यह तो चाहता है कि सावित्री उनके अनुकूल अपने को ढाले लेकिन ख़ुद ज़रा भी उसके अनुकूल ढलना नहीं चाहता। यों यह परिवार आधुनिक जीवन शैली का है और स्त्री के काम करने को अनुचित नहीं मानता, मगर यहां ‘काम’ का अर्थ केवल सभा-सोयायटी का मेंबर अथवा अध्यक्ष हो जाना है। अपनी सुविधानुसार केवल प्रतिष्ठा के लिए। यानी सुधार का आडम्बर केवल अपनी छवि चमकाने के लिए है।

सावित्री बेमन से मिली इस ‘अनुमति’ से घर से दूर एक महिला आश्रम की अधीक्षिका नियुक्त हो जाती है। कहना न होगा यहां तक का सफर उसने अपने जुनून और कुछ करने की चाह से तय किया है। मगर आश्रमों की ‘शाश्वत’ समस्याएं यहां भी हैं। एक तो गवर्निंग कमेटी की तानाशाही, जहां अध्यक्ष और सदस्य उसे बेहद परम्परागत ढंग से चलाना चाहते हैं। वे किसी भी नवाचार अथवा जोखिम से बचते हैं, क्योंकि उनके लिए सुधार मुख्य नहीं ‘सुधार का श्रेय’ मुख्य है।

उस पर तमाम तरह के आर्थिक-नैतिक भ्रष्टाचार! लड़कियाँ बाहर तक भेजी जाती हैं। इसमे सफेदपोश से लेकर काले सब शामिल हैं। लड़कियों की अपनी व्यक्तिक कमजोरियां हैं, गिरोहबाजी, झगड़े हैं। सामाजिक-शारीरिक रूप से प्रताड़ित हैं तो अपराध में संलग्न भी हैं। महत्वपूर्ण यह है कि फ़िल्म में स्त्री जीवन को यथार्थ ढंग से चित्रित किया गया है।

सावित्री अपने लगन से हालात में काफ़ी बदलाव ले आती है। लड़कियां भी उसकी सोच से प्रभावित होने लगती हैं। मगर प्रबंधन कमेटी से उसका टकराव बढ़ता जाता है, क्योंकि वह जोख़िम उठाकर लड़कियों का जीवन सुधारने का प्रयास करती है। इस बीच कैद की घुटन से परेशान दो लड़कियों द्वारा आत्महत्या कर लेने पर अंततः सावित्री को अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ता है, हालांकि वह वह इस मामले में बेदाग साबित होती है।

सावित्री के लंबे समय से परिवार से दूर रहने से उसके पारिवारिक जीवन मे दिक्कतें पैदा होने लगती है। एक तो बेटी जो पहले से अपने चाची से अधिक घुलिमिली थी उसके वापस घर लौटने पर एक क्षण के लिए उसे देखकर अवाक रह जाती है और भाग जाती है। यह स्थिति सावित्री के लिए त्रासद थी, मगर वह जानती है इसमे बच्ची का दोष नहीं।

पति का व्यवहार लोकतांत्रिक ही रहा है; हालांकि दूरी की कसक इसमे झलकती रही है। वह एक बार आश्रम भी जाता है तो वहां की परिस्थितियों के कारण सावित्री उसे अधिक समय नहीं दे पाती। मगर ऐसा नही कि वह काम के आगे पति की उपेक्षा करती रही है। उसके प्रेम में कहीं कोई कमी नहीं, वह हमेशा उसे और अपनी बेटी को याद करती रहती है और साथ होने का इन्तज़ार करती रहती है।

मगर पति उसकी अनुपस्थिति में अपने ‘स्वाभाविक’ जरूरत की पूर्ति के लिए दूसरी स्त्री से सम्बन्ध बना लेता है। क्या सावित्री की ‘स्वाभाविक’ जरूरत नहीं रही होगी? वह यहां तक स्वीकार कर लेती मगर पति जब उस सम्बन्ध को स्थायी रखना चाहता है तो यह उसे अपने सम्मान के विपरीत लगती है और फ़िल्म के आखिर में वह अपना सूटकेस लेकर एक नए सफर में निकल जाती है। पति इस अनिश्चितता से उसे रोकने का प्रयास करता है मगर व्यर्थ।

प्रश्न यह है कि मनुष्य का जीवन केवल उसके जैविकी से संचालित होगा? यदि ऐसा ही होता तो मनुष्य सामाजिक विकास की इतनी मंज़िलों को पार करता इस स्थिति तक क्यों आता। मनुष्य के जैविकी से इंकार नहीं किया जा सकता मगर उसकी आड़ में अपनी कमजोरियों, पाखंड और पितृसता को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। क्या जैविकी केवल उसके पति के लिए है, सावित्री के लिए नहीं? दरअसल रचनात्मक व्यक्तित्व एक चुनौती होता है और बहुधा औसत व्यक्तित्व के लोगों के बीच वह ‘गलत साबित’ होने के लिए अभिशप्त होता है और अक्सर अकेला ही रह जाता है। बहरहाल सावित्री बहुत कुछ खोकर भी अपनी अस्मिता से समझौता नहीं करती और नयी राह पर निकल पड़ती है। यह सार्थक है और इसकी जरूरत आज पहले से कहीं अधिक है

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