तारकोवस्की का ‘नॉस्टैल्जिया’: माथे की फूली हुई एक नस
सिनेमा में लीजेंड के तौर पर जाने जाने वाले रूसी फिल्मकार आंद्रेई तारकोवस्की की सालगिरह पर प्रस्तुत है उनकी 1983 में बनाई प्रख्यात फिल्म नॉस्टैल्जिया पर वरिष्ठ साहित्यकार कुमार अंबुज द्वारा लिखित एक विशेष आलेख। जिस तरह तारकोवस्की की फिल्म होती है, वैसा ही ये आलेख है, जिसे पढ़ते हुए उस लंबी कविता को पढ़ने जैसा आनंद लिया जा सकता है, जिसे चुपचाप हम सिर्फ अपने भीतर महसूस करते हैं। जिस सिनेमा का एक रूप तारकोवस्की का सिनेमा है, वैसे ही सिनेमा पर लेखन का एक रूप ये भी है… ये आलेख साहित्यिक पत्रिका समालोचन के सौजन्य से प्रकाशित किया जा रहा है। कुमार अंबुज अपने कविता-संग्रह-‘किवाड़’, ‘क्रूरता’, ‘अनन्तिम’, ‘अतिक्रमण’, ‘अमीरी रेखा’ और कहानी-संग्रह- ‘इच्छाएँ’ और वैचारिक लेखों समेत दो पुस्तिकाएँ-‘मनुष्य का अवकाश’ तथा ‘क्षीण सम्भावना की कौंध’ और कई अन्य प्रकाशित. कविताओं के लिए जाने जाते हैं, जिनके लिए उन्हे मध्य प्रदेश साहित्य अकादेमी का माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार, भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार, गिरिजाकुमार माथुर सम्मान, केदार सम्मान और वागीश्वरी पुरस्कार जैसे तमाम सम्मान प्राप्त हो चुके हैं।
(एक)
यह एक जटिल फिल्म है।
यह एक निन्दित फिल्म है कि यह दर्शकों की परवाह नहीं करती।
यह एक सराही गई फिल्म है कि अंतर्मन की परवाह करती है।
यह चेतन से बात करती है। अवचेतन से बात करती है।
यह यथार्थ को प्राथमिकता नहीं देती। यथार्थ में रहकर स्मृतियों को तरजीह देती है। यह मनुष्य के मनोजगत का अंकन है। उसके अंतरिक्ष का। सौरमंडल का। और दुविधा का। इसकी भाषा बोलचाल की सिनेमाई भाषा नहीं है। इसे प्रचलित अभिव्यक्तियों से अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। यह रैखिक (लीनियर) होने के विरुद्ध है। घटनाएँ सरल तारतम्यता से नहीं, ऊपरी शिराओं से नहीं, भीतरी धमनियों से जुड़ी हैं। इसका दर्शक, फिल्मकार की तरंगों के धरातल पर नहीं आएगा तो यह सिनेमा उसके लिए अपथ्य है। यह प्राप्य और प्राप्त को महत्वपूर्ण नहीं मानता। यह जो छूट गया उसे पाना चाहता है। यही असंभव है। यह तारकोवस्की का सिनेमा है: नॉस्टैल्जिया।
फिर ऐसा क्या है कि इस पर बात की जाए।
लिखने और पढ़नेवाले का समय नष्ट किया जाए।
दरअसल, यह कई दिशाओं में यात्रा करनेवाली कविता है। कैमरे की आँख जितना बाहरी दृश्यों को देखती है, उतनी ही अंतर के दृश्यों को। यह वर्तमान में है और विगत में भी। यह उधेड़ बुन, अनिश्चितता, स्मृति और आकांक्षा को एक साथ संबोधित करती है। भविष्य की दुर्घटनाओं के लिए सजग। जैसे एक चक्षु बाहर, एक चक्षु भीतर। यह कई बातें कहती है जो वाचालता में नहीं कही जा सकतीं। ये कई इशारे करती है जिन्हें साधारण दिनचर्या की परिचित भंगिमाओं में कह पाना संभव नहीं। यह अस्तित्व को अनेक तरह से प्रश्नांकित करती है। लेकिन स्वप्नशीलता को विस्मृत नहीं करती। प्रकाश की इच्छा में धुंध और कोहरे से गुज़रना चाहती है। यह सिनेमाओं का सिनेमा है। यह स्वप्न के भीतर स्वप्न है। जो अपर्याप्त यथार्थ के टूटकर बिखर गए टुकड़ों से मिलकर, जागे हुए की नींद में एक बार फिर बनता है। यह मनोहारी चुनौती है। और काव्यात्मक संश्लिष्ट व्याकरण।
(दो)
यह बिंबों को चित्रित करने का सिनेमा है।
रूस का एक कवि देश के एक पूर्वज संगीतकार पर किताब लिखना चाहता है। इसलिए वह इटली में उन स्थानों की यात्रा करता है जहाँ संगीतकार अपने अंतिम दिनों में रहा। उन जगहों को ऐंद्रिक ढंग से छूना चाहता है जिन्हें संगीतकार ने स्पर्श किया। सुविधा के लिए एक अनुवादक महिला उसके साथ है। लेकिन कवि अचानक अपने में गुम हो गया है। अपने देश और परिवार की स्मृति ने उसे घेर लिया है। साथ रहने, काम करने से महिला के मन में पैदा वासनामयी चेष्टा की उपेक्षा करते हुए वह जैसे कुछ और अकेला हो जाता है। वह उस सुंदर स्त्री में रुचि लेने के बजाय एक पागल-से व्यक्ति में दिलचस्पी लेता है। कवि को लगता है कि वह पागल ही उसके कुछ काम का है।
वह समझता है कि एक सर्जक और पागल का संबंध ही रचनात्मक हो सकता है। वह उस उन्मादी और खिन्न व्यक्ति का अजीब अंधविश्वास आग्रह अपने सिर पर लेता है कि एक जलती मोमबत्ती को एक विशाल, खुले नहानघर के एक सिरे से दूसरे सिरे तक ले जाना है। इससे शायद इस नष्ट होते संसार का भविष्य बेहतर हो जाए। वह अपने नॉस्टैल्जिया से घिरा, किसी ख़ाम ख़याली में इस मूर्खता के प्रति वचनबद्ध हो गया है। और इसका निर्वहन करता हुआ अंततः जीवनमुक्त हो जाता है।
इन तमाम स्थितियों के बीच कवि को अपने देश की याद इतना ढाँप लेती है कि अपने देश से इतनी दूर इटली में रहना दुष्कर लगने लगता है। यह नॉस्टैल्जिया, यह यातनामयी याद उसके अपने बचपन की, अपने घर की, वहाँ के भूगोल की है। भूदृश्यों की और व्यतीत संबंधों की। वह यहाँ, इतने दूर देश में, एक संगीतकार के जीवन पर पुस्तक लिखने के लिए आया था लेकिन वह स्मृतियों का बंधक बन चुका है। मन उचाट है लेकिन साथ में उस विचित्र पागल से और अनुवादक स्त्री से संवाद, आकर्षण और झंझट बना रहता है।
नॉस्टैल्जियाजन्य उदासी, अनश्वर याद हर जगह उसका पीछा करती है। खंडहरों में, टूटे-फूटे घरों में, ऋतुओं में, होटलों, गलियों, गलियारों, प्रकृति में, उपेक्षित वस्तुओं और ख़यालों में। इनका चित्रण जादुई है। लंबे, स्थिर फिल्मांकन उस आकर्षक और घातक ऊब की मदद करते हैं जिसका अहसास तारकोवस्की अपने विशिष्ट कौशल के साथ दर्ज करना चाहते हैं। निजी तौर पर यह तारकोवस्की के रूस छोड़ने के बाद की वेदना और अकेलेपन की त्रासदी का अपारदर्शी, अकथनीय कथ्य भी है।
ऐसे भी समझा जा सकता है कि जैसे पिकासो ने चेहरे और देह के सारे अवयवों को चित्रित किया लेकिन उनके मूल स्थानों से विस्थापित करते हुए। कला को बहुआयामी, बहुअर्थी बनाकर, अप्रत्याशित दिशाओं में ले जाकर। चित्र देखने की पारंपरिक समझ को चुनौती दी, उसे खंडित किया। क्रमभंग और च्युति। तारकोवस्की यही काम सिनेमा के माध्यम में करते हैं। शायद कला के पास नये रास्ते पर पैदल चलकर पहुँचने का इसके अलावा और कोई सच्चा तरीक़ा नहीं है।
यह मुख्य कथासार है। आगे बिखरी हुई चीज़ों को और ज़्यादा बिखेर रहा हूँ। कोई उन्हें अपनी तरह से एकत्र करते हुए अपने-अपने तर्क, स्वप्न या अपनी इच्छा के क्रम में रख सकता है। या यों ही छोड़ सकता है। अनौचित्य के बावजूद उनका अपना एक औचित्य है। तारकोवस्की का सिनेमा देखने के लिए इस तरह सोचना पड़ सकता है।
(ये आलेख वेब पत्रिका समालोचन के सौजन्य से, पूरा आलेख लिंक पर- https://samalochan.com/andrey-tarkovsky/ )