“औरत की योनि में जन्म लेना इस दुनिया की सबसे बड़ी सज़ा है”
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70 के दशक के हिंदी सिनेमा में जो नई परंपरा परवान चढ़ी, गोविंद निहलानी उस परंपरा की पहली पंक्ति में गिने जाने वाले निर्देशकों में रहे हैं। 1980 में आक्रोश से अपने निर्देशकीय पारी की शुरुआत करने वाले निहलानी के हर सिनेमा में विषयवस्तु और सोच को लेकर एक नयापन रहा है। आक्रोश, अर्धसत्य, पार्टी, तमस, द्रोहकाल जैसीी फिल्मों का नाम लेते समय अक्सर 1991में बनाई उनकी फिल्म रुक्मावती की हवेली का नाम छूट जाता है। प्रस्तुत है इस फिल्म के बारे में वरिष्ठ लेखक यादवेंद्र का समीक्षात्मक आलेख, जो विस्तार से जानकारी देने के साथ-साथ ये भी बता रहे हैं कि ये फिल्म देखते समय किस तरह वो इसकी विषयवस्तु से आत्मसात कर बैठे। लेखक-अनुवादक के तौर पर ख्यात यादवेंद्र सीएसआईआर-सीबीआरआई रूड़की में मुख्य वैज्ञानिक रहे हैं। फिलहाल पटना में निवास। हिंदी में रचनाकर्म में दशकों से सक्रिय रहे हैं। साहित्य, सिनेमा और संस्कृति में विशेष दिलचस्पी है और उन पर लगातार लिखते रहे हैं। हाल ही समसामयिक फिलिस्तीनी कविताओं के अनुवाद पर उनका संग्रह ‘घर लौटने का सपना’ समेत दो अन्य पुस्तकें ‘जगमगाते जुगनुओं की जोत’ और ‘घने अंधकार में खुलती खिड़की’ प्रकाशित हुई है।
तानाशाही से मुकाबला करते करते जवानी में मारे जाने वाले स्पेन के विश्व प्रसिद्ध कवि नाटककार लोर्का की मशहूर नाट्य रचना 1936 में लिखी “द हाउस ऑफ बर्नार्दा अल्बा” की अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग देशों में पुनर्व्याख्या की गई है,उसको बार-बार अपने ढंग से प्रस्तुत किया गया है। वैसे हिंदी/उर्दू में रघुवीर सहाय ने उसका अनुवाद “बिरजीस कदर का कुनबा” शीर्षक से किया था जिसे इप्टा सहित अनेक थिएटर ग्रुप ने देश के अलग अलग शहरों में मंचित किया। पंजाबी और हिंदी में मिली जुली स्क्रिप्ट “बेबे का चंबा” पर नाट्य निर्देशक सुहैला कपूर ने कई मंचन किए।
मुझे इस नाटक की कोई मंच प्रस्तुति देखने का मौका तो नहीं मिला लेकिन इन दिनों अपने पुराने और निर्माणकारी समय को याद करते हुए मुझे अचानक गोविंद निहालानी की प्रस्तुति की याद आई जो उन्होंने दूरदर्शन के लिए टेलीफिल्म के रूप में 1991 बनाई थी – “रुक्मावती की हवेली” शीर्षक से। वह बाद में बार बार देखने को उद्यत होता हूं।
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करीब पैंतीस साल पहले बनी यह टेलीफिल्म कोरोना वायरस भरे अंधेरे दिनों में भी देखी थी – उस दौर का एक बहुत निर्मम और भयावह रूपक लगा था… इसमें जो कुछ भी घटता है एक हवेली के अंदर दीवारों के अंदर ही घटता है(जैसे कोरोना ने हमें घरों के अंधेरे में धकेल दिया था) , बाहर की सुगबुगाहट सिर्फ ध्वनियों से मिलती है और यह सारी सुगबुगाहट सिर्फ़ और सिर्फ़ मर्द हरकतें हैं।
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पांच जवान बेटियां मां के आठ साल तक घर में कैद रह कर पिता की मृत्यु का शोक मनाने के अनुशासन से त्रस्त हैं और अपने अपने ढंग से उस धातुई घेरे में सुराख करती रहती हैं पर सबसे छोटी बेटी एडेला मां के के हुक्म की धज्जियां उड़ा डालती है। सारे पहरे अपनी जगह पर वह अपने प्रेमी से मिलती जुलती है… और गर्भवती भी हो जाती है। युवा प्रेमी के घर के बाहर खड़े होकर एडेला का शादी के लिए भगा ले जाने का इंतज़ार करने की बात सुन कर वह इतनी कुपित होती है कि बंदूक उठा कर दरवाज़े पर गोली दाग देती है। प्रेमी की हत्या (बाद में यह पता चलता है कि वास्तव में उसे गोली लगती नहीं) की बात जानकर एडेला आत्महत्या कर लेती है – यह मां के आरोपित अनुशासन और सामंती मूल्यों के खिलाफ़ उस का प्रतिरोध है। घर परिवार, पड़ोसियों और नगर वासियों को यह खबर है कि एडेला अपने प्रेमी से मिलती थी और गर्भवती थी पर अपने आप में मगन मां बरनार्डा बेटी की मृत्यु से दुखी नहीं होती – गर्व से घोषणा करती है कि उसे इस बात की खुशी है कि एडेला शहर की अन्य अनैतिक घटनाओं से प्रभावित नहीं हुई और कुंवारी मरी है।
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मौत के मातम के नाम पर अपनी जवानी को बर्बाद होते देने वाली बहनें औरतें बनने को उतावली हैं पर उनपर ध्वस्त होती खानदानी विरासत को बचाने के लिए तानाशाह बन जाने वाली मां का चौकन्ना पहरा है।बहनों की छटपटाहट के अपनी अपनी हदों के बीच मुक्ति की कामना में मारे जाने तक से बेखौफ एक बेटी(पल्लवी जोशी) का सारे बंधनों को छिन्न भिन्न कर देने का जज़्बा उम्मीद की उजली किरण है….हर समाज में अपनी जान न्योछावर कर मुक्ति के रास्ते दिखाने वाले नायक नायिका हुए ही हैं – इन्हें भले आज़ादी का सुख न मिले पर ये अपने जान की बाज़ी लगा कर आज़ादी या बदलाव का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
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प्रेम और मुक्ति की अदेखी छवियां इस फिल्म में जिस ढ़ंग से बार बार दस्तक देती हैं वह अद्भुत निर्देशकीय कौशल का शानदार नमूना है…गोविंद निहलानी, उत्तरा बावकर,पल्लवी जोशी, इला अरुण,किट्टू गिदवानी इत्यादि की टीम ने गहन अंधेरे में जादू का उजाला रच दिया है।
दोस्तों को इसे देखने की सलाह है, इसलिए भी कि 1936 के ग्रामीण स्पेन की पृष्ठभूमि में लिखा गया यह नाटक आश्चर्यजनक रूप से आज के भारतीय समाज के विद्रूप का खुलासा करता है।
जब दूरदर्शन सचमुच एक स्वायत्त सांस्कृतिक संस्थान तौर पर काम करता था तब बनाई और दिखाई गई यह फिल्म यूट्यूब पर भी उपलब्ध है।