सिनेमा में साहित्य के ‘ढाई आखर’ की सार्थक वापसी
22 नवंबर से सिनेमाघरों में एक महत्वपूर्ण हिंदी फिल्म रिलीज हुई है- ढाई आखर। महत्वपूर्ण इसलिए कि हिंदी सिनेमा में कंटेंट के दुर्भिक्षकाल में एक गंभीर विषय पर गंभीरता से बनाई ये फिल्म कहीं न कहीं सिनेमा में हमारे सांस्कृतिक और साहित्यिक विरासत को भी संजोती है। अमरीक सिंह दीप के प्रसिद्ध उपन्यास तीर्थाटन के बाद पर आधारित इस फिल्म की पटकथा-संवाद जाने माने साहित्यकार असगर वजाहत ने लिखे हैं और इरशाद कामिल ने इसके गीत लिखे हैं। संगीत अनुपम रॉय का है, जिन्होने शूजीत सरकार की फिल्म पीकू में संगीत देकर वाहवाही बटोरी थी। निर्देशन प्रवीण अरोड़ा का है, जिनकी बतौर निर्देशक ये पहली फिल्म है, लेकिन उनके काम की खासी तारीफ हो रही है। ये फिल्म पिछले साल 54वें भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (IFFI) में दिखाई गई थी, हालांकि तब से इसे रिलीज़ होने में साल भर लग गए, क्योंकि ऐसी फिल्मों का पर्दे तक पहुंचना आज एक बड़ी चुनौती है। हम दो वरिष्ठ और गंभीर समीक्षक-आलोचक और फिल्म स्कॉलर जवरीमल्ल पारख और दिनेश लखनपाल की संक्षिप्त टिप्पणी फिल्म की त्वरित और समीक्षात्मक प्रतिक्रिया के तौर पर प्रकाशित कर रहे हैं।
जवरीमल्ल पारख: आज मैंने सुनीता के साथ थिएटर में जाकर बहुत अच्छी फिल्म देखी। फिल्म का नाम है, ढाई आखर। फिल्म हिंदी कथाकार अमरीक सिंह दीप के उपन्यास तीर्थाटन के बाद पर आधारित है। फिल्म के लिए पटकथा और संवाद प्रख्यात हिंदी कथाकार असगर वजाहत ने लिखे हैं। गीत इरशाद कामिल के हैं। इस फिल्म का निर्देशन किया है परवीन अरोड़ा ने जिनकी संभवतः यह उनकी पहली फीचर है। लेकिन फिल्म देखकर यह लगता ही नहीं कि यह निर्देशक की पहली फिल्म है। बहुत ही परिपक्व और संवेदनशील। फिल्म की कथा सामाजिक भी है और वैयक्तिक भी। एक स्त्री के लिए क्या जरूरी है, विवाह या प्यार ? एक ऐसा विवाह बंधन जो स्त्री से उसकी आज़ादी छीन ले, उसकी आकांक्षाएं, उसके स्वप्न छीन ले तो उससे प्यार ही मुक्ति दिला सकता है। चाहे वह जीवन के किसी भी मोड पर क्यों न दरवाजा खटखटाए। जब वह दरवाजा खटखटाता है तो अंदर का डर जिसने स्त्री को जकड़ रखा है, वह एक एक कर टूटने लगती है। और उन सब के सामने साहस के साथ खड़ी हो पाती है, चाहे उसकी कितनी ही बड़ी कीमत क्यों न चुकानी पड़े।
फिल्म की प्रस्तुति का सौंदर्य पटकथा और निर्देशन दोनों में अंतर्निहित है। मैंने उपन्यास अब तक नहीं पढ़ा है, इसलिए उसके बारे में कुछ नहीं कह सकता लेकिन पटकथा बहुत प्रभावशाली है, खासकर पूर्वदीप्ति (फ्लैशबैक) का बहुत ही क्रिएटिव इस्तेमाल किया गया है। संवाद खासकर हर्षिता और श्रीधर के बीच के बहुत ही काव्यात्मक है। अन्य पात्रों के संवाद भी उनके चरित्र के अनुरूप हैं।
फिल्म का केंद्रीय चरित्र हर्षिता का है और मृणाल कुलकर्णी ने बहुत ही प्रभावशाली रूप में निभाया है। दरअसल फिल्म बहुत कुछ उनके कंधे पर है। लेकिन निर्देशक ने इस बात का ध्यान रखा है कि किसी भी चरित्र का अभिनय कहीं भी न नाटकीय हैऔर न ही लाउड। इरशाद कामिल के गीत पार्श्व में ही इस्तेमाल किए गए हैं, लेकिन गीत भी फिल्म के आंतरिक अर्थ और संवेदना को समृद्ध बनाते हैं। फिल्म का नाम ढाई आखर बहुत ही सार्थक है और फिल्म के केंद्रीय संदेश को व्यक्त करता है। इस प्रेम विरोधी समय में कबीर के संदेश ढाई आखर प्रेम का को हर घड़ी हर क्षण याद रखने की जरूरत है।
फिल्म के निर्देशक परवीन अरोड़ा को इस बेहतरीन फिल्म के लिए बहुत बहुत बधाई। अच्छी, खूबसूरत और सामाजिक रूप से भी अर्थवान फिल्म पसंद करने वाले दर्शकों को इस फिल्म को जरूर देखना चाहिए।
……………………………………………………………………
दिनेश लखनपाल: बहुत दिनों बाद किसी ने ऐसे विषय को चुना है, जिसकी अनेक परतें हमारे आस पास हैं, समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग इससे ग्रसित है, अभिष्पत है और उतना ही बड़ा वर्ग एक मूक आवरण ओढ़े, ज़िम्मेदार भी है..अत्यंत सीमित साधनों के रहते, वर्तमान दौर की वित्तीय चकाचौंध से, दर्शकों को खींचने के लिए अनेकोनेक हथकंडों को आजमाती फिल्मों की आपाधापी में ‘ढाई आखर’ एक ऐसे सिनेमा की दरकार है, जिसकी गुंजाइश तो हमेशा रही है पर हर बार उसे अगर जिंदा रहना है तो एक ऐसे दर्शक वर्ग का सहयोग भी चाहिए जो यू ट्यूब, OTT, मोबाइल फोन की दुनिया से बाहर आए और ‘on-line orders’ करने के सम्मोहन से भी बाहर निकल, अपने आस-पड़ोस में, जहाँ भी संभव हो, सिनेमा घर में जा कर देखें.
एक बात और, जब कोई भी निर्माता निर्देशक जब ऐसी फिल्म बनाता है तो उसे परदे पर लाना आसान नहीं हैं. प्रवीण अरोड़ा और उनके साथी इन दोनों बहुत ही कठिन चुनौतियों को लांघ कर आये हैं… अब यहाँ दर्शक की भूमिका आती है जो ऐसी फिल्मों का स्वागत करे… अच्छे या सार्थक सिनेमा और दर्शक के इन्हीं रिश्तों पर ऐसा सिनेमा जी पायेगा.