फिल्म समीक्षा: भेदभाव की ‘गुठली’, अधिकार का ‘लड्डू’

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कोरोना काल में सिनेमाई कंटेंट की दुनिया सिकुड़ती लगी तो तलाश का दायरा हिंदी सिनेमा के इतर क्षेत्रीय फिल्मों तक भी गया और वहां न सिर्फ अच्छा सिनेमा मिला, बल्कि नए-नए, ज़मीन से जुड़ते विषयों को व्यापक अपील वाले सिनेमा में बदलने का हुनर भी दिखा…हिंदी सिनेमा में भी अब इस नएपन की झलक दिखने लगी है। गुठली लड्डू को इसी की एक कड़ी कहा जा सकता है, जो जातिगत भेदभाव जैसे विषय को फिल्म का आधार बनाती है। हाल के सालों में एक सफल मराठी फिल्म ‘सैराट’ का हिंदी रीमेक धड़क और ‘आर्टिकल 15’ इस विषय पर आई ताज़ा फिल्में कही जा सकती हैं। सबसे हालिया उदाहरण ‘200 हल्ला हो’ और ‘जय भीम’ (मूलत: तमिल) का है,जो सफल और चर्चित रहीं। लोकप्रिय कलाकार संजय मिश्रा अभिनीत और निर्देशक इशरत खान की फिल्म गुठली लड्डू 13 अक्टूबर को सिनेमाघरों में रिलीज़ हो रही है। इस फिल्म की समीक्षा पेश कर रहे हैं तेजस पूनिया,जो एक युवा लेखक और फिल्म समीक्षक हैं। मुम्बई विश्वविद्यालय से शोध कर रहे तेजस का एक कहानी संग्रह और एक सिनेमा पर पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। अखबारों और न्यू डेल्ही फिल्म फाउंडेशन के लिए नियमित लेखन करते रहते हैं। ये फिल्म 13 अक्टूबर को सिनेमाघरों में रिलीज़ हो रही है।

भारत देश को आज़ाद हुए एक अरसा बीत गया है। लेकिन क्या वजह है कि अभी भी सिनेमा वालों को दलितों, नीची जातियों के सहारे भेदभाव की, अधिकार की, स्वतंत्रता की, संविधान की बातें करनी पड़ रही हैं। जैसा की फिल्म कहती है – इन महलों का गर्व ना करना एक दिन पाले सूए उड़ जायेंगे। यानी जो तथाकथित बड़ी जाति के लोग अपने महल बनाए बैठे उन पर गर्व से इठला रहे हैं, उन कंगूरों को मजबूत नींव इन्हीं नीची जाति वालों ने ही दी है। लेकिन फिर भी ऊंची जाति के लोग अपने महलों पर गर्व करते नहीं थकते। 

फिल्म का एक सीन देखिए – गांव के स्कूल में ऊंची जाति के बच्चे ‘सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान’ हमारा गा रहे हैं। तो वहीं बाहर खिड़की से ताक रहे हैं नीची जाति के दो दोस्त गुठली और लड्डू। 

एक और सीन देखिए – आसमान में तारे क्यों टिमटिमाते हैं? मैडम क्लास में पढ़ाते हुए सवाल कर रही है जिसका जवाब क्लास के अंदर बैठकर भी बाहर रहने वाले बच्चे नहीं दे पा रहे। जबकि क्लास के भीतर बैठकर भी बाहर रहने वाले बच्चों के बरअक्स गुठली क्लास के बाहर खिड़की से पढ़कर पढ़ता ही नहीं सही जबाव भी जानता है। 

एक तीसरा सीन और देखिए – एक तरफ आजादी के बाद संविधान का दिन मनाया जा रहा है, जिसमें सबको बराबरी का दर्जा देने की बातें हो रही है। दूसरी ओर कुछ दूर पर ही गुठली के बाप को चाय वाला उसके गिलास पर हाथ लगा देने भर से मारने लगता है। 

ऐसे कई सीन इन फिल्म में एक के बाद एक करके आते रहते हैं और फिल्म गुठली और लड्डू नाम के बच्चों के सहारे भेदभाव की बेड़ियों को अधिकार से तोड़ते नजर आते हैं। अब आप कहेंगे ऐसी कहानियां तो कई बार हम फिल्मी पर्दे पर देख चुके अब इसकी क्या जरूरत है? तो जनाब कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने ठान रखा है की जब तक समाज और देश की सोच असलियत में नहीं बदल जाती तब तक ऐसी कहानियां वे बनाते रहेंगे। 

फिल्म कहती है – इंसान को अपनी इज्ज़त पढ़ाई लिखाई से ही मिलती है। यह सच भी है और उसी सच को फिल्म के लेखक, निर्देशक, एक्टर समेत तमाम टीम ईमानदारी से दिखाती, बताती है। इतने पर ही यह नहीं रुकती बल्कि आपको बार-बार बीच में रुलाती भी है, हंसाती भी है। दलितों, अनुसूचित जातियों के लोगों को केंद्र में रख भेदभाव की कहानियां कई बार कही गई हैं। दक्षिण भारतीय सिनेमा की ऐसी कहानियां खास करके पूरी दुनिया में चर्चित रहीं। बॉलीवुड में भी ऐसी कई कहानियां आती रही हैं जिन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई है। लेकिन मौजूदा दौर में इसे लेकर सजगता, सक्रियता और रचनात्मकता बढ़ गई है।

इशरत आर खान निर्देशित इस फिल्म में संजय मिश्रा हमेशा की तरह अपना बेहतरीन अभिनय करते नजर आते हैं। इतना ही नहीं यह फिल्म के निर्देशक की तारीफ के लायक इसलिए भी बनती है क्योंकि इसकी पूरी स्टार कास्ट ही अपने आप को पूरी तरह कहानी में जीती हुई नजर आती है।

कहा जा सकता है कि श्रीनिवास एब्रॉल की लिखी कहानी को अगर लेखक के साथ मिलकर गणेश पंडित ने स्क्रीनप्ले तथा डायलॉग से सजाया और निर्देशक इशरत आर खान ने निर्देशन से इसे ऊंचाई दी तो इसकी स्टारकास्ट ने अपने अभिनय से इसे और निखार दिया। फिर वह गौरांश शर्मा हो या प्रवीण चंद्रा, धन्य सेठ गुठली के किरदार में तो वहीं हीत शर्मा लड्डू के किरदार में संजय मिश्रा से भी कहीं ऊपर का अभिनय करते नजर आते हैं। छोटे से इस बच्चे में अभिनय के वे सारे गुण मौजूद हैं जो इसे आगे जाकर अवश्य ही अपना मुक्कमल स्थान दिलाएंगे। 

सुब्रत दत्ता गुठली के पिता के रूप में हर भाव अपने चेहरे पर लाते हैं और एक पिता अपने बच्चे के लिए किस हद तक कोशिशें करता है उसे वे संजीदगी से अपने अभिनय में पिरोते नजर आते हैं। कल्याणी मुले, कंचन पगारे, अर्चना पटेल, आरिफ शाहदोली, संजय सोनू इत्यादि पूरी टीम मिलकर इस भेदभाव की इस गुठली को अधिकार के लड्डू से तोड़ती नजर आती है। 

रोहन का म्यूजिक, रोहन गोखले के लिखे गीत, अनिल अक्की की सिनेमैटोग्राफी, स्टीवन बर्नार्ड की एडिटिंग, सागर त्रिलोत्कर के डिजाइन किए गए कॉस्ट्यूम और अमर मोहिले के बैकग्राउंड स्कोर मिलकर फिल्म को इस कदर देखना लाजमी बना देते हैं कि यू सर्टिफिकेट से पास हुई यह फिल्म ना ज्यादा हार्ड हिटिंग होती है और ना ही सतही रहती है। एक सहज, साधारण कहानी में भी किस तरह तकनीकी छौंक लगाकर उसे सजाया जा सकता है उसके लिए इस फिल्म को देखा जाना चाहिए। देखा तो इसलिए भी जाना चाहिए क्योंकि हमारे समाज की, देश के लोगों की आज भी सोच नहीं बदली है। ऐसी फिल्मों को तब तक देखते दिखाते रहिए जब तक सचमुच आपके भीतर से परिवर्तन ना नजर आने लगे। 

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