मृणाल सेन की ‘भुवन शोम’ वाया गौरी

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हिंदी सिनेमा में रियलिज़्म की नींव भले ही ‘नीचा नगर’ के ज़रिए चेतन आनंद और ख्वाजा अहमद अब्बास ने 1946 में ही रख दी थी, मगर समांतर, समानांतर, कला फिल्मों या सार्थक फिल्मों के नाम से 70 के दशक में जो धारा चली और जिसने हिंदी सिनेमा की मुख्य धारा को भी विस्तार के नए आयाम दिए, उस धारा की मार्गदर्शक फिल्मों के तौर पर ‘भुवन शोम’, ‘उसकी रोटी’ और ‘सारा आकाश’ के नाम इतिहास में दर्ज हैं। इनमें सबसे अधिक चर्चा ‘भुवन शोम’ की होती रही है, जिसके निर्देशक मृणाल सेन थे। मृणाल सेन बांग्ला सिनेमा की सबसे महान त्रयी (सत्यजित राय, ऋत्विक घटक के साथ) में गिने जाते रहे हैं। प्रस्तुत आलेख में वरिष्ठ लेखक-अनुवादक यादवेंद्र फिल्म ‘भुवन शोम’ का एक भावुक दर्शक-समीक्षक के तौर पर पुनरावलोकन कर रहे हैं, जिसको पढ़ कर ये भी समझ आता है कि ये फिल्म क्यों इतनी खास मानी जाती है। यादवेंद्र हिंदी में काव्य और गद्य दोनों में ही लेखन करते रहे हैं। विज्ञान और फिल्म आधारित लेखन में विशेष दिलचस्पी रही है। उन्होने विश्व साहित्य की कई महत्वपूर्ण कहानियों और पुस्तकों का अनुवाद भी किया है। इनमें विश्व साहित्य से स्त्री कथाकारों की चुनी हुई कहानियों के संकलन भी शामिल हैं (तंग गलियों से भी दिखता है आकाश, स्याही की गमक)। साहित्यिक पत्रिका कथादेश के विशेषांक का भी संपादन किया है। फिलहाल पटना में रहते हैं।

आज महीनों बाद एक बार फिर ऑंखें नम हुईं और इत्तेफ़ाक से घर पर अकेला होने के नाते मैंने उनको बह कर शुद्ध हो जाने से रोका नहीं – यह मृणाल सेन की पहली हिंदी फ़िल्म ‘भुवन सोम’ देखते हुए हुआ। अभी कुछ दिन पहले मृणाल सेन ने जीवन के 95 वर्ष पूरे किये हैं (यह लेख 2018 में मृणाल सेन के निधन से कुछ ही पहले लिखा गया था) और तब से मेरी इच्छा उनकी दो फ़िल्मों “भुवन सोम” और “खंडहर” फिर से देखने की थी। 1968 में बनी “भुवन सोम” भारत के समानांतर सिनेमा आंदोलन की ध्वजवाहक मानी जाती है जिसके बारे में मैंने छात्र जीवन में अरविंद कुमार के सम्पादन में निकलने वाली प्रमुख फ़िल्म पत्रिका “माधुरी” में पढ़ा था – तब आज की तरह टीवी और इंटरनेट थे नहीं और भागलपुर जैसे बिहार के एक छोटे शहर में दिन में एक शो (वह भी मुश्किल से तीन चार दिन) में देखने के सिवा और कोई विकल्प नहीं था। यदि इम्तिहानों का समय हो तो फ़िल्म देखने की इजाजत मिल जाए इसकी भी संभावना खत्म। “भुवन सोम” का क्रेज हमारे मन में इसलिए भी ज्यादा था कि इस कहानी के लेखक का घर भागलपुर में हमारे स्कूल के पीछे था हाँलाकि बरसों पहले वे वहाँ से कोलकाता चले गए थे।

इस फ़िल्म के साथ बहुत सारे प्रथम जुड़े हुए थे- बतौर निर्देशक मृणाल सेन पहली बार हिंदी समाज के सामने उपस्थित हुए थे, उत्पल दत्त भले ही जाने माने बांग्ला थिएटर ऐक्टर माने जाते थे पर हिंदी सिनेमा के लिए प्रथम थे और ऐसे ही सुहासिनी मुले थीं। आज के महानायक अमिताभ बच्चन फ़िल्म में कहीं दीखते तो नहीं पर उनकी खनकती हुई आवाज़ से हिंदी समाज पहली बार रु ब रु हुआ।

फ़िल्म ऊपरी तौर पर एक रूखे सूखे सख्त मिजाज रेलवे अफ़सर भुवन सोम के नौकरी से मन बदलने के लिए शिकार के लिए गुजरात के आदिवासी इलाके में निकलने की कथा है पर दो तीन दिनों का यह शिकार एक निश्छल युवा स्त्री के साथ रहने पर उसकी आंतरिक दुनिया कैसे बदल देता है इसका कवित्वपूर्ण विवरण है…. अभिनय की ताज़गी और परिवेश का सौंदर्य तो फ़िल्म की ताकत हैं ही, के के महाजन का कैमरा और विजय राघव राव का संगीत जादू रचने में बराबर की भूमिका निभाते हैं। 50 साल से मेरे मन में शिकार मारने में असफल उत्पल दत्त(सोम साहब) को देख कर सुहासिनी मुले (गौरी) का खिलखिलाकर हँसना बसा हुआ था, आज फिर उस दृश्य को देखना मुझे किशोरावस्था में ले गया। फ़िल्म के अंत से पहले जब सोम साहब बन्दूक की गोलियों की गूँज से डरा हुआ पक्षी गौरी को सँभालने के लिए देने वापस गाँव आते हैं…. यह उनके शिकार के एडवेंचर का इकलौता हासिल और प्रमाण है और उसे अपने साथ ले जाते हुए अधरास्ते वे लौट आते हैं, बल्कि गौरी की पारदर्शी निश्छलता उन्हें खींच लाती है। एकदम नीरस और खड़ूस माने जाने वाले सोम साहब इस निश्छल स्त्री की सरलता के रस में इतने डूब जाते हैं कि उन्हें लगता है प्रकृति से एकाकार होकर रहने वाली वह पक्षी की परवरिश ज्यादा अच्छी तरह कर पाएगी, वे नहीं।

फ़िल्म बगैर बड़बोला हुए यह बड़े प्रभावी ढंग से रेखांकित करती है कि सहज साथ का अपरिभाषित असर होता है और इसकी दरकार हर किसी को होती है चाहे वह ऊपर से कितना रूखा सूखा क्यों न दिखता हो… अपनेपन के शुद्ध ताप में सोम साहब का पिघलना फ़िल्म का ऐसा क्षण है जो किसी की संवेदनाओं को छुए बिना नहीं गुजर सकता। आज इन पलों से एक बार गुजरा, दो बार …तीन बार…चार बार …और हर बार भावविभोर होकर खुद अपने जल से ही भीगता रहा।

बैलगाड़ी पर बिठा कर जो गाड़ीवान(सींगदाना) सोम साहब को शिकार के लिए ले जाता है उसका स्वनिर्मित शैली में ‘चाहे कोई मुझे जंगली कहे’ गाते गाते भैंसे से आमना सामना हो जाने वाला प्रसंग बहुत बढ़िया बन पड़ा है… और जिस भैंसे से डर कर गाड़ीवान और शिकार को निकली बंदूकधारी सवारी जान बचाते फिरते हैं आराम से उसको पकड़ कर पीठ पर बैठ जाने वाली गौरी स्त्री सशक्तिकरण का सार्थक प्रतीक है। इसी तरह नदी का रास्ता बताने के लिए एक गाँववासी को पैसे पकड़ाने की कोशिश गाँव और शहर के बीच की भावनात्मक खाई को असरदार ढंग से रेखांकित करती है।

मृणाल दा हमारी सांस्कृतिक पहचान के शिखर पुरुष थे, उत्पल दत्त भी अब हमारे बीच नहीं हैं पर सुहासिनी मुले हिंदी और मराठी सिनेमा में अब भी सक्रिय हैं…जिज्ञासा हुई जानने की कि अब वे कैसी दिखती हैं,मालूम हुआ कुछ वर्ष पहले उन्होंने एक परमाणु वैज्ञानिक से शादी की है। वे निजी जीवन और सांस्कृतिक जीवन में और ऊँचाइयाँ छुएँ – पर हम तो भुवन सोम की गौरी की खनखनाती हुई हँसी कभी नहीं भूलेंगे।

NDFF Desk: ये जानना भी दिलचस्प है कि पटना में एक मराठीभाषी परिवार में जन्मीं सुहासिनी मुले ने 1965 में पीयर्स साबुन के लिए मॉडलिंग की थी, जिसे देखने के बाद मृणाल सेन ने उन्हे भुवन शोम में कास्ट किया। हालांकि इस फिल्म के बाद सुहासिनी मुले ने फिल्मों में करियर बनाने की बजाय उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाना चुना। कनाडा में उन्होने कृषि तकनीक के साथ केमिस्ट्री और माइक्रोबायलॉजी में विशेष अध्य़यन किया और फिर मास कम्युनिकेशन की डिग्री भी हासिल की। भारत लौटने के बाद उन्होने सत्यजित राय के साथ फिल्म जन अरण्य में और मृणाल सेन के साथ मृगया में बतौर सहायक निर्देशक काम किया। उन्होने 60 से अधिक डॉक्यूमेंट्री फिल्में भी बनाईं, जिनमें से चार के लिए उन्हे राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले।

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