हमारे समय की ‘झीनी बीनी चदरिया’
एक गंभीर सिनेमा अपने समय और उसकी स्मृतियों को भी अंकित करता है और यही सिनेमा की सबसे बड़ी ताकत है। फिल्मकार रितेश शर्मा की फिल्म ‘झीनी बीनी चदरिया’ (The Brittle Thread) हमारे मौजूदा का एक दस्तावेज है.. जिससे हिंदीपट्टी की एक बहुत बड़ी आबादी सहज ही आत्मसात करेगी। ‘झीनी बीनी चदरिया’ का वर्ल्ड प्रीमियर 2021 में 34वें टोक्यो इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में हुआ था, और इसका भारतीय प्रीमियर 2022 में प्रतिष्ठित केरल इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल (IFFK) में हुआ था। इसी साल इस फिल्म ने न्यूयॉर्क इंडियन फिल्म फेस्टिवल में ‘बेस्ट डेब्यू फीचर फिल्म’ का खिताब जीता। इसका प्रदर्शन यूके एशियन फिल्म फेस्टिवल, कोलकाता पीपल्स फिल्म फेस्टिवल और हैबिटेट इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भी हुआ। इंडियन फिल्म फेस्टिवल ऑफ मेलबर्न में इसका ऑस्ट्रेलियाई प्रीमियर हुआ था। साल 2022 में ही धर्मशाला अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में, रितेश शर्मा की ‘झीनी बीनी चदरिया’ (द ब्रिटल थ्रेड) उन दो फिल्मों में से एक थी, जिसकी दर्शकों की भीड़ और भारी मांग की वजह से दोबारा स्क्रीनिंग करनी पड़ी थी (दूसरी फिल्म थी पाकिस्तान की ‘जॉयलैंड’)। इस फिल्म के निर्देशक रितेश शर्मा के शब्दों में फिल्म ‘झीनी बीनी चदरिया’ को बनाना सात वर्षों की एक यात्रा रही है…। हम यहां इस फिल्म की एक संक्षिप्त समीक्षात्मक टिप्पणी प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसे जे सुशील ने लिखा है। जे सुशील एक लेखक-पत्रकार हैं। बीबीसी में काम कर चुके हैं। उनकी पुस्तक ‘जेएनयू अनंत जेएनयू कथा अनंता’ काफी सराही गई है और लोकप्रिय रही है। फिल्म ‘झीनी बीनी चदरिया’ के बारे में उन्होने दिसंबर में अपने फेसबुक अकाउंट पर एक पोस्ट लिखा था, जिसे लेख के तौर पर साभार प्रकाशित किया जा रहा है।
झीनी बीनी चदरिया…
एक फिल्म के बारे में.
मुझे अभी याद नहीं है कि ये फिल्म कहां से मेरे इनबॉक्स में आई थी लेकिन एक परिचित ने आग्रह किया था कि आप यह फिल्म देखें. मैं इग्नोर कर रहा था लेकिन कल देर रात फिल्म देखनी शुरू की और अभी चौबीस घंटे बीतने के बाद भी उस फिल्म से उबर नहीं पाया हूं.
बनारस की पृष्ठभूमि में बनी यह फिल्म ‘झीनी बीनी चदरिया’ अभी शायद रिलीज नहीं हुई है और फेस्टिवल सर्किट में घूम रही है. कहने को तो फिल्म में दो समानांतर कहानियां हैं लेकिन असल में यह फिल्म जिस पृष्ठभूमि को लेकर चल रही है वो इसकी तीसरी कहानी है. दो मूल कहानियां एक दूसरे से नहीं भिड़ती पर फिल्म की पृष्ठभूमि दोनों को किसी एक बिंदु पर जोड़ देती है जैसा कि हमने ‘लाइफ इन ए मेट्रो’ जैसी फिल्मों में देखा है.
जिस बिंदु पर दोनों कहानियां एक दूसरे को छूती है वो एक असाधारण सा लगने वाला सुंदर शॉट है जहां दोनों कहानियों के मुख्य पात्र अपनी अपनी दुपहिया वाहनों से एक दूसरे को क्रास कर रहे हैं. कोई क्लोज अप नहीं, कोई फोकस नहीं बस एक वाहन लहराता है और दूसरे से टकराने से बचता हुआ आगे बढ़ जाता है.
फिल्म के कई शॉट्स सुंदर बन पड़े हैं और वो ‘गमक घर’ की तरह ही कहानी को आगे बढ़ाने वाले हैं. एक मुसलमान बुनकर, एक यहूदी टूरिस्ट और बदलते हुए बनारस की आवाज़ों के बीच पहली कहानी मंथर गति से चलती है. कहानी के पात्र एंटी हीरो जैसे चरित्र हैं. जो हमारे आसपास बिखरे हुए हैं. पात्रों के बीच में बनारस धीरे धीरे फैलता और अंत तक आते आते पूरी तरह पसरता है. कभी कभी लगता है कि फिल्म की बजाय कोई डॉक्यू-ड्रामा देखी जा रही है. इस बात ने मुझे कई बार इरिटेट किया फिल्म देखते हुए लेकिन शायद डायरेक्टर ने यह सोच समझ कर किया था.
मुस्लिम बुनकर के रूप में मुज़फ्फर खान ने सुंदर अदाकारी है. वो आने वाले समय में उस कमी को पूरा करेंगे जो नवाजुद्दीन सिद्दीकी के स्टार बन जाने और इरफान के नहीं रहने से बनी है. जमीन से जुड़े चरित्र करने वाला अभिनेता जो हमें अपने बीच से उठ कर पर्दे पर गया हुआ लगता है. उनकी आंखें बोलती हैं और उनके पास रेंज है जिसमें वो अपने शरीर का, हाथों का बहुत सोच समझ कर इस्तेमाल करते हैं.
फिल्म में एक पुतले के साथ मुज़फ्फर का एक सीन लंबे समय तक याद रखा जाएगा. इसके अलावा कई और दृश्यों में मुज़फ्फर ने अद्भुत काम किया है लेकिन कैमरा उन पर फोकस्ड नहीं हैं तो हमें वो दृश्य याद नहीं रहते. यह डायरेक्टर की अपनी फिल्ममेकिंग का स्टाइल हो सकता है लेकिन एक दृश्य में जहां मुजफ्फर का चरित्र अपनी आपबीती बता रहा है और उसके पास यहूदी लड़की को समझाने के लिए कोई भाषा नहीं है उस दृश्य में कैमरा अभिनेता के साथ न्याय नहीं करता. मैंने वह दृश्य दो तीन बार देखा. वहां कहीं कुछ ऐसा है जहां अगर हम अभिनेता के और निकट होते तो रो पड़ते……
इसे डायरेक्टर की कमी कहना उचित नहीं होगा. ये मेरी अपनी राय है.
दूसरी कहानी समानांतर चलती है एक नाचने वाली लड़की और उसके प्रेमी की जिसमें लडकी का चरित्र आज़ाद, रिएलिस्टिक और जटिल है. चूंकि उसका पेशा शरीर से जुड़ा है तो कैमरे का फोकस उसके चेहरे पर न होकर शरीर पर होना उचित है लेकिन उसका प्रेमी भी कहीं बनारस की पृष्ठभूमि का हिस्सा लगता है. एक प्रॉप की तरह. उसका स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित नहीं होता. यह डाक्यू ड्रामा स्टाइल हो सकता है फिल्ममेकिंग का.
तीसरी बात जो मुझे बहुत अच्छी लगी वो बदलते हुए आज के बनारस को दिखाने के लिए किया गया ऑडियो का उपयोग. फिल्म कहीं भी बनारस की गंगा आरती, सांड, पान, क्लीशे बन चुका मणिकर्णिका जैसी और अन्य टूरिस्टी चीज़ों में नहीं फंसती. वो माइक पर हो रही घोषणाओं, निर्माण कार्य और गली कूचों के जरिए बनारस को बनाए रखती है और एक ऐसी चादर बीनती है जिसके पार हम धुंधला सा बनारस देख पाते हैं.
यह एक सुंदर फिल्म है. यह कहां रिलीज होगी और कैसे यह मुझे नहीं पता लेकिन कह सकता हूं कि मुज़फ्फर खान बहुत आगे जाएंगे अपनी एक्टिंग की रेंज में. मेरी उनसे बस एक मुलाकात है जिसमें उन्होंने एक कविता सुनाई थी ‘चेतना पारीक कैसी हो’……तब मुझे उनकी एक्टिंग क्षमताओं का अंदाजा़ नहीं था. फिल्म में मेघा माथुर
ऐसी फिल्में बनती रहनी चाहिए. मनुष्यों की ऐसी कहानियां जो हीरोइक नहीं होती उन्हें बनाया जाना चाहिए. एनिमल, पठान, जवान, पुष्पा के साथ साथ ज़रूरत है कि शादाब, रानी, एडा की कहानियां भी हम सुनें, उन्हें देखें और थोड़े से और मनुष्य हो जाएं.
नोट- यह पोस्ट लिखते हुए फिल्म के बारे में गूगल किया तो पता चला कि इस फिल्म को पिछले साल न्यूयॉर्क इंडियन फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट डेब्यू फिल्म का अवार्ड मिला है. साथ ही यह कई फिल्म फेस्टिवल में भी दिखाई गई है.