साला ये दुःख काहे ख़तम नहीं होता है… : मसान के 5 साल
नीरज घेवान की और लोकप्रिय संदर्भ में कहें तो विकी कौशल की मसान को रिलीज़ हुए 5 साल हो चुके हैं। उसी साल, उसी महीने एक हफ्ता पहले बजरंगी भाईजान रिलीज़ हुई थी और दो हफ्ते पहले बाहुबली। फिल्म फेस्टिवल्स से धूमकेतु की तरह उभरी मसान ने बॉक्स ऑफिस पर भी अपना जलवा दिखाया था। दिग्गज फिल्म फेस्टिवल्स में झंडा गाड़ने के बावजूद मसान तमाम फेस्टिवल फिल्म्स से बहुत अलग थी। कहानी, शैली, विजुअल ट्रीटमेंट में कहीं कोई सिनेमाई क्लिष्टता नहीं बोझिलता नहीं… फिल्म अपने मज़बूत कथ्य के साथ सामाजिक यथार्थ से निकाल कर क्लास, कास्ट, करप्शन के प्रतीक दिखाती चलती है लेकिन बगैर किसी आडंबर या सोशल कन्फ्लिक्ट के… सरल प्रवाह , सरल संवेदनाओं के साथ। पढ़िए 5 साल पहले अमिताभ श्रीवास्तव की लिखी फिल्म की समीक्षा, जिसमें उतनी ही सरलता से इस फिल्म की खूबियों को बताया गया है। फिल्म 24 जुलाई को रिलीज़ हुई थी, ये समीक्षा 26 जुलाई 2015 को लिखी गई थी।
“साला ये दुख काहे खतम नहीं होता है बे…” मसान के शोक संतप्त दीपक ( विक्की कौशल ने बहुत ग़ज़ब काम किया है ) के इस संवाद को सुनकर गले में कुछ अटकने सा लगता है
दो समान्तर छवियाँ कौंध सी जाती हैं –
एक तो निराला की कविता -क्या कहूँ आज जो नहीं कही , दुःख ही जीवन की कथा रही
दूसरा बिमल रॉय की देवदास का वो सीन जब नशे में डूबा बेसुध सा देवदास कहता है- ये रास्ता क्या कभी ख़तम नहीं होगा ?
फिल्म बेजोड़ है . अपने असर में बहुत देर तक और बहुत दूर तक जकड़े रहती है .
निम्न वर्गीय प्रसंग है मसान . आर्थिक पैमानों की भाषा में कहें तो लोअर मिडिल क्लास के पात्रों की कहानी . बनारस जैसे अति प्राचीन शहर में भी हाशिये पर रहने वाले लोग।
रांड सांड सीढ़ी सन्यासी वाला बनारस नहीं है यहाँ.
घाट तो हैं मगर अस्सी नहीं , जलती चिताओं वाला हरिश्चंद्र घाट है जहाँ डोम राजा है जिसके बारे में कहते हैं कि बनारस में दो ही तो राजा हैं – एक काशी नरेश और दूसरे डोम राजा
सेक्स, गांजा , विदेशी , बम बम भोले नहीं है, ठंडाई नहीं , और तो और ग्लैमरस गंगा आरती भी नहीं है
एक मासूम सी कस्बाई अंतर्जातीय प्रेम कथा दुष्यंत की ग़ज़ल , चकबस्त और निदा फ़ाज़ली के ज़िक्र से होते हुए ( हिंदी सिनेमा में कविता के सन्दर्भ डालने के ये सारे संयोग भी दुर्लभ हैं, निर्देशक और पटकथा लेखक इस दुस्साहस के लिए अलग से बधाई के पात्र हैं) किसी सुखद अंजाम तक पहुँचती सी लगती है कि अचानक दुःख अपने निर्मम और विकराल रूप में कहानी के पात्रों को और उनके साथ बह रहे दर्शकों को धर दबोचता है .तमाम शवों की निर्लिप्त भाव से कपाल क्रिया करने वाला दीपक पाता है कि जिस अनजान शव की अंत्येष्टि के लिए उसके भाई बंधु उसे बुला रहे हैं वो उसकी प्रेमिका शालू का है.
उधर एक लड़की है जो अपनी माँ की मौत के लिए बचपन से ही अपने पिता से नाराज़ रही है . बाप से उसका अबोला चलता है और घर के बाहर अपने दोस्त से होटल में छुप कर शारीरिक सम्बन्ध बनाने की एक घटना से उसकी ज़िन्दगी बदल जाती है.
होटल में पुलिस की रेड, प्रेमी की आत्महत्या , पुलिस वाले का ब्लैकमेल, पिता की बेचारगी और इस सबके बीच उसकी अपनी ज़िन्दगी में उतर आया सूनापन- ऋचा चड्ढा ने सारे शेड्स बहुत परिपक्वता के साथ दर्शाये हैं. गैंग्स ऑफ़ वासेपुर के बाद ये उनकी दूसरी यादगार भूमिका है , हालांकि फुकरे के सोनू पंजाबन टाइप किरदार में भी उन्होंने बढ़िया काम किया था.
संजय मिश्रा के बारे में जो लिखे सो थोड़ा . लगातार चौंकाते चले जा रहे हैं , पिक्चर दर पिक्चर अपने सधे मंजे अभिनय से. एक पिता की बेबसी , लाचारगी , अपराधबोध , मौजूदा दौर में अपने अनफिट होने का अहसास – हर भाव बोल कर और उससे भी ज़्यादा चुप रहकर क्या खूब जताया है.
सिनेमा का यही मज़ा है और यही विस्मय और विडम्बना भी की एक छोर पर बाहुबली और बजरंगी भाईजान हैं तो दूसरी तरफ मसान .