संतोष, ऑल वी इमैजिन…, ऑस्कर और गोल्डन ग्लोब के बरक्स भारतीय सिनेमा
‘ऑल वी इमैजिन एज़ लाइट’ को कान में दुनिया की दूसरी सर्वश्रेष्ठ फिल्म का सम्मान मिलने के बावजूद भारत में उसे ऑस्कर की आधिकारिक प्रविष्टि के योग्य नहीं माना गया, लेकिन ब्रिटिश प्रोड्यूसर और ब्रिटिश-भारतीय डायरेक्टर संध्या सूरी की हिंदी फिल्म ‘संतोष’ को ब्रिटेन ने ऑस्कर के लिए अपनी आधिकारिक प्रविष्टि बनाया। जब 17 दिसंबर को बेस्ट इंटरनेशनल फीचर फिल्म कैटेगरी में शॉर्टलिस्टेड आखिरी 15 फिल्मों की लिस्ट जारी हुई, उसमें ‘लापता लेडीज़’ का नाम लापता था, लेकिन संध्या सूरी की फिल्म ‘संतोष’ का नाम मौजूद था। कान फिल्म फेस्टिवल के दौरान चर्चा में आई ‘संतोष ‘को लेकर जिज्ञासाएं चरम पर हैं। वरिष्ठ पत्रकार और सिने-समीक्षक और लेखक अजित राय संध्या सूरी की फिल्म ‘संतोष’ के बारे में विस्तार से जानकारी दे रहे हैं। अजित राय दुनियाभर में हो रहे प्रतिष्ठित फिल्म फेस्टिवल्स को कवर करते रहे हैं और समसामयिक विश्व सिनेमा पर निरंतर लिखते रहे हैं। बीत रहे साल के दौरान तमाम इंटरनेशनल फेस्टिवल्स में उन्होने संतोष के सफर को देखा है.. फिल्म के कंटेंट और उसके सफर पर उनकी ये दिलचस्प रिपोर्ट।
बैकग्राउंडर: 2024 के कान फिल्म फेस्टिवल में All We Imagine As Light के मिले ग्रां प्री अवॉर्ड के अलावा दो और भारतीयों के काम को बड़ी पहचान और तारीफ मिली थी। दोनों की ही फिल्मों को कान फिल्म फेस्टिवल के #uncertainregard अनसर्टेन रिगार्ड में चुना गया था। एक थी- अनुसूया सेनगुप्ता अभिनीत Anasuya Sengupta और बुल्गेरियाई डायरेक्टर Konstantin Bojanov द्वारा निर्देशित फिल्म The Shameless … जिसके लिए अनुसूया को अनसर्टेन रिगार्ड में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का अवॉर्ड भी मिला। और दूसरी फिल्म थी- भारतीय मूल की ब्रिटिश राइटर-डायरेक्टर संध्या सूरी की संतोष #Santosh . यहां ये बताना ज़रुरी है कि कान फिल्म फेस्टिवल का अनसर्टेन रिगार्ड खंड प्रतियोगिता खंड से अलग एक सेगमेंट है। इसे 1998 में युवा प्रतिभाओं को पहचान देने और प्रोत्साहित करने के मकसद से शुरु किया गया था, ताकि सिनेमा में नए और साहसिक कामों को बढ़ावा दिया जा सके। इस खंड में चुनी गई सर्वश्रेष्ठ फिल्म को फ्रांस में डिस्ट्रीब्यूट और प्रदर्शित करने के लिए ग्रांट प्रदान किया जाता है।
नए साल के आने के साथ ही तमाम नई फिल्मों और फिल्मों से जुड़े आयोजनों-अवसरों के बीच 5 जनवरी और 17 जनवरी का बेसब्री से इंतज़ार होगा, जो दो हिंदी फिल्म ऑल वी इमैजिन एज़ लाइट और संतोष के लिए अहम है। भारतीय फिल्मप्रेमियों के लिए एक अतिरिक्त दिलचस्पी की वजह है हिंदी फिल्म ‘संतोष’, जो ब्रिटेन की ओर से बेस्ट इंटरनेशनल फीचर फिल्म की कैटेगरी में आखिरी 15 फिल्मों में पहले ही जगह बना चुकी है। यह भी अपने आप में एक चमत्कार से कम नहीं कि संध्या सूरी की हिंदी फिल्म ‘संतोष’ को ब्रिटेन ने ऑस्कर में बेस्ट इंटरनेशनल फीचर फिल्म की कैटेगरी के लिए बतौर आधिकारिक प्रविष्टि भेजा और यह फिल्म 85 देशों की फिल्मों के साथ प्रतियोगिता करती हुई दूसरे दौर की 15 फिल्मों में शामिल हो गई। वहीं भारत की ओर से आधिकारिक प्रविष्टि बनी किरण राव की फिल्म ‘लापता लेडीज’ पहले दौर में ही ऑस्कर अवॉर्ड की प्रतियोगिता से बाहर हो गई। ब्रिटेन से किसी हिंदी फिल्म का बेस्ट इंटरनेशनल फिल्म की श्रेणी में ऑस्कर अवार्ड के लिए भेजा जाना विश्व सिनेमा के इतिहास की संभवतः पहली घटना है। हालांकि ब्रिटेन की ओर से 2017 में ब्रिटिश-पाकिस्तानी सरमद मसूद की उर्दू फिल्म My Pure Land को ब्रिटेन ने इस कैटेगरी में बतौर आधिकारिक प्रविष्टि भेजा था। यूके में ऑस्कर की इस कैटेगरी के लिए फिल्म का चुनाव BAFTA (British Academy of Film & Television Arts) करती है।
‘संतोष’ संध्या सूरी की एक तरह से पहली फीचर फिल्म है। इसके पहले वे कुछ शॉर्ट फिल्म और डॉक्यूमेंट्री बना चुकी हैं। इस फिल्म को लिखा भी संध्या सूरी ने ही है। यह सच है कि संध्या सूरी का जन्म ब्रिटेन में हुआ है और वे ब्रिटिश नागरिक हैं। इस फिल्म के निर्माता भी मुख्यतः ब्रिटिश हैं, इसलिए तकनीकी रूप से ‘संतोष’ एक ब्रिटिश फिल्म है पर भाषा, कहानी, अभिनेता, माहौल, लोकेल, शूटिंग और दूसरे पक्षों के लिहाज से यह एक खालिस भारतीय फिल्म है। इसी साल 77 वें कान फिल्म समारोह के अनसर्टेन रिगार्ड खंड में फिल्म का शानदार प्रीमियर हुआ था। तब से लेकर आजतक यह फिल्म मुंबई फिल्म फेस्टिवल, गोवा फिल्म फेस्टिवल, रेड सी अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल, जेद्दा (सऊदी अरब) सहित दुनिया भर के फिल्म समारोहों में दिखाई जा रही है। संध्या सूरी ने इस फिल्म पर तब काम शुरू किया जब 2016 में उन्हें प्रतिष्ठित सनडांस स्क्रीन लैब परियोजना में शामिल किया गया।
‘संतोष’ पूरी तरह से एक स्त्रीवादी फिल्म है जिसमें शहाना गोस्वामी (हालिया फिल्म डिस्पैच) और सुनीता रजवार (पंचायत फेम) ने मुख्य भूमिकाएं निभाई हैं। इससे पहले कि हम फिल्म पर बात करें इस फिल्म के छायाकार (डीओपी) लेनर्ट हिल्लेज की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने बहुत उम्दा काम किया है। उन्होंने कैमरे में एक एक दृश्य का ऐसा यथार्थवादी चित्रण किया है कि वे खुद बहुत कुछ कहते दिखते हैं। कुएं से दलित लड़की की लाश निकालना, मेरठ के मटमैले इलाके में पुलिस की रेड, शव गृह से लाश को पोस्टमॉर्टम के लिए ले जाना महिला ग्राम प्रधान के घर पुलिस की तहकीकात या ड्यूटी के दौरान मक्के के खेत में सबसे छुपकर संतोष का खुले में मजबूरन पेशाब करना।
‘संतोष’ की कहानी
संतोष बाल्यान पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के एक गांव की साधारण लड़की है जिसका पति पुलिस का सिपाही है। चूंकि उसने प्रेम विवाह किया है इसलिए शादी के बाद वह संतोष सैनी हो गई है। एक दिन अचानक उसे खबर मिलती है कि उसका पति ड्यूटी पर मारा गया है। उसके ससुराल वाले उसे अपने साथ रखने को तैयार नहीं है। संतोष के मायके के लोग उसे विदा कराने आए हैं। फिल्म यहीं से शुरू होती है। लेकिन मुश्किल यह है कि वह यहां भी अधिक समय तक नहीं रह सकती। वह प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करना चाहती है। वह पुलिस प्रशासन को अर्जी देती है कि उसके पति के सरकारी आवास में उसे रहने की अनुमति दी जाय। पुलिस अधिकारी कहता है कि यह संभव नहीं है पर उसे अपने मृत पति की जगह सिपाही की नौकरी मिल सकती है। इस तरह उसे पुलिस लाइन में एक सरकारी आवास मिल सकता है। वह पुलिस में भर्ती हो जाती है।
अब यहां से फिल्म एक ऐसी अंतहीन दिशा में मुड़ती है जिसमें भ्रष्टाचार, जाट- दलित और हिन्दू मुस्लिम तनाव, मर्दवादी पुलिस व्यवस्था में एक महिला पुलिस की बेबसी आदि है। तभी पता चलता है कि किसी ने एक किशोर दलित लड़की का बलातकार करके हत्या कर दी है और उसकी लाश दलित बस्ती के उस कुएं में फेंक दी है जहां से वे लोग पानी लेते हैं। पुलिस प्रशासन एक रहस्यमय महिला पुलिस इंस्पेक्टर मिसेज शर्मा और संतोष को उस दलित लड़की की हत्या की जांच का जिम्मा सौंपती है। मिसेज शर्मा का शक उस मुस्लिम लड़के पर जाता है जिससे उस लड़की का संपर्क था और फोन पर मैसेज का आदान-प्रदान था। वह लड़का उस दिन से डरकर भाग गया है। मिसेज शर्मा पता लगाकर संतोष के साथ मेरठ के एक मटमैले इलाके के होटल में छापा मारकर उस निर्दोष मुस्लिम लड़के को पकड़ लेती है जो उस समय जूठे बर्तन मांज रहा था। उसे एक वीरान खंडहर में ले आकर मुजफ्फरनगर और मेरठ की पुलिस टार्चर करती है और जुर्म कबूलने को कहती है। उधर पुलिस प्रशासन प्रेस कॉन्फ्रेंस कर दावा करता है कि अपराधी पकड़ा गया है। इसी बीच पुलिस टॉर्चर के दौरान उस निर्दोष मुस्लिम लड़के की मौत हो जाती है। इस पूरी प्रक्रिया में संतोष केवल मूक द्रष्टा बनकर रह जाती है।
‘संतोष’ के हाई प्वाइंट्स
पोस्टमॉर्टम के बाद उस दलित लड़की के कानों की बालियां देने संतोष जब उसके घर जाती है तो दर्शकों का दिल दहल जाता है। उसके अशक्त मां-बाप का दुःख और मुस्लिम लड़के के मां-बाप की पीड़ा सिनेमा के पर्दे से निकलकर दर्शकों के दिलों पर छा जाती है। फिल्म में न तो प्रत्यक्ष हिंसा है सिवाय टार्चर वाले दृश्य के जिसमें एक पुलिसकर्मी नीचे गिरे हुए मुस्लिम युवक पर खड़े होकर पेशाब करता है न ही सीधे-सीधे राजनीतिक टिप्पणी की गई है। पूरी फिल्म मानवीय संवेदनाओं की धीमी आंच पर पकती है जिसमें जाति धर्म और समुदाय के सवाल बहुत पीछे छूट जाते हैं।
संतोष को पता है कि उस दलित लड़की से बलात्कार और हत्या का असली मुजरिम जाट महिला ग्राम प्रधान का पति है। संतोष जब आखिरी बार प्रधान के घर जाती है तो उसकी छोटी बच्ची खेल-खेल में उसे बता देती है कि हत्या वाले दिन वह दलित लड़की यहां आई थी। तभी प्रधान का पति आ जाता है और संतोष को यहां आने के लिए धमकाने लगता है। एक दृश्य में आधी रात को महिला पुलिस क्वार्टर के बरामदे में मिसेज शर्मा और संतोष की मुलाकात है। उन दोनो का संवाद पुलिस व्यवस्था के साथ-साथ जाति व्यवस्था की भी पोल खोलने के लिए काफी है।
संतोष फैसला करती है कि अब उसे पुलिस कॉलोनी में नहीं रहना हैं। वह अपनी पुलिस की कड़क वर्दी धुलवाकर बिस्तर पर रख देती है। वह लड़कियों का सामान्य रंगीन सलवार कमीज़ पहन कर ट्रेन से अपने घर लौट रहीं है।
संपादकीय टिप्पणी– संध्या सूरी की फिल्म संतोष की न सिर्फ भाषा हिंदी है, बल्क पूरी तरह आज के भारतीय समाज और उसके समसामयिक विमर्श पर आधारित है। और इन सबके बावजूद उसे सर्वश्रेष्ठ ब्रिटिश सिनेमा के तौर पर ऑस्कर अवॉर्ड के लिए प्रविष्टि बनने की राह में कोई अड़चन नहीं आई। शायद ऐसा इसलिए कि वहां पैमाना बेहतरीन सिनेमा चुनना था न कि देश का सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व करना। ब्रिटेन ने इससे पहले ऑस्कर के लिए जिन फिल्मों को आधिकारिक प्रविष्टि बनाया है, उनमें फ़ारसी, उर्दू, पश्तो, जर्मन, रूसी, पोलिश, फ्रेंच, स्वाहिली, तुर्की जैसी भाषाओं की फिल्में हैं, क्योंकि तकनीकी रुप से इस कैटेगरी के लिए फिल्म का गैरअंग्रेजी भाषा की होना ज़रुरी है। इस साल 2024 में ब्रिटेन की फिल्म ‘द ज़ोन ऑफ इंटेरेस्ट’ को ही बेस्ट इंटरनेशनल फीचर फिल्म का ऑस्कर मिला, और वो फिल्म जर्मन, पोलिश, यिदिश में थी। इसके बरक्स भारत की बात करें तो हम अक्सर संस्कृतिवाद, राष्ट्रवाद जैसी किसी बैगेज के असर में रहते लगते हैं। ‘ऑल वी इमैजिन एज़ लाइट’ को हम ये कहकर नहीं चुनते कि उसमें इंडियननेस नहीं है और वो फॉरेन फिल्म जैसी लगती है। ऑस्कर प्रविष्टि चुनने वाली संस्था फिल्म फेडेरेशनन ऑफ इंडिया ने ऐसा ही तर्क देते हुए ‘लापता लेडीज़’ को बेहतर प्रविष्टि माना। बहरहाल, अब हमें 17 जनवरी (5 जनवरी भी) का इंतज़ार रहेगा कि ऑस्कर में ‘ऑल वी इमैजिन…’ के लिए मौका चूकने के बाद शायद ‘संतोष’ के ज़रिए एक भारतीय मूल की फिल्मकार की भारतीय समाज पर आधारित हिंदी फिल्म को एक बड़ी पहचान मिले…। भारतीय फिल्मकारों के लिए ये इस लिहाज़ से काफी प्रेरक होगा कि वो महसूस कर पाएंगे कि इसी ज़मीन पर, इसी समाज में हमारे चारों ओर बतौर फिल्म कहने-व्यक्त करने के लिए कितना कुछ है। 17 जनवरी 2025 को ऑस्कर अवॉर्ड्स के लिए फाइनल नॉमिनेशन्स का ऐलान होगा।
ऑस्कर और गोल्डन ग्लोब– हालांकि ये टीस हमेशा रहेगी कि भारत ने ऑस्कर हासिल करने का एक बेहतरीन मौका गंवा दिया। ऐसा इसलिए क्योंकि ये मामूली बात नहीं कि जिस फिल्म को पूरी दुनिया सराह रही है और जिसे कान फिल्म फेस्टिवल में दुनिया की दूसरी सर्वश्रेष्ठ फिल्म (ग्रां प्री विनर) माना गया, उसे हमने यूं हीं किनारे लगा दिया। यहां ये भी नहीं भूलना चाहिए कि हाल के सालों में इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल्स में सराही गई फिल्मों को ऑस्कर में तवज्जो मिलती रही है। ब्रिटेन की जिस ‘द ज़ोन ऑफ इंटरेस्ट’ को 2023 का बेस्ट इंटरनेशनल फीचर फिल्म ऑस्कर मिला, उसने भी 2023 के कान फिल्म फेस्टिवल में ‘ऑल वी इमैजिन…’ की तरह ग्रां प्री जीता था और साथ ही इस कैटेगरी के परे ऑस्कर में बेस्ट पिक्चर की कैटेगरी में नामांकन भी हासिल किया था। ये भी नहीं भूलना चाहिए कि हॉलीवुड फॉरेन प्रेस एसोसिएशन की ओर से दिए जाने वाले गोल्डन ग्लोब अवॉर्ड्स के नतीजों का ऑस्कर अवॉर्ड्स पर खासा असर साफ दिखता है। 5 जनवरी 2025 को गोल्डन ग्लोब अवॉर्ड्स का ऐलान होना है और इसकी बेस्ट डायरेक्टर कैटेगरी में पायल कपाड़िया भी ‘ऑल वी इमैजिन ऐज़ लाइट’ के लिए नामांकित हैं जो एक भारतीय फिल्मकार के लिए एक बहुत बड़ी बात है।