‘आदमी और औरत’: तपन सिन्हा की नजर से
ये बंगाल के महान फिल्मकार तपन सिन्हा का जन्म शताब्दी वर्ष चल रहा है। अगर बांग्ला फिल्मकारों की मशहूर तिकड़ी की बजाय चौकड़ी की संज्ञा दी जाए तो राय, घटक और सेन के बाद चौथा और सबसे ज़रूरी नाम तपन सिन्हा का ही आता है। तपन सिन्हा की फिल्में सामाजिक यथार्थवाद, विविध विषयों, सशक्त चरित्र-चित्रण, बेहतरीन अभिनय और सबसे बढ़कर कहानी कहने के एक अलग अंदाज़ के लिए जानी जाती हैं। यहां उनकी ऐसी ही एक फिल्म ‘आदमी और औरत ‘पर एक आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं मनीष कुमार गुप्ता। खास बात ये है कि ये फिल्म बांग्ला में नहीं बल्कि मैथिली और भोजपुरी में है। ये जानना दिलचस्प है कि तपन सिन्हा की शिक्षा बिहार के भागलपुर और पटना में हुई थी। इस समीक्षात्मक आलेख के लेखक मनीष कुमार गुप्ता पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर है, माइक्रोसॉफ्ट में कार्यरत हैं और अमेरिका में सिएटल में रहते हैं। सिनेमा के अलावा हिन्दी साहित्य और कविताओं में विशेष रुचि है। कविताओं में रूचि के अलावा रचनात्मक दखल भी रखते हैं और कविता का एक YouTube चैनल भी है। गर्भनाल (डॉट कॉम) पत्रिका में कुछ रचनाएं प्रकाशित हैं। भारतीय सिनेमा की चुनिंदा और सार्थक फिल्मों पर पिछले कुछ समय से नियमित रूप से लिख रहे हैं। सिनेमा पर पर्दानशीं नाम के ब्लॉग पर भी लिखते रहे हैं।
लेखक हेलन केलर ने कहा था, “हालांकि ये दुनिया पीड़ाओं से भरी हुई है, पर पीड़ा से जूझ कर उससे उबरने की कथाएं भी भरपूर हैं” । मानवता के उदय से ये संघर्ष जारी है, और इन विजयों का मुख्य कारण है, मानव का एक दूसरे से जुड़ाव। अक्सर इसी प्रकार सहज रूप से अलग-अलग पृष्ठभूमियों और जीवन शैलियों के लोगों में आपसी जुड़ाव पैदा हुआ और सभ्यता आगे बढ़ती गई। अलगाव से ऊपर उठकर, आपसी अपनेपन की अनुभूति में ही मानवता का मूल छिपा है। वर्ष 1984-85 के आसपास प्रदर्शित हुई तपन सिन्हा की फ़िल्म “आदमी और औरत” इसी तरह के जुड़ाव की एक अनोखी कहानी है।
एक बाढ़ से जूझते गाँव में, बारिश भरे एक दिन में एक अजनबी आदमी और औरत, जिनके परस्पर जीवन अपने ही निजी संघर्षों से भरे हैं, अचानक मिल जाते हैं। इस तरह के मौके पर किस तरह इंसानी सहृदयता अपने सारे ऊपरी अलगाव और अनभिज्ञताओं को भूलकर एक दूसरे का साथ निभाने को प्रेरित करती है, यही इस कहानी का मूल सार है।
इसकी कहानी पर एक नज़र डालते हैं – बंसी एक बिगड़ैल किस्म का युवक है, जो ऊंचे जागीरदारों के साथ शिकार में जानवरों को खदेड़ने में मदद करता है, और बाकी वक़्त या तो लड़कियों को छेड़ता है, या फिर अवैध तरीके से जंगल के जानवरों का शिकार करता है। उसके परिचय में एक छोटे से वाक्य से “तो इतने बच्चे क्यूँ पैदा करते हो”, यह दिखाया गया है कि किस प्रकार उसे एक कौम से खासी परेशानी है।
वहीं बेहद ग़रीब तबके से सम्बद्ध एक औरत जो गर्भवती है उसे अपने गाँव से कुछ दूर वकीलगंज के अस्पताल में समय रहते पँहुचना है। ग़रीबी के चलते उसके पति को साहूकार से उधार लेकर उसके लिए बस की टिकट का इंतजाम करना पड़ता है , इसीलिए वो एक ही टिकट के पैसे जुगाड़ पाने के कारण पत्नी को अकेले भेज देता है। लेकिन बस न मिल पाने के कारण वह पहाड़ के रास्ते पैदल चल पड़ती है, और इसी सफ़र में बंसी से टकरा जाती है। बंसी यह समझकर की महिला गर्भवती है, उसे हर संभव प्रयास करके सफ़र पूरा करने में मदद करता है।
दोनों दर’असल ग़रीब हैं, लेकिन उनकी पृष्ठभूमि में और उनके तौर तरीकों में बहुत अंतर है, फिर भी नाजुक वक़्त पर आदमी , उस औरत की मदद करता है। रास्ते में समय काटने और औरत को जगाए रहने की गरज़ से हमें दोनों की निजी कहानी के बारे में पता चलता है। एक बड़े ही रोचक किस्से में बंसी एक फ़िल्म की शूटिंग में हिस्सा लेने की बात बताता है, जिसमें फ़िल्मकार ने अपने ऊपर ही तंज किया है, कि इस तरह की तथ्य परक फ़िल्में कौन देखता है जिसमें न नाचना, न गाना, न कोई मार-धाड़।
फ़िल्म में परिस्थितिवश दोनों को एक दूसरे का नाम पूछने का मौका नहीं मिलता और एक दूसरे को “ए आदमी” और ‘ए औरत” कहकर संबोधित करते हैं। यही बात इस फ़िल्म का सबसे रोचक पहलू है, और शायद सबसे मार्मिक भी। फ़िल्म के अंत में जब आदमी को औरत के पति का नाम पता चलता है “अनवर” और किस तरह एक साथ कई रंग उसके चेहरे पर आते हैं, वह दृश्य बेहद ही श्रेष्ठता के साथ निभाया गया है।
ये मात्र 55 मिनिट की एक फ़िल्म है। जिसे दूरदर्शन और मंडी हाउस के सौजन्य से बनी एक टेलीफ़िल्म के रूप में प्रस्तुत किया गया था। तपन सिन्हा अक्सर अपनी फ़िल्मों में बिंबों के माध्यम से इंसानी संबंधों को रूपक की तरह पेश करते थे। सत्यजीत राय, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन के साथ सबसे प्रभावशाली बंगाली फ़िल्मकारों की चौकड़ी बनाने वाले तपन सिन्हा ने यूं तो हिन्दी में कम फ़िल्में बनाई लेकिन उनकी कई फ़िल्मों का हिन्दी रूपांतरण अक्सर हुआ। हिन्दी में “एक डॉक्टर की मौत” उनकी यादगार फ़िल्मों में से एक है। यह फ़िल्म भी ऐसी ही बिंबों से भरी, एक कहानी है, जो ऊपरी तौर पर सीधी-साधी होकर भी अनेक जटिल सवाल हमारे सामने उठाती है। कहानी प्रफुल्ल राय और तपन सिन्हा ने मिलकर लिखी है।
फ़िल्म में मुख्य भूमिकाओं में हैं अमोल पालेकर और महुआ राय चौधरी। दोनों ने चोटी का अभिनय किया है। महुआ ने एक बीमार महिला के रूप में अपने काम से पूरा न्याय किया है। अमोल ने तो अपने पात्र के अंदरूनी विचारों की महीन बारीकियाँ बहुत ही सफ़ाई से निभाई हैं। एक मंजे हुए कलाकार की तरह अमोल पालेकर ने न सिर्फ फ़िल्म में औरत का बोझ उठाया , बल्कि इस कहानी का एक बड़ा दारोमदार उनके कंधों पर ही था , जो उन्होंने बहुत खूबसूरती से निभाया है।
फ़िल्म की भाषा मिश्रित मैथिली/भोजपुरी है। ग्राम्य जीवन और जंगल, नदियों का बेहद वास्तविक चित्रण भी इसमें देखने को मिलता है। ग्रामीण जीवन के कई दृश्य कैमरे में क़ैद किये गए हैं जिसमें गाँव की सुंदरता और साथ साथ वहाँ का वंचित जीवन दोनों दिखाई पड़ता है। इसके लिए सिनेमेटोग्राफर कमल नायक बधाई के पात्र हैं। इस फ़िल्म को 1985 में राष्ट्रीय एकता पर सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी दिया गया था। कहा जाता है कि सत्यजित राय ने इस फिल्म को देखकर कहा था कि यह तपन सिन्हा की सबसे उत्कृष्ट फिल्म है। बाद में, तपन ने इसे बांग्ला में “मानुष” नाम से फिर से बनाया था।
आजीविका और दुनिया के संघर्षों के चक्कर में डूबे इंसान के जीवन में, जहां आपसी टकराव परस्पर संबंधों पर हावी रहता है, वहाँ अक्सर मुसीबत के दौर में मानवीय भावनाएँ उम्मीद की किरण जगाती है। विपत्तियों के तूफ़ानों में ही अक्सर हमें बांटने वाली दीवारें ढह जाती हैं और यह सत्य प्रकट होता है कि इस ऊपरी भेदभाव के अंदर सभी के अंदर वही कोमल दिल धड़कता है। जो हाथ दूसरे पर अक्सर उठाए जाते हैं, वही विपत्तियों के दौर में एक दूसरे की मदद को आगे आकर, मांमुटावों की खाई को आत्मीयता की मिट्टी से भरने का कार्य करते हैं। हमें इस बात का फिर से एहसास कराते हुए कि , एकता में ही, आपसी कलह के बावजूद, हमारी शक्ति और सहनशीलता का निवास है।