दुनिया में ऐसा कहां सबका नसीब है… : पुण्य तिथि पर आनंद बक्शी की याद
हमारे फिल्मी गीतों में हमारे जीवनकाल की ध्वनि भी अंकित होती रहती है…। कुछ गीत जीवन के किसी वक्त की याद दिलाते हैं.. तो कुछ गीतों में हम अपने जीवन के तजुर्बों की झलक ढूंढ कर उन्हे दिल में बसा लेते हैं। गीत-संगीत के इस पक्ष के लिहाज़ गीतकार आनंद बख्शी निश्चित तौर पर आम लोगों के बीच सबसे लोकप्रिय गीतकार रहे हैं। आनंद बख्शी ने 7 दशकों तक फिल्मों के गाने लिखे और इस दौरान हर पैमाने पर मकबूलियत हासिल की। उनकी पुण्यतिथि (30 मार्च) पर उन्हे याद कर रहे हैं अजय कुमार शर्मा। बुलंदशहर में जन्मे और बरेली में शिक्षा प्राप्त किए अजय कुमार शर्मा ने भारतीय जनसंचार संस्थान,दिल्ली से हिंदी पत्रकारिता में डिप्लोमा किया और हिंदी की पहली वीडियो समाचार पत्रिका “कालचक्र ” में कार्य के बाद लंबे समय तक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में शोध संयोजन, पटकथा एवं निर्देशन सहयोग किया। चार दशकों से देश की प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में साहित्य, संस्कृति, नाटक, इतिहास, सिनेमा और सामाजिक विषयों पर वो निरंतर लेखन करते रहे हैं। पिछले दो वर्षों से सिनेमा पर साप्ताहिक कॉलम “बॉलीवुड के अनकहे किस्से” का नियमित प्रकाशन हो रहा है। वर्तमान में वो दिल्ली के साहित्य संस्थान में संपादन कार्य से जुड़े हैं।
सत्तर और अस्सी के दशक में आनंद बक्शी हिंदी सिनेमा के सबसे लोकप्रिय गीतकार थे। राजेश खन्ना से लेकर अमिताभ बच्चन तक उनके लिखे गाने परदे पर गुनगुना रहे होते। इनके अलावा भी उस समय की लगभग सभी हिट फिल्मों के गीत उनके द्वारा ही लिखे जा रहे थे। तब बॉक्स ऑफिस पर मनमोहन देसाई की तूती बोलती थी और उनकी सभी फिल्मों के गीत भी वही लिख रहे थे। लेकिन सफलता के इस मुकाम पर पहुंचने से पहले फौज की नौकरी छोड़कर उन्होंने बंबई (अब मुंबई) में एक लंबा संघर्ष किया। उनका जन्म 21 जुलाई 1930 को रावलपिंडी (अब पाकिस्तान) में हुआ था। मां की मृत्यु जब वे छह वर्ष के थे तभी हो गई थी। उनकी माँजी मित्रा (सुमित्रा) उन्हें प्यार से ‘नंद’ पुकारती थीं और पिता उन्हें प्यार से ‘अज़ीज़’ या ‘अज़ीज़ी’ और रिश्तेदार ‘नंदो’ कहते थे। बख़्शी परिवार चिट्टियाँ-हट्टियाँ, मोहल्ला कुतुबुद्दीन, रावलपिंडी में एक तीन मंज़िला घर में रहता था। इस घर को ‘दरोग़ा जी का घर’ या ‘दरोगा जी की कोठी’ के नाम से जाना जाता था। नंद का नाम रावलपिंडी के उर्दू मीडियम स्कूल और उसके बाद कैंब्रिज कॉलेज में लिखा दिया गया। कैंब्रिज कॉलेज में, जहाँ वो उर्दू मीडियम से पढ़ाई कर रहे थे उनका नाम आनंद प्रकाश था। हिंदी उन्होंने कभी नियमित रूप से ना लिखी और ना पढ़ी। उनके खानदान में सारे लोग पुलिस में थे या फौज में तो 1944 में वे रॉयल इंडियन नेवी में कराची बंदरगाह पर बॉय 1 के रूप में भर्ती हुए और 5 अप्रैल 1946 तक वहां रहे। इस बीच विभाजन के समय उनका परिवार 2 अक्टूबर 1947 को दिल्ली पहुंचा। 15 नवंबर 1947 से 1950 के बीच फौज में नौकरी करते हुए आनंद बक्शी ने पहली बार कविताएं लिखना शुरू किया। कविताओं के नीचे दस्तखत में उनका पूरा नाम होता आनंद प्रकाश बख्शी। 1956 मैं फौज की नौकरी छोड़ कर वे मुंबई गीतकार बनने के पक्के इरादे से पहुंचे। यह बंबई में किस्मत आजमाने की उनकी दूसरी कोशिश थी। उस समय उनके पास करीब 60 कविताओं का खजाना था। वे अकेले आए थे। उनकी पत्नी दिल्ली में ही थी ।
उनको पहली फिल्म जो मिली वह भगवान दादा द्वारा निर्देशित फिल्म थी जिसका टाइटल था “भला आदमी”। भगवान दादा उनके लिए वाकई में भला आदमी साबित हुए । उनकी एक यही फिल्म थी जिसके कारण वे बंबई में टिक सके और आगे का अपना संघर्ष जारी रख सकें। पहली फिल्म भला आदमी जिसे बक्शी साहब अपनी सबसे बड़ी फिल्म कहते थे के बारे में उन्होंने लिखा है कि संघर्ष के दिनों में एक बार वो अभिनेता भगवान दादा का रणजीत स्टूडियो में उनके ऑफ़िस में इंतज़ार कर रहे थे। उस ज़माने में भगवान दादा बहुत बड़े स्टार थे और वो पहली बार एक फ़िल्म निर्देशित कर रहे थे जिसका नाम था- ‘भला आदमी’। बृज मोहन इसके प्रोड्यूसर थे।
बक्शी जी ने ऑफ़िस के चपरासी से दोस्ती कर ली थी और इस तरह उन्हें पता चला कि भगवान दादा काफ़ी परेशान हैं क्योंकि गीतकार गाना लेकर सिटिंग पर नहीं आया है और भगवान दादा को गाना हर हालत में चाहिए। बक्शी साहब ने फ़ौरन मौक़े का फ़ायदा उठाया और सीधे भगवान दादा के कमरे में घुस गए। उन्होंने पूछा, “क्या चाहिए तुम्हें?” बक्शी जी ने कहा कि वो एक गीतकार हैं और काम की तलाश में हैं। भगवान दादा बोले, “ठीक है, देखते हैं कि तुम गाना लिख पाते हो या नहीं।” उन्होंने बक्शी साहब को फ़िल्म की कहानी सुनाई और उन्हें गाने लिखने के लिए पंद्रह दिन का वक़्त दिया। पंद्रह दिन के अंदर बक्शी जी ने चार गाने लिख डाले। भगवान दादा को चारों गाने पसंद आ गए और उन्होंने आनंद बक्शी को फ़िल्म के दूसरे गीतकार के रूप में साइन कर लिया। उन्हें उन चार गानों के लिए डेढ़ सौ रुपये मिले। पहला गाना था- ‘धरती के लाल, ना कर इतना मलाल, धरती तेरे लिए, तू धरती के लिए।’ ये गाना 9 नवंबर 1956 को रिकॉर्ड किया गया था। संगीतकार थे निसार बज़्मी- जो कुछ साल बाद पाकिस्तान चले गए थे। दूसरी बार बंबई आने के दो महीने के अंदर आखिरकार गीतकार के रूप में आनंद बक्शी की शुरुआत हो गई। इस फ़िल्म को बनने में दो साल लग गए यह 1958 में रिलीज़ हुई और बॉक्स ऑफ़िस पर नाकाम हो गई। गीतकार आनंद बक्शी पर भी किसी का ध्यान नहीं गया। बक्शी साहब के शब्दों में- “जब मैंने परदे पर अपना नाम देखा तो ख़ुशी के मारे मैं रो पड़ा। आज अगर मैं एक कामयाब गीतकार माना जाता हूँ तो वो भगवान दादा की वजह से है। एक स्टार, अभिनेता और प्रोड्यूसर…. जिसने मुझे काम दिया, मेरे सपनों, प्रार्थनाओं और उम्मीदों को एक राह दिखाई। मेरे करियर को इस फ़िल्म से कोई फ़ायदा नहीं पहुँचा लेकिन फिर भी मेरे लिए वो सबसे बड़ी फ़िल्म है और हमेशा रहेगी, क्योंकि उसने ही तो मुझे एक गीतकार के रूप में इस दुनिया में जन्म दिया।’
फ़िल्म के अख़बार में छपे पोस्टर में आनंद बक्शी ने लाल स्याही से अपना नाम अंडरलाइन कर दिया था। वो कितने ख़ुश थे ! इस पोस्टर पर उनके नाम की स्पेलिंग थी ‘बक्शी’, जबकि होनी चाहिए थी ‘बख़्शी।’ स्पेलिंग की ये ग़लती उनके साथ चिपक गई पर उन्होंने इस पर ध्यान नहीं दिया क्योंकि तब उनकी प्राथमिकताएँ अलग थीं। 1956 में अपने पहले 4 गानों की रिकॉर्डिंग के बाद सन 1959 तक उन्हें कोई काम नहीं मिला यह उनकी जिंदगी का सबसे मुश्किल दौर था। उन्होंने रेडियो पर अपना पहला गाना सन 1959 में बाजार में सुना था यह गाना था “जमीन के तारे” फिल्म का “चुन्नू पतंग को कहता है राइट, रॉन्ग है या राइट”। उनका पहला लोकप्रिय गीत था “बड़ी बुलंद मेरी भाभी की पसंद, पर कम नहीं कुछ भैया भी, क्या जोड़ी है” (सीआईडी फिल्म) इस के संगीतकार रोशन थे और उनके साथ यह पहला गाना था। यह गाना 4 जुलाई 1958 को रिकॉर्ड किया गया था और इसे मोहम्मद रफी ने गाया था।
“मेरे महबूब कयामत होगी आज रुसवा तेरी गलियों में मोहब्बत होगी ” यह संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के लिए लिखा बक्शी जी का पहला गाना था और 29 जुलाई 1963 को रिकॉर्ड हुआ था। किशोर कुमार ने इसे अपने सबसे पसंदीदा गानों में शामिल किया था। पूरे देश में हिट हुई उनकी पहली फ़िल्म थी “जब जब फूल खिले ” जो 1965 में आई थी। इसके सभी गाने सुपरहिट रहे थे। इसके बाद उनकी बॉक्स-ऑफ़िस पर कई सुपर हिट फ़िल्में आईं। कुछ फ़िल्मों के नाम हैं- फ़र्ज़ (1967), राजा और रंक (1968), तक़दीर (1968), जीने की राह (1969), आराधना (1969)- वो फ़िल्म जिससे राजेश खन्ना के स्टारडम का रास्ता तैयार हुआ, उसके बाद- दो रास्ते (1969), आन मिलो सजना (1970), अमर प्रेम (1971)- एक के बाद एक हिट फ़िल्में आती चली गई। इसके बाद गीतकार आनंद बक्शी को कभी काम माँगने की ज़रूरत नहीं पड़ी। सन 2002 में उनके निधन तक लगातार उनके पास काम आता चला गया। उन्होंने ज़िंदगी में अपना मक़सद हासिल कर लिया था। सत्तर के दशक के मध्य से आगे तो डिस्ट्रीब्यूटर्स अकसर प्रोड्यूसरों से पूछते थे कि क्या इस फ़िल्म में आनंद बक्शी के गीत हैं? उन्होंने अपना करियर कुछ क़ामयाब संगीतकारों के साथ शुरू किया था, जैसे रोशन, एस. डी. बातिश, एस. मोहिंदर और नौशाद। और आनेवाले पैंतालीस सालों में उन्होंने तक़रीबन 95 संगीतकारों के साथ काम किया। उन्होंने कुल 303 फ़िल्में लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के साथ कीं। 99 फ़िल्में राहुल देव बर्मन के साथ कीं, 34 फ़िल्में कल्याणजी-आनंदजी के साथ कीं और चौदह फ़िल्में सचिन देव बर्मन के साथ कीं।
तक़रीबन सौ गायकों ने उनके गाने गाए। लता मंगेशकर ने जितने गाने आनंद बक्शी के गाए हैं, उतने किसी और गीतकार के नहीं गाए। साठ के दशक में अपने करियर की शुरुआत से ही उनके गाने स्टार गायकों ने गाए जैसे अमीरबाई कर्णाटकी, मुबारक बेगम, शमशाद बेगम, मधुबाला जवेरी, ख़ुर्शीद बावरा, आशा भोसले, सुमन हेमाड़ी कल्याणपुर, सुधा मल्होत्रा, गीता रॉय (दत्त), मुहम्मद रफ़ी, मन्ना डे, महेंद्र कपूर, किशोर कुमार और मुकेश सहित अन्य कई गायक-गायिकाएँ।
आनंद बक्शी के अड़सठवें जन्मदिन पर फ़िल्म-निर्देशक सुभाष घई ने एक पार्टी आयोजित की थी जिसमें गीतकार जावेद अख़्तर ने आनंद बक्शी को हमारे समय का ‘नज़ीर अकबराबादी’ कहा था। नज़ीर अकबराबादी अठारहवीं सदी के शायर थे और उन्हें अपनी नायाब नज़्मों के लिए याद किया जाता है। उन्होंने ग़ज़लें और नज़्में लिखी हैं। उस वक़्त तक लोगों को पता नहीं था कि कवि आनंद प्रकाश बख़्शी बिस्मिल सईदी के शागिर्द थे और सईदी ख़ुद को नज़ीर अकबराबादी का शागिर्द मानते थे; इस तरह जावेद साहब ने उनकी ‘नज़ीर’ से एकदम सही तुलना की थी।
आनंद बक्शी की तमन्ना थी कि वो आख़िरी दिन तक गाने लिखते रहें। ज़िंदगी के आख़िरी दो महीनों में उन्होंने नौ गाने लिखे। ये गाने अनिल शर्मा और सुभाष घई के लिए थे। बक्शी जी भूतपूर्व फ़ौजी थे और हमेशा इज़्ज़त से विदा होना चाहते थे। वो क़तई नहीं चाहते थे कि रिटायर हो जाएँ और बीमारी की वजह से काम बंद कर दें। वो कहते थे-
‘इससे पहले कि फ़िल्म इंडस्ट्री मुझे छोड़े, मैं फ़िल्म इंडस्ट्री को छोड़ना चाहता हूँ।‘
आनंद बक्शी ने अपना आख़िरी गाना फ़रवरी 2002 में लिखा, ये गाना निर्देशक सुभाष घई और संगीतकार अन्नू मलिक के लिए था। ये गाना था- ‘बुल्ले शाह, तेरे इश्क़ नचाया, वाह जी वाह तेरे इश्क़ नचाया।’ उस वक़्त वो बुख़ार में थे, बिस्तर से उठ नहीं सकते थे, उन्हें तीन-तीन कंबल ओढ़ाए गए थे। कमज़ोरी और बुखार की वजह से वो काँपते थे। अस्थमा की वजह से उनकी साँस तेज़-तेज़ चलती थी। उसी हफ़्ते उन्हें अस्पताल में भर्ती कर दिया गया और उसके बाद वो कभी वापस नहीं लौटे। यह तिथि थी 30 मार्च 2002….
चलते चलते
आनंद बक्शी के पुत्र राकेश आनंद बक्शी द्वारा लिखी गई पुस्तक ” नग्मे, क़िस्से, बातें, यादें (आनंद बक्शी का जीवन और उनके गीत) ” में काम के प्रति उनकी ईमानदारी का जिक्र करते हुए लिखा है कि उनके डैडी को एक फ़िल्म देखकर ऐसा लगा था कि एक गीतकार के तौर पर उन्होंने ठीक काम नहीं किया है, वो फ़िल्म थी- ‘अंधा कानून’। इस फ़िल्म का हीरो गाता है- ‘रोते-रोते हँसना सीखो, हँसते-हँसते रोना, जितनी चाभी भरी राम ने, उतना चले खिलौना।’ हीरो हिंदू नहीं है और वो हिंदू देवता का नाम लेता है। डैडी ने उन्हें बताया था, “”मुझसे ग़लती हो गई थी कि गाना लिखने से पहले मैंने निर्देशक से हीरो के किरदार का नाम और उसका मज़हब नहीं पूछा था। निर्देशक जब मुझे कहानी सुना रहा था तो वो अमिताभ बच्चन के नाम से सुना रहा था। मुझे अगर पता होता कि अमिताभ बच्चन फ़िल्म में एक मुस्लिम किरदार निभा रहे हैं तो मैं उस किरदार की तहज़ीब और उसके मज़हब के मुताबिक़ गाना लिखता ।” वैसे भारतीय संस्कृति में सदियों से एक धर्म-निरपेक्षता चली आ रही है, वो हमारे अवचेतन मन में समाई है। बक्शी साहब का कहना था कि अगर निर्देशक उन्हें बताता कि फ़िल्म का हीरो धर्म-निरपेक्ष है तब ज़रूर वो गाने में ये जुमला लिखते, क्योंकि तब ये किरदार की माँग होती। अगर ऐसा नहीं है तो ये उनकी नाकामी है।’