कर्णन: सदियों पुराने शोषण के प्रतिरोध का सिनेमा
पिछले महीने रिलीज़ हुई धनुष की तमिल फिल्म कर्णन अब अमेज़न प्राइम पर उपलब्ध है। फिल्म की काफी तारीफ हो रही है… क्यों… जानने के लिए पढ़िए अमिताभ श्रीवास्तव की समीक्षा।
तमिल फिल्म कर्णन राज्यसत्ता की हिंसा , दमन, शोषण की सदियों पुरानी सामंतवादी, सवर्ण जातिवादी सोच के ख़िलाफ़ दलित-वंचित जनसमूह के प्रतिरोध की बहुत सशक्त प्रस्तुति है। पहला ही दृश्य झकझोर देता है। बीच सड़क पर पड़ी एक बच्ची दर्द से ऐंठ रही है, मुँह से झाग निकल रहा है, अग़ल-बग़ल से बसें गुज़रती जा रही हैं, उसकी मदद करने के लिए रुक नहीं रहीं। बच्ची सड़क पर ही दम तोड़ देती है। बसें इसलिए नहीं रुकतीं क्योंकि उस गाँव में बस स्टाॅप ही नहीं है । गाँव में छोटी जाति के लोगों की बसावट है और वहाँ के लोगों को कहींं आने-जाने के लिए बस पकड़ने पड़ोस के गाँव के बस स्टाॅप जाना पड़ता है जहाँ उनके साथ बदतमीज़ी , लड़कियों से छेड़छाड़ और झगड़े होते रहते हैं। गाँव के लोग अपने अपमान, उपेक्षा, सुविधाओं की कमी के कारण क्षुब्ध रहते हैं । एक तरह से उनके लिए बाहरी दुनिया से संपर्क और आगे बढ़ने के रास्ते बहुत सीमित और तकलीफ़ों से भरे हैं। कर्णन यह सब बर्दाश्त नहीं कर पाता और अपना आक्रोश खुल कर ज़ाहिर करता है।
निर्देशक मारी सेल्वराज की इस फ़िल्म का मुख्य चरित्र महाभारत के पात्र कर्ण से प्रेरित है जिसे जातीय घृणा का शिकार होना पड़ा था। गाँव के मुखिया का नाम दुर्योधन है। कर्णन की प्रेमिका का नाम द्रोपदी है। महाभारत में मछली की आँख में तीर मारने का प्रसंग है, यहाँ कर्णन मछली को तलवार से दो टुकड़ों में चीर कर गाँव में अपना नायकत्व साबित करता है। जुए का खेल भी है। कर्णन ग़ुस्सैल नौजवान है। उसके साथ साये की तरह लगा रहता है उसका शुभचिंतक बुज़ुर्ग यमन जो उससे बहुत स्नेह करता है। निर्देशक ने बहुत असरदार तरीक़े से प्रतीकों का इस्तेमाल किया है।
मारी गयी लड़की एक अलौकिक प्रेरक शक्ति की तरह फ़िल्म में बीच-बीच में आती है। हक़ मारने और लूटने का प्रतीक एक चील है जो झपट्टा मारकर पालतू मुर्ग़ियाँ उठा ले जाती है। बंधुआपन दिखाता एक गधा है जिसके आगे के दोनों पैर बाँध कर रखें गये हैं। सूर्य की रोशनी में चमकती तलवार है। दमनकारी राज्यसत्ता का प्रतीक जातिवादी और सामंतवादी सोच का पुलिस अफ़सर है जिसे छोटी जाति के लोगों का सिर उठाकर बात करना भी नागवार गुज़रता है। वह थाने में बुज़ुर्गों को बुलाकर पीटता है। कर्णन उन सबको छुड़ा ले जाता है। नायक कर्णन को सीआरपीएफ़ में नौकरी मिल गई है, जाना नहीं चाहता लेकिन गाँववाले ज़बरन उसे भेजते हैं ताकि कोई तो आगे बढ़े, वहाँ के माहौल से निकले । इसी बीच पुलिस बदले की भावना से गाँव पर हमला बोल देती है। बूढ़ा यमन हिंसा रोकने के लिए एक तरह से भीष्म की तरह इच्छा मृत्यु चुनता है और ख़ुद को आग लगा लेता है। कर्णन बीच रास्ते से वापस लौटता है और पुलिस दल के मुखिया को मार देता है। सज़ा काट कर दस साल बाद गाँव लौटता है तो बहन का संदेश मिलता है कि गाँव में अब बस स्टाॅप बन गया है, स्कूल भी और नौकरी के रास्ते भी खुल गये हैं।
कहानी तमिलनाडु के गाँव की है लेकिन उसका कैनवस अखिल भारतीय है। कर्णन की भूमिका में धनुष ने बहुत अच्छा काम किया है। उसके बुज़ुर्ग हमदर्द के किरदार में लाल का अभिनय दमदार है। संगीत, कैमरा शानदार है। फिल्म अमेज़न प्राइम पर देखी जा सकती है। अंग्रेज़ी सबटाइटिल्स की सुविधा है। पहले भी कहा है, फिर सुझाव है कि अगर अच्छी फिल्में देखने में दिलचस्पी है तो विदेशी सिनेमा के अलावा भारत के क्षेत्रीय सिनेमा की तरफ़ मुड़ें। तमिल, तेलुगु, मलयालम, मराठी और बांग्ला में कमाल का काम हो रहा है। मुंबइया सिनेमा तो ज़्यादातर कचरा निर्माण में ही लगा हुआ है।