मृणाल सेन: कम्फ़र्ट ज़ोन लाँघने वाले फ़िल्मकार
भारतीय सिनेमा में बांग्ला सिनेमा के तीन फिल्मकारों सत्यजित राय, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन का अमूल्य योगदान माना जाता है। राय की तरह मृणाल सेन ने भी बांग्ला के साथ-साथ हिंदी में भी फिल्में बनाई थीं और उनकी हिंदी की ही फिल्म ‘भुवन शोम’ ने 70 के दशक में भारतीय न्यू वेव की नींव रखी थी। सेन आज जीवित होते तो 14 मई को सौ बरस के हो रहे होते। लेकिन उनका सिनेमा आने वाली कई शताब्दियों तक जीवित रहेगा। उनकी सौवीं जयंती पर उनके जीवन और उनके काम को याद कर रही हैं जानी मानी लेखिका डॉ विजय शर्मा । डॉ विजय शर्मा साहित्य व लेखन से तकरीबन 40 साल से जुड़ी हैं। उनकी लिखी तमाम बेहतरीन पुस्तकों में सिनेमा के लिहाज से ‘विश्व सिनेमा : कुछ अनमोल रत्न’, ‘स्त्री केंद्रित विश्व सिनेमा’ और होलोकास्ट सिनेमा पर लिखी उनकी पुस्तक ‘नाज़ी यातना शिविरों की त्रासद गाथा’ बेहद खास हैं। सत्यजित राय पर दो खंडों में उनकी पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य है। डॉ शर्मा कई प्रमुख राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में बतौर जूरी सदस्य भी शामिल होती रही हैं। लेखन और रचनात्मक सामाजिक गतिविधियों में बेहद सक्रिय रहने वालीडॉ विजय शर्मा साहित्यिक संस्था ‘सृजन संवाद’ की संस्थापिका भी हैं।
बहुत कम फ़िल्मकार अपने कम्फ़र्ट ज़ोन से बाहर जा, जोखिम लेकर फ़िल्म बनाने का साहस करते हैं। मृणाल सेन उनमें से एक हैं। 14 मई 1923 को फ़रीदपुर (अब बाँग्लादेश) में जन्मे मृणाल सेन ने अपने करियर की शुरुआत मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव के रूप में की लेकिन जल्द ही इस पेशे को छोड़ अपनी रूचि के कार्य फ़िल्मांकन की ओर मुड़ गए। वे एक स्टूडियों में रिकॉर्डिंग मशीन की मरम्मत का काम कर रहे थे। यह काम भी छोड़ दिया लेकिन साउंड रिकॉर्डिंग की तकनीकी का अध्ययन करने लगे। यह एक कारण है, ध्वनि का प्रयोग करने में मृणाल सेन के बेजोड़ होने का। वे अपनी फ़िल्मों में गाने नहीं रखते मगर साउंड इफ़ेक्ट का उपयोग खूब करते थे। पार्श्व संगीत-ध्वनि का उनके यहाँ खास महत्व है। ‘दिन प्रतिदिन’ में मात्र पाँच मिनट का कंपोज्ड म्यूज़िक है बाकी केवल साउंड इफ़ेक्ट है। ‘जेनेसिस’ फ़िल्म में पानी की आवाज को पकड़ने का अद्भुत काम हुआ है, साइलेंस के साथ ध्वनि का संबंध स्थापित किया गया है। ध्वनि के सार्थक प्रयोग द्वारा वे नारी की गरिमा को सुरक्षित रखते हुए ‘मृगया’ में बलात्कार का दृश्य सृजित करते हैं। दर्शक बिना चटकारे बलात्कार के अत्याचार की अनुभूति करता है। ‘भुवन शोम’ में बैलगाड़ी की चाल के साथ पार्श्व का क्षण-क्षण बदलता संगीत सजीव रसमयता उत्पन्न करता है।
बचपन में उन्होंने चार्ली चैपलिन की फ़िल्म ‘द किड’ देखी। बहुत अच्छी लगी, उन्हें बहुत मजा आया। जब वेनिस फ़िल्म समारोह में उनकी फ़िल्म ‘कलकता 71’ दिखाई जा रही थी तो वहीं चार्ली चैपलिन को लाइफ़ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड मिल रहा था। चैपलिन की फ़िल्में दिखाई जा रही थीं। सेन सुबह से शाम तक चार्ली चैपलिन की फ़िल्में देख रहे थे। उन्होंने पहली और आखिरी बार चैपलिन को देखा। वे उससे बहुत प्रभावित थे, उससे प्रेरणा भी मिली मगर उन्होंने कभी चार्ली चैपलिन की या उसकी फ़िल्मों की नकल न की।
उन्होंने फ़िल्मों से जुड़ी खूब किताबें पढ़ीं, खूब सारी रूसी फ़िल्में देखीं और फ़िल्मों पर लिखने लगे, उनके सिने-लेख प्रकाशित होने लगे, वे भारतीय जीवन पर चिंतन करने लगे। अप्रतिम फ़िल्मकार सेन ने सदैव जनोन्मुखी पटकथा वाली फ़िल्में बनाईं। इस बहुमुखी प्रतिभा ने फ़िल्मकार बनने की बात न सोची थी। मगर भारत में फ़िल्म की दिशा-दशा को नया आयाम देने का श्रेय उन्हें जाता है। ‘भुवन शोम’ ने भारत में समानान्तर सिनेमा का प्रारंभ किया। पहली फ़िल्म ‘रात भोरे’ को वे अपनी सबसे खराब फ़िल्म मानते थे, इसे बनाना उनके लिए एक वीभत्स अनुभव था। अंतरराष्ट्रीय पहचान मिल रही थी लेकिन ‘नील आकाशेर नीचे’ तथा ‘बाइशे श्रावण’ आदि आठ बाँग्ला फ़िल्म बनाने के बाद 1969 में हिन्दी में सौराष्ट्र की पृष्ठभूमि पर उन्होंने ‘भुवन शोम’ बनाई और भारतीय सिनेमा का रुख पलट दिया। ‘महान’ शब्द उनके साथ जुड़ गया। कई ‘प्रथम’ को समेटती ‘भुवन शोम’ फ़िल्म बालाई चंद मुखोपाध्याय की कहानी ‘बनफूल’ पर अधारित है। इस फ़िल्म में बन्दूक का निशाना चूक जाने पर सुहासिनी मुले की खिलखिलाहट को देखते-सुनते हुए एक और महान फ़िल्मकार सत्यजित राय की ‘समाप्ति’ में अपर्णा सेन की खिलखिलाहट का दृश्य मन में तैर जाता है, अपर्णा सेन की हँसी भी सुनाई पड़ जाती है।
इस फ़िल्म के साथ भारतीय सिनेमा का एक नया युग प्रारंभ हुआ, जिसे ‘नया सिनेमा’, ‘न्यू वेव’, ‘कला फ़िल्म आंदोलन’. ‘प्रयोगवादी सिनेमा’ और ‘समानांतर सिनेमा’ आदि नामों से जाना जाता है। ‘भुवन शोम’ में वे लीनियर स्टोरीटेलिंग का फ़ॉर्म तोड़ते हैं, अपने ढंग से कहानी कहते हैं। लोगों ने सोचा वे पागल हो रहे हैं, उनका मानना है पागलपन आवश्यक है। कैमरा कभी आड़ा होता है, कभी तिरछा, और कभी सीधा। इस फ़िल्म को बनाने में हर दृश्य को शूट करने में उन्होंने मजा लिया। पूरी फ़िल्म मजे-मजे में बनाई। इसीलिए दर्शक को भी मजा आता है। आज की फ़ैंटसी कल की रियलिटी होगी, और यह हुआ। इस फ़िल्म के साथ उनका संबंध अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म निर्देशकों से हुआ।
ऊपर मृणाल सेन की एक विशेषता, ‘कम्फ़र्ट ज़ोन’ से बाहर जा कर फ़िल्म बनाने की बात लिखी है। ‘अगर कोई बात उन्हें हरदम जीवंत बनाए रखती है, तो वह है अधिक से अधिक फ़िल्म बनाने की इच्छा’ कहने वाले फ़िल्मकार ने दो दर्जन से ऊपर शाश्वत फ़ीचर फ़िल्म तथा डेढ़ दर्जन टीवी लघु फ़िल्म एवं डॉक्यूमेंट्री बनाई। मृणाल सेन बार-बार अपने कम्फ़र्ट ज़ोन से बाहर जाते हैं, चुनौती स्वीकारते हैं और जोखिम उठा कर साहस के साथ फ़िल्म बनाते हैं। कभी भाषा, कभी स्थान को लेकर वे एक-से-एक नायाब फ़िल्में हमें देते हैं। उन्होंने बाँग्ला के साथ उड़िया, हिन्दी और तेलुगू भाषा में फ़िल्में बनाई। भौगोलिक रूप से उनकी फ़िल्मों का क्षेत्र बंगाल से दूर उड़ीसा तथा आंध्रप्रदेश तक नहीं रुकता है, सुदूर चीन तक जाता है।
उड़िया उपन्यास ‘माटीर मानुष’ पर 1966 में इसी नाम से उड़िया भाषा में फ़िल्म बनाई। बड़ा कमाल तब हुआ जब महादेवी वर्मा के रेखाचित्र ‘वह चीनी भाई’ पर उन्होने बाँग्ला में ‘नील आकाशेर नीचे’ बनाई। बहुमुखी प्रतिभा के धनी मृणाल सेन फ़िल्म के अनुरूप आवश्यक परिवर्तन करते। महादेवी के इलाहाबाद से उठ कर ‘वह चीनी भाई’ को कलकत्ता में स्थापित हो, चीनी भाई वांग लू बन जाता है। लेखिका कांग्रेसी कार्यकर्ता है, लेखिका के पति, सास तथा नौकर भी फ़िल्म में आ गए। फ़िल्म चीन जाती है, दर्शक वहाँ रहती वांग लू की बहन और उसके कठोर जमींदार से परिचय पाता है। वे इस फ़िल्म में गाना नहीं चाहते थे लेकिन प्रड्यूसर हेमंत मुखर्जी ने जिद कर के दो गीत रखवाए। दोनों गाने ‘ओ नदी रे…’ तथा ‘नील आकाशेर नीचे पृथ्वी…’ खूब प्रसिद्ध हुए। इस फ़िल्म पर कुछ समय के लिए प्रतिबंध भी लगा था। उन्होंने न्यू चाइना टाउन में घूमते वक्त हुए अपने अनुभव को इस फ़िल्म में ढाला है। फ़िल्म सफ़ल रही पर सेन को इसमें कई खामियाँ नजर आती थीं। आत्मालोचन सेन को बेहतर करने की प्रेरणा देता। इस फ़िल्म में फ़िल्मकार चीन के संघर्ष और भारत के स्वतंत्रता संघर्ष को जोड़ता है।
हिन्दी की एक अन्य कहानी, प्रेमचंद के ‘कफ़न’ को उन्होंने अपनी तेलुगू फ़िल्म ‘ओका ओरि कथा’ का आधार बनाया। 1977 में बनी यह फ़िल्म आंध्रप्रदेश में स्थापित है, जिसमें तेलुगू लोकोक्तियों को अपनाया गया है। यू. पी. की कहानी बंगाल होते हुए आंध्र प्रदेश गई। वहाँ संस्कृति तथा खानपान सब भिन्न है, उन्हें सब सीखना पड़ा। तीनों प्रदेश में एक बात साझी है, गरीबी। गरीबी सब जगह एक जैसी है, इसका कोई अलग रंग नहीं होता है। उनकी पहली रंगीन फ़िल्म ‘मृगया’ उड़ीसा के संथालों के गाँव में स्थित हो, वहाँ के लोकगीत, जीवन व प्राकृतिक सुषमा को जीवंत करती है। आदिवासियों के वास्तविक दुश्मन की शिनाख्त करती प्रश्न पूछती है, ‘शोमू अच्छा आदमी था। उसे मरवाने वाले को इनाम मिला। सबसे खतरनाक जानवर गोविन्द को मारने पर मुझे इनाम क्यों नहीं?’ उनके विभिन्न बिम्ब, प्रतीक, दृश्य दर्शक को चिंतन के लिए प्रेरित करते हैं। ‘मृगया’ का अंतिम दृश्य एक सकारात्मक संदेश देता है।
समाज और सत्ता की विडम्बनाओं को ले मृणाल सेन के भीतर बहुत क्रोध था। उन्होंने कभी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। उनका मानना था कि बहुत सारे नियम तोड़ने होते हैं और बहुत सारे अपने नियम बनाने होते हैं। वे कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य नहीं थे लेकिन इप्टा से जुड़े हुए थे। उन्होंने स्थापित और नए, दोनों के साथ काम किया। मिथुन, सुहासिनी, रंजीत मल्लिक, अंजन दत्ता, ममता शंकर, श्रीला मजुमदार, अरुण मुखर्जी आदि को अपनी फ़िल्मों में ब्रेक दिया। स्मिता पाटिल, शबाना आजमी, नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी जैसे स्थापित अभिनेताओं को अपनी फ़िल्मों में लिया। उनका राजनैतिक दृष्टिकोण सुचिंतित, सुपरिभाषित तथा सुस्पष्ट था। अपने समय पर इनकी गजब की पकड़ थी। सामाजिक और राजनैतिक फ़िल्में ‘कलकत्ता त्रयी’ (‘कलकत्ता 71’, ‘इंटरव्यू’, ‘पदातिक’) इसका अनुपम उदाहरण है। उनके लिए कलकत्ता प्रेम भी था और फ़िल्मों का एक चरित्र भी। फ़िल्मों के द्वारा वे दर्शक और समीक्षकों के भीतर बेचैनी उत्पन्न करते।
मृणाल सेन स्व-शिक्षित तथा स्व-प्रशिक्षित फ़िल्म निर्देशक थे। अपनी फ़िल्म के डॉयलॉग लिखते, एडिटिंग में प्रयोग करते थे। उनका जीवन दर्शन था, ‘पृथ्वी टूट रही है, जल रही है, छिन्न-भिन्न हो रही है। तब भी मनुष्य बचा रहता है, ममत्व, प्यार और संवेदना के कारण।’ मनुष्यता पर उनकी असीम आस्था थी। उनकी अधिकाँश फ़िल्में साहित्याधारित हैं। ‘एक दिन अचानक’ रामपद चौधरी की कहानी पर आधारित है। ‘खंडहर’ फ़िल्म की कहानी प्रेमेंद्र मित्र की थी। उनका साहित्य से खासा लगाव था। सेन कहानी को वर्तमान से जोड़ कर फ़िल्म बनाते हैं यह उन्होंने तकरीबन अपनी सब फ़िल्मों में किया है। उनका अपना लेखकीय पक्ष भी खूब मजबूत था। ‘लाइफ़, पोलिटिक्स, सिनेमा’ उनकी एक किताब का नाम है। चार्ली चैपलिन से वे प्रभावित थे, उस पर उन्होंने ‘माई चैपलिन’ नाम से लिखा। यह किताब चार्ली चैपलिन की जीवनी, उसकी फ़िल्मों पर आलोचना तथा सेन द्वारा चार्ली चैपलिन को दी गई श्रद्धांजलि है। यह किताब उन्होंने कैंसर से मरने वाले कैमरामैन के. के. महाजन को समर्पित की है। किताब ‘व्यूज ऑन सिनेमा’ में उनकी फ़िल्म समीक्षाएँ, पत्र तथा आलेख संग्रहित हैं, उनकी अपनी फ़िल्मों की सिनॉप्सिस तथा विश्लेषण भी दर्ज हैं। ‘आलवेज बीइंग बोर्न’ संस्मरण की किताब है।
उन्हें 2003 में दादा साहेब फ़ाल्के से सम्मानित किया गया। पद्मभूषण सम्मान प्राप्त हुआ। उनकी फ़िल्मों को प्राय: सारे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में पुरस्कार प्राप्त हुए थे। वे बर्लिन इंटरनेशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल (1982) तथा मॉस्को इंटरनेशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल (1983) में जूरी सदस्य थे। हालाँकि प्रारंभ में उन्हें फ़ाके करने पड़े लेकिन एक मामले – पत्नी – के मामले में वे बहुत धनी थे। शादी के पहले उन्हें मृणाल दा पुकारती गीता शोम शादी करके गीता सेन, अंत तक उनकी प्रेयसी-पत्नी बनी रहीं। गीता सेन ने उनकी फ़िल्मों ‘कलकत्ता 71’, ‘कोरस’, ‘एकदिन प्रतिदिन’, ‘अकालेर संधाने’, ‘खंडहर’ तथा ‘आरोहण’ में अभिनय किया। वे उनसे अक्सर सलाह-मशविरा किया करते थे। गीता सेन उनकी सरलता का चित्रण किया करती थीं। मृणाल सेन के अनुसार, पत्नी को डायरेक्ट करना काफ़ी कठिन कार्य है।
प्रयोगधर्मी मृणाल सेन ने ध्वनि के साथ प्रकाश को लेकर प्रयोग किए। फ़्रीज का बहुत मानीखेज उपयोग कर अपेक्षित प्रभाव डाला। ‘कलकत्ता 71’ के अंत में फ़्रीज हो कैमरा सामने आता जाता है और पार्श्व में ड्रम की आवाज है। ‘भुवन शोम’ की तकरीबन पूरी शूटिंग उन्होंने प्राकृतिक प्रकाश में की, जरूरत पड़ने पर छत की एकाध ईंट हटा रोशनी का प्रबंध किया। इसके लिए उनके कैमरामैन के. के. महाजन को भी श्रेय जाता है जिन्होंने समानांतर सिनेमा को ब्लैक एंड व्हाइट फ़ोटोग्राफ़ी माध्यम से काव्यात्मक ऊँचाई दी। शुरु में वे मोंटाज, कंस्ट्रक्टिव कटिंग एंड ज्वाइनिंग के बारे में नहीं जानते थे, बाद में उन्होंने इसका सफ़ल उपयोग किया। फ़िल्म के अंत (‘आकाश कुसुम’) की ओर स्टिल फ़ोटोग्राफ़ी का प्रयोग उस समय के लिए बड़ा प्रयोगात्मक था। इसी तरह ‘खंडहर’ के अंत में स्त्री का स्थिर चेहरा और उसका कैमरे से दूर होता जाना भी प्रयोग का एक उत्तम उदाहरण है।
विश्व में भारतीय फ़िल्म के राजदूत मृणाल सेन स्वयं भले ही सीधे राजनीति से नहीं जुड़े थे लेकिन उनकी पक्षधरता बहुत स्पष्ट थी। उनकी सारी फ़िल्में छद्म राजनीति से जुड़ी हुई हैं, चाहे वह ‘खंडहर’ हो अथवा ‘कोरस’ हो। वे राजनीति भली-भाँति जानते-समझते थे। परिवार और पारिवारिक संबंध उनकी फ़िल्मों का एक मुख्य पक्ष है। अपनी फ़िल्मों में पहले वे दुश्मन को बाहर देख रहे थे पर ‘खारिज’, ‘कलकता त्रयी’ से लगातार अंदर के दुश्मन को देखने लगे। उनके भीतर ‘कम्पैशन फ़ॉर करेक्टर’ होता है। उनके लिए राजनीति और विचारधारा से बढ़ कर मनुष्य है। उनकी फ़िल्मों से दर्शक जुड़ पाता है, उसे वे अपनी फ़िल्में लगती हैं। ‘खारिज’ में वे दुश्मन की तलाश करते हैं। फ़िल्म बाल मजदूरी की नहीं है, उनके लिए यह एक्सीडेंट की है। 12 साल का बच्चा मर जाता है। कौन है दोषी? उसका पिता काम छोड़ कर चला जाता है, यह सबके लिए शर्म की बात होनी चाहिए। पिता किसी को दोष नहीं देता है, किसी से लड़ता नहीं है। उसका जाना हमारे मुँह पर तमाचा है। फ़िल्म अंत में आत्मान्वेषण के लिए दर्शक को छोड़ देती है। नरेटिव फ़िल्म के बाद भी जारी रहता है।
श्याम बेनेगल के अनुसार बहुत कम निर्देशक फ़िल्म के फ़ॉर्म और नरेटिव में नए-नए प्रयोग करते हैं। ‘बाइसे श्रावण’ श्याम बेनेगल ने देखी तो वह सदा से उनके साथ हो ली। इसकी फ़ोटोग्राफ़ी, लोकेशन, स्टोरी और अभिनय सब उत्कृष्ट कोटि का है। रवींद्रनाथ की मृत्यु बहुत बड़ी घटना है, वैश्विक घटना है लेकिन उस दिन और बहुत कुछ घटित हुआ। सेट पर शूटिंग के दौरान वे पहले वातावरण सृजित करते थे ताकि सब उनके मन मुताबिक काम कर सकें। नसीर कहते हैं कि मृणाल सेन अभिनेताओं को खुद काम करने देते हैं। सेन पहले दिखा देते कि वे क्या चाहते हैं, फ़िर कहते मुझे दिखाओ तुम कैसे करोगे। वे अभिनेताओं को खुला स्पेस देते, कुछ फ़नी हो जाता तो उसे इंजॉय करते। अभिनेताओं से निजी स्तर पर संवाद कायम करते। उन्हें उनके कम्फ़र्ट ज़ोन में काम करने देते, खूब स्वतंत्रता देते। फ़िर एडिटिंग टेबल पर, संगीत में परिवर्तन होता, डबिंग में बदलाव किया जाता। सुहासिनी मुले कहती हैं, लगता नहीं कि वे डॉयरेक्ट कर रहे हैं। ‘वंडरफ़ुल, एक्सलेंट’ कहते, फ़िर अगला वाक्य होता, ‘लेट अस डू अनादर टेक, अनादर शॉट’।
दूरदर्शन के लिए चार भाग में बनी फ़िल्म, ‘सेलेब्रेटिंग मृणाल सेन’ में बताया जाता है कि निर्देशक लिंडसे एंडरसन उनके बहुत करीब थे। सत्यजित राय से उनकी नोंक-झोंक चलती थी, वे राय की प्रत्येक फ़िल्म पर टिप्पणी करते थे, लेकिन अपने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय निर्देशकों, अभिनेताओं, फ़िल्मकारों और तकनीशियन के बीच उनका बहुत सम्मान था। प्रसिद्ध मलयाली फ़िल्म निर्देशक अडूर गोपाल कृष्णन के अनुसार सेन असफ़लता से डरने वालों में नहीं थे, उन्होंने सदैव निर्भीकता के साथ प्रयोग किए। अडूर का सेन से निजी संबंध था। वे कहते हैं, सेन उनके लिए गाइड और बड़े भाई की तरह थे। एम. के. रैना के लिए आध्यात्मिक रूप से वे पिता तुल्य थे।
‘खंडहर’ को सर्वाधिक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले। ‘अकाले संधाने’ तथा ‘खंडहर’ में वे यथार्थ से टकराते हैं। ‘अकालेर संधान’ में 1943 के बंगाल के अकाल की स्थिति को वे वर्तमान में पिरो कर फ़िल्म में प्रस्तुत करते हैं। 1980 में बनी इस फ़िल्म में एक फ़िल्म यूनिट अकाल पर फ़िल्म बनाने के लिए गाँव जाती है। फ़िल्म के भीतर फ़िल्म की कहानी चलती है। विडंबना है, अकाल पर फ़िल्म बनाने वाले स्वयं गाँव में अकाल की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं।
1998 से 2003 तक राज्यसभा में रहने वाले मृणाल सेन का मानना था कि उनकी सर्वोत्तम फ़िल्म का आना अभी शेष है। 90 वर्ष की उम्र में उन्हें अच्छी स्क्रिप्ट की तलाश में थे, मगर 30 दिसंबर 2018 को अपने घर (कलकत्ता) में इस बहुमुखी प्रतिभा के धनी सेन की मृत्यु हुई। इस क्रांतिकारी फिल्मकार की इच्छा थी कि उनके शव पर फ़ूल-मालाएँ न चढ़ाई जाएँ, लेकिन हम अपने श्रद्धासुमन अवश्य उन्हें अर्पित कर सकते हैं। मृणाल सेन का लोगों के साथ ऊष्मा भरा रिश्ता, मानवीय संबंध, हिंसा-प्रतिहिंसा के इस दौर में उनकी फ़िल्में हमें सकारात्मक चिंतन के लिए प्रेरित करती हैं। बहुआयामी सेन को श्रद्धांजलि स्वरूप यह उनकी एक झलक मात्र है।