दिलीप कुमार: सालगिरह पर साहिब-ए-आलम की याद
आज दिलीप कुमार ज़िंदा होते तो 99 साल के होते…. 11 दिसंबर 1922 को पेशावर में वो पैदा हुए थे… और इसी साल जुलाई में वो दुनिया को अलविदा कर गए…। इस मौके पर न्यू डेल्ही फिल्म फाउंडेशन ने एक बेहद खास परिचर्चा का आयोजन किया। इस चर्चा के बहाने दिलीप कुमार को याद कर रहे हैं डॉ भूपेंद्र बिष्ट। नैनीताल में रहने वाले डॉ बिष्ट ने बीएचयू में पढ़ाई कर “स्वतंत्रयोत्तर हिंदी कविता में जीवन मूल्य : स्वरूप और विकास” विषय पर पी-एच. डी. प्राप्त की तथा उत्तर प्रदेश सरकार में लोक सेवा से निवृत हुए। धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादम्बिनी, सरिता, दिनमान, रविवार, पराग, जनसत्ता सबरंग, अहा ! जिंदगी, वर्तमान साहित्य, लफ़्ज़, हंस, पाखी, वागर्थ, बया, पहल, संवेद, लमही, दशकारंभ, व्यंग्य यात्रा आदि पत्रिकाओं एवं अमर उजाला, दैनिक जागरण तथा जनसत्ता में कविताएं/आलेख। इंडियन पोएट्री सोसायटी द्वारा प्रकाशित कविता संग्रह ‘सार्थक कविता की तलाश’ में कविता संकलित।
शताब्दी वर्ष की इब्तिदा में New Delhi Film Foundation द्वारा talk cinema श्रृंखला के तहत न्यूज़ पोर्टल Satya Hindi के साथ चर्चा का एक live आयोजन किया गया. बातचीत में वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ श्रीवास्तव ने फिल्म स्कॉलर शरद दत्त, कला व फिल्म समीक्षक विनोद भारद्वाज और दिलीप कुमार की आत्मकथा को “वजूद और परछाई” नाम से हिंदी में लाने वाले प्रभात रंजन को शामिल किया।
यह विमर्श रहा भी बहुत खूबसूरत और महत्वपूर्ण. इसलिए कि प्रबुद्ध वार्ताकारों ने बातों-बातों में चंद ऐसे नामालूम फैक्ट्स जाहिर किए कि इन पर विमर्श की अभी और गुंजाइश बन रही है ।
विनोद भारद्वाज ने बड़ी पुख्तगी से इस बात का विश्लेषण किया कि क्योंकर दिलीप कुमार को 50 के सिनेमा का सम्राट कहा जा सकता है और इनकी अदाकारी पर कैसे 20 वीं शताब्दी के अमेरिकन एक्टर मार्लन ब्रेंडो (2 बार के एकेडमी अवार्ड विनर) की कुछ-कुछ छाया ढूंढी और देखी जा सकती है। दिलीप साहब के सानिध्य में रहे शरद दत्त ने लफ्जों के तलफ्फुज़ को खासी अहमियत देने की उनकी आदत, उनके अख़लाक और वकार के किस्सों को साझा किया।
साथ में प्रभात रंजन ने बेहद सफगोई से बताया कि दिलीप कुमार शायरी का मीटर बखूबी जानते थे और लेखकों का बहुत सम्मान भी करते थे, उनकी आत्मकथा में भी भगवती चरण वर्मा, राजेन्द्र सिंह बेदी और प. नरेंद्र शर्मा का ज़िक्र मिलता है।
अब इस बात को क्या कहा जाए कि दादा साहब फाल्के और निशान-ए-इम्तियाज़ से नवाजे गए, सबके महबूब सितारे दिलीप कुमार (यूसुफ खान) को 8 बार फिल्मफेयर पुरस्कार तो मिला पर अभिनय के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार कभी नहीं।
इस संदर्भ में, अयाचित (unsolicited) तो लग रहा है, पर मैं भी कुछ जोड़ना चाहता हूं। यह इसी साल जुलाई में दिलीप साहब के अवसान की तारीख के दिन लिखी गई, मेरी पिछली post के कुछ अंश हैं।
नैनीताल में उन दिनों सर्दियों के मौसम में एक ही सिनेमा हॉल खुला रहता (‘कैपिटल‘ और ‘अशोक‘, दो ही थे तब) और उस मौसम भर उसमें पुरानी ही फिल्म दिखाई जाती. हम कुछ किशोर वय जनों का चुपचुपाते फ़िल्म देख आना शगल और लत के बीच का सा कुछ बन गया था, यूं समझ लें।
दिलीप साहब की कोई फिल्म, जो पहली बार मैंने देखी — “आजाद” ( 1955 ) थी. एक कॉमेडी ड्रामा, ओम प्रकाश कांस्टेबल की हरकतों पर हम अंदर खिलखिलाए तो खूब हॉल में पर शो छूटने के बाद बाहर लगातार हो रही बर्फवारी से सारी हंसी काफूर।
अब नैनीताल में दिलीप साहब को लेकर कुछ किस्से. “मधुमती” (58 ) फिल्म का गाना : सुहाना सफर और ये मौसम हंसी. … पर्दे पर घोड़ाखाल का चीड़ जंगल और भूमियाधार की हसीन वादियां. फिल्म यद्यपि श्याम स्वेत (B & W) है पर इन दिलकश नजारों ने यहां हिंदी फिल्मों के छायांकन के लिए रास्ते से खोल दिए। इसमें खासतौर से गुमराह 63, वक्त 65, अनीता 65, कटी पतंग 83, और कोई मिल गया 2003 को रंगीन सूरत में याद किया जा सकता है।
बहरहाल हिंदी सिने जगत का “कोहिनूर” चला गया. पर कैसा था उनका जिंदगी के प्रति नजरिया, फलसफा. कितना बड़ा कद रहा उनका. क्या मानी थे इंसानियत के उनके लिए, हर दिल अज़ीज़ यूसुफ साहब के सरोकार क्या थे, क्या समझते थे वो आर्ट को. ये सब बातें उदय तारा नायर की किताब The Substance and the Shadow, जो दिलीप साहब की आत्मकथा है, में बहुत तफसील से मिल तो जाएंगी और अब तो इसका हिंदी तर्जुम: “वजूद और परछाई” (वाणी प्रकाशन) भी दस्तयाब है, प्रभात रंजन का बखूबी किया हुआ। वक्त के साथ शायद इनसे इतर भी कुछ बातें सामने आ जाएँ, कुछ कमयाब किस्से भी।
फिलहाल पाकिस्तान के सीनियर जर्नलिस्ट सईद अहमद की किताब “दिलीप कुमार : अहद नामा-ए-मोहब्बत” भी हमको ज़रूर देखनी चाहिए।
यतींद्र मिश्र याद दिलाते हैं कि दिलीप साहब ने एक इंटरव्यू में कहा था कि वे बॉम्बे टॉकीज में अशोक भईया को अभिनय करते हुए वे देखते रहते थे और उनकी बताई बातें मेरे लिए रास्ता बन गई और बात यह थी कि अशोक कुमार ने बताया ‘ अभिनय दरअसल अभिनय न करना ही है. इस रास्ते पर चल कर दिलीप साहब ने एक्टिंग के नए मेयार तैयार कर दिए।
इसी तरह सलीम खान के दिलीप कुमार पर लिखे एक लेख के जरिए पता चलता है कि दिलीप साहब के बोलने के अंदाज में दो लाइनों के बीच में जान बूझकर लंबी चुप्पी (pause) दर्शकों/ सुनने वालों पर गहरा प्रभाव छोड़ती थी और यह असर उन पर नेहरू जी के भाषणों का था, जो सोचते तो थे अंग्रेजी में पर बोलते हिंदुस्तानी में थे। इस किस्म के बारीक नुस्खों को अदाकारी में उभार कर लाना दिलीप कुमार ही मुमकिन कर सके और एक प्रकार से हिंदुस्तानी जुबान को स्थापित करने तथा मोहक बनाने में दिलीप साहब के इस काम को भी याद रखा जाएगा।
2015 में जब दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन को एक साथ पद्मविभूषण देने की घोषणा हुई तो विष्णु खरे जी ने एकदम सही बिंदु से बात शुरू की कि Comparisons are Odious. उन्होंने लिखा अमिताभ अभिनय के सचिन तेंदुलकर हैं तो दिलीप साहब सर डॉन ब्रैडमैंन। दिलीप कुमार को तो एक ‘मिस्टीक’ कहा जा सकता है, वे एक मुअम्मा जैसे हैं, एक तिलिस्म की मानिंद।
हल्द्वानी – अल्मोड़ा वाया ज्योलिकोट रोड पर एक बहुत कम आबादी वाला गांव ‘गेठिया‘ पड़ता है, जहां क्षय रोग के ब्रिटिश कालीन सेनेटोरियम की पूरक इकाई है. बताते हैं “मधुमती” फिल्म का बेहद मकबूल गीत “चढ़ गयो पापी बिछुआ …” गेठिया से सटे हुए ढलान और जंगल में शूट किया जा रहा था और नायिका बैजन्ती माला को एक दृश्य में लकड़ी का गट्ठर सिर पर लिए दौड़ना था, जो मुकम्मल नहीं हो पा रहा था. तब यहीं की एक महिला जशोदा देवी ने उस सीन विशेष के लिए बॉडी-डबल का काम किया। (दो वर्ष पहले उस शिक्षिका जशोदा का निधन हो गया है)
दिलीप साहब लोक और नैसर्गिक उत्स को कितनी अहमियत देते थे, इसका अंदाजा हमें कुमाऊं के ख्यातिलब्ध रंगकर्मी मोहन उप्रेती की किताब ” कुछ मीठी यादें कुछ तीती ” के पन्ने पलटने से भी होता है. कहा गया है “मधुमती” में बैजन्ती माला के गले में चांदी की हंसुली, पांव में चांदी के धागुले सरीखे आंचलिक जेवर और पहनावे में पहाड़ी घाघरा व आंगड़ी दिलीप साहब की ही तजवीज पर फिल्म निर्देशक विमल रॉय को भा गए। रंगकर्मी नईमा खान उप्रेती के हवाले से यह भी सामने आता है कि कुमाऊंनी लोक गीतों की महक सलिल चौधरी के कई गीतों में है और पहाड़ के घसियारी नृत्य को प्रसिद्धि भी “मधुमती” से ही मिली।
वास्तव में वह शाइस्तगी, वह नफासत से कौल कहने का सलीका और बाकमाल अभिनय के 70 साल हमारे दिलों में हमेशा जिंदा-ओ-जावेद रहेंगे, इसमें कोई शक नहीं।