मुग़ले आज़म 3: शहंशाह अकबर के ‘राष्ट्रवाद’ की महागाथा

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Jawari Mall parakh

के आसिफ की बनाई फिल्म मुग़ले आज़म को बेहतर और गहराई से समझने के लिए हम जाने-माने समाजशास्त्री, सिनेविद् व लेखक जवरीमल्ल परखके प्रसिद्ध आलेख ‘मुगले आज़म:सत्ता विमर्श का लोकतांत्रिक संदर्भ’ को 8 अंकों में प्रस्तुत करने जा रहे हैं। यह आलेख उनकी प्रसिद्ध पुस्तकभारतीय सिनेमा का समाजशास्त्र में भी उपलब्ध है। 14 जून को मुगले आज़म के निर्देशकके आसिफके जन्मदिन के मौके पर हुई इस शुरुआत की ये दूसरी कड़ी है। अगस्त के पहले हफ्ते तक इसका प्रति सप्ताह प्रकाशन होता रहेगा। 5 अगस्त को ही 1960 में फिल्म मुगले आज़म रिलीज़ हुई थी। जवरीमल्ल पारख जी साहित्य, सिनेमा और मीडिया पर आलोचनात्मक लेखन एव पटकथा के विशेषज्ञ हैं। ‘लोकप्रिय सिनेमा और सामाजिक यथार्थ’, ‘हिंदी सिनेमा का समाजशास्त्र’, ‘साझा संस्कृति, सामाजिक आतंकवाद और हिंदी सिनेमा’ समेत साहित्य और समाजशास्त्र से जुड़े कई विषयों पर उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित और सम्मानित हो चुकी हैं। न्यू डेल्ही फिल्म फाउंडेशन के टॉक सिनेमा सीरीज़ के तहत आयोजित कई सत्रों में शामिल होते रहे हैं और सिनेमा के सामाजिक पहलुओं पर नई रोशनी डालते रहे हैं। सीरीज़ के रुप में पुस्तक के इस आलेख का प्रकाशन हमारी सिने बुक रिव्यू श्रृंखला की एक कड़ी है।

‘मुग़ले आज़म’ का निर्माण करते हुए फ़िल्मकार ने इतिहास और दंतकथा के पारस्परिक अंतःसंबंधों को नज़रों से ओझल नहीं होने दिया है। इस फ़िल्म में निर्मित अकबर का चरित्र बहुत कुछ वैसा ही है जैसा हमें इतिहास की पुस्तकों में पढ़ने को मिलता है। एक उदार शासक जो हिंदू और मुसलिम एकता का जबर्दस्त समर्थक है, जो चाहता है कि इस देश के लोग प्रेम और भाईचारे के साथ रहें। जो धर्म के मामले में न केवल उदार है बल्कि दूसरे धर्मों का उतना ही आदर करता है जितना कि वह इस्लाम का करता है। अकबर ने कई हिंदू राजकुमारियों के साथ विवाह किया बाद में जिन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया था हालांकि इन हिंदू राजकुमारियों के परिवार तब भी हिंदू बने रहे। जैसा कि राजा भारमल की पुत्री जिसका विवाह के बाद नाम मरियम उज्ज़मानी हो गया था। लेकिन यह भी सही है कि इन हिंदू रानियों को अपने महलों में अपना धर्म और अपने तीज-त्योहार मनाने की पूरी छूट थी। यही नहीं खुद अकबर इनमें शामिल होता था। अकबर ने जजिया जैसे बहुत से कर हटा दिए थे जो गैरमुस्लिमों पर लगाए जाते थे। अकबर धर्म के मामले में न सिर्फ उदार था बल्कि अपने समय को देखते हुए वह कई मामलों में प्रगतिशील भी था। प्रसिद्ध इतिहासकार इरफ़ान हबीब ने अकबर पर लिखे अपने लेख में बताया है कि किस तरह अकबर ने गुलाम बनाने और उनकी खरीद-फरोख्त को रोकने, पुरुष द्वारा एक विवाह को प्रोत्साहित करने, बाल विवाह को रोकने, जबरन सती प्रथा पर रोक लगाने, माता-पिता की संपति में लड़कियों को बराबर का हिस्सा दिलाने के प्रयत्न किये7 अकबर ने हिंदू और जैन धर्म के प्रति सम्मान प्रदर्शित करते हुए साल के बहुत से दिनों में पशु हत्या को प्रतिबंधित कर दिया था। यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि अकबर पहला शासक है जिसने राजकाज के मामलों में धर्म के आधार पर भेदभाव को मिटाने की कोशिश की। दूसरे धर्मों के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने का नतीजा था कि उसने ‘दीने-इलाही’ के नाम से एक ऐसे पंथ की शुरुआत करने की कोशिश की जो सभी धर्मों के रूढ़िवाद से मुक्त हो। अकबर की सोच और व्यवहार के कारण कट्टरपंथी मुसलमान उससे बहुत खुश नहीं रहते थे।8

दूसरी चीज जो इस फ़िल्म में अकबर के साथ जोड़ी गई है वह है हिंदुस्तान के साथ उसका लगाव। फ़िल्म आरंभ से अंत तक प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हिंदुस्तान के साथ अकबर के लगाव को रेखांकित करती है। इस फिल्म में कथावाचक की भूमिका हिंदुस्तान निभाता है। फ़िल्म के आरंभ में हिंदुस्तान ही कहानी आरंभ करता है और फ़िल्म के अंत में हिंदुस्तान ही दोबारा आता है और जो कुछ घटित हुआ उस पर टिप्पणी करता है। फ़िल्म के आरंभ में हिंदुस्तान के मुख से जो कहलाया गया है वहां इस देश के प्रति अकबर के लगाव पर बल दिया गया हैः

मैं हिंदोस्तान हूँ। हिमालय मेरी सरहदों का निगहबान है। गंगा मेरी पवित्रता की सौंगध है।…मेरे इन चाहने वालों में एक इंसान जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर था। अकबर ने मुझसे प्यार किया। मजहब और रव्वायत की दीवार से बुलंद होकर इंसान को इंसान से मुहब्बत करना सिखाया और हमेशा के लिए मुझे सीने से लगा लिया।

एक मध्ययुगीन बादशाह को जिसकी जड़ें भी पूरी तरह से इस देश में नहीं थी, उसे हिंदुस्तान नामक राष्ट्र के साथ जोड़ा जाना बहुत महत्त्व रखता है।9 इस देश के बारे में अकबर के सोच पर टिप्पणी करते हुए इतिहासकार जी. बी. मेलिसन ने लिखा था, ”अकबर का महान विचार यह था कि समस्त भारत का एकीकरण एक मुखिया के अधीन हो। उसने आरंभ में ही यह जान लिया था कि धार्मिक विश्वासों के एकीकरण से यह संभव नहीं है। इसलिए एकीकरण हितों के एकीकरण के रूप में ही होना चाहिए। इस एकीकरण को संपन्न करने के लिए पहली जरूरत विजय प्राप्त करने की थी; दूसरी जरूरत ईश्वर के प्रति सद्विवेक और पूजा की सभी पद्धतियों के प्रति सम्मान की भावना थी।…उसने अपने साम्राज्य की नींव इतनी गहरी कर दी थी कि उसका पुत्र अपने पिता के समान न होते हुए भी राज्य को विधिवत संभालने में समर्थ रहा। जब हम इस बात पर विचार करते हैं कि उसने जो किया और जिस तरह के दौर में किया और इसे करने के लिए जो तरीका उसने अपनाया तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि अकबर उन महान व्यक्तियों में से था, जिन्हें सर्वशक्तिमान परमात्मा राष्ट्रीय संकट के राष्ट्र की शांति तथा सहिष्णुता के मार्ग पर ले जाने के लिए भेजते हैं जिसके द्वारा ही लाखों-लाख लोगों की खुशियों को सुनिश्चित किया जा सकता है।“10

आजादी के बाद हमारे राष्ट्रवाद की संकल्पना को अकबर की उदारता और सहिष्णुता के साथ जोड़कर फ़िल्मकार देखना चाहता है। फ़िल्म अकबर को एक विदेशी हमलावर के रूप में नहीं देखती बल्कि उसे इस धरती की संतान के रूप में देखती है। फ़िल्म जैसे यह कहती प्रतीत होती है कि अकबर जो हिंदुस्तानी मूल का नहीं था वह यदि इस धरती से इतना प्यार कर सकता है तो हम जो इस धरती की ही संतान हैं चाहे हमारा धर्म कोई भी क्यों न हो, हम इससे प्यार क्यों नहीं कर सकते। यही एक चीज है जो इस फ़िल्म में केंद्रीय महत्त्व रखती है। यह बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है कि फ़िल्म में बादशाह अकबर के साथ घटी घटनाएं ऐतिहासिक रूप में सत्य है या नहीं। महत्त्वपूर्ण यह है कि यह दंतकथा अकबर जैसे महान बादशाह के बारे में है जो इतिहास में अपनी उदारता और सहिष्णुता के लिए प्रख्यात है और जिसने सारे देश को एकता के सूत्र में बांधने का प्रयत्न किया था और जो इस सच्चाई को समझ चुका था कि इस देश पर शासन तभी किया जा सकता है जब यहां रहने वाले सभी धर्मों के लोगों के बीच बिना किसी तरह का भेदभाव किए व्यवहार किया जाए।

इस फ़िल्म की शुरुआत में हिंदुस्तान का नक्शा पर्दे पर उभरता है। यह मौजूदा हिंदुस्तान है जिसमें से पाकिस्तान अलग हो चुका है।11 आजाद भारत औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति हासिल कर चुका है लेकिन साथ ही जिसके दो टुकड़े भी हो चुके हैं। यह विभाजन धर्म के आधार पर हुआ है। पाकिस्तान के विपरीत हिंदुस्तान ने एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश बनने का फैसला किया। इस धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य के सामने मौजूद चुनौतियां ही इस फ़िल्म के अकबर और अनारकली-सलीम की प्रेमकथा को निर्मित करने के कारक बनते हैं। अनारकली पर बनने वाली अन्य फिल्मों से ‘मुग़ले आजम’ का बुनियादी अंतर उसकी इस प्रासंगिकता में निहित है। 1953 की ‘अनारकली’ में जोर सलीम और अनारकली के प्रेम पर है। इस फ़िल्म में अकबर की उदारता और हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सद्भाव और सौहार्द पर बल है लेकिन फ़िल्म का केंद्रीय विषय सलीम और अनारकली का प्रेम ही है। इस प्रेम के बीच गुलनार (यही गुलनार ‘मुग़ले आज़म’ में बहार के रूप में आती है) नाम की स्त्री अंततः अनारकली को सजा दिलवाने और जिंदा दफ्न करवाने में कामयाब हो जाती है। इसके विपरीत ‘मुग़ले आज़म’ में सलीम अनारकली की प्रेमकथा में बल इस त्रिकोण पर नहीं है। इस प्रसंग का इस्तेमाल कथा को आगे बढ़ाने के लिए किया गया है लेकिन यहां प्रेमकथा का तीसरा कोण स्वयं मुग़ल सम्राट अकबर है जो इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है कि वह एक मामूली कनीज को हिंदुस्तान के होने वाले बादशाह (सलीम) की बीबी तस्लीम करे। मामूली कनीज को वह दर्जा कैसे मिल सकता है जो अभिजात वर्ग के लिए सुरक्षित है।

यहां खास बात यह है कि अकबर एक राजपूत स्त्री को न सिर्फ अपनी पत्नी बनाते हैं बल्कि उसे महारानी का दर्जा भी देते हैं और उससे उत्पन्न संतान सलीम (जो इतिहास में जहांगीर के नाम से प्रसिद्ध है) ही हिंदुस्तान का अगला बादशाह बनता है। दंतकथा के अनुसार जोधाबाई जयपुर रियासत के राजा और अकबर के सेनापति मानसिंह की बहन है। वह हिंदू है लेकिन शाही खानदान की। अनारकली मुसलमान है लेकिन एक मामूली कनीज है। अकबर धर्म के मामले में उदार हो सकते हैं लेकिन उनका वर्गीय दृष्टिकोण अभिजात हितों से संचालित होता है। सलीम और अनारकली की प्रेमकथा में अभिजात बनाम साधारण के बीच का संघर्ष ही वह मूल तत्व है जो इस कथा का ऐसा ऐतिहासिक सत्य है जो इस दंतकथा की रचना का कारण रहा होगा। अकबर अपने अभिजात हितों को हिंदुस्तान की आड़ में पेश करता है। वह सलीम और अनारकली के मुकाबले खुद को और हिंदुस्तान को लाता है। इस प्रकार एक प्रेमकथा के मुकाबले दूसरी प्रेमकथा है। पहली प्रेमकथा दो इंसानों की प्रेमकथा है लेकिन अकबर का प्रेम हिंदुस्तान नामक राष्ट्र से है। इस प्रकार व्यक्ति प्रेम को राष्ट्र प्रेम के रुबरु रखा गया है। हिंदुस्तान के प्रति अपने प्रेम और कर्तव्य की दुहाई देकर ही अकबर सलीम को अनारकली से अलग करने की कोशिश करता है। फिल्म इस बात को नहीं छुपाती कि अकबर का राष्ट्रीय हित की दुहाई देना दरअसल अपने वर्गीय हितों की रक्षा करना है।

सलीम और अनारकली का मुसलमान होना इस प्रेमकथा में संघर्ष का कारण नहीं बनता। प्रेमकथा में संघर्ष का कारण बनता है उनका दो अलग-अलग वर्गों से होना। यह शासक और शासित, राजा और रंक, अमीर और गरीब और मालिक और गुलाम के बीच का संघर्ष है। आमतौर पर लोककथाओं में सत्ता और सत्ताविहीन के बीच के प्रेम और उससे उत्पन्न संघर्ष को ही केंद्रीय धुरी बनाया जाता है। यहां धर्म को इस संघर्ष का आधार नहीं बनाया जाना बहुत महत्त्वपूर्ण है। अकबर ही नहीं दूसरे बादशाहों द्वारा भी दूसरे धर्मावलंबियों से शादी करना कभी भी बड़ा मुद्दा नहीं बना। शर्त सिर्फ यह होती है कि वह दूसरा भी अभिजात वर्ग से हो। यह इस प्रेमकथा का दूसरा महत्त्वपूर्ण बिंदु है।

सिने बुक रिव्यू श्रृंखला के तहत‘न्यू डेल्ही फिल्म फाउंडेशन’ पर आप सिनेमा से जुड़ी नई पुस्तकों की( पुरानी और महत्वपूर्ण पुस्तकों की भी) नियमित रुप से जानकारी पा सकेंगे और उनकी समीक्षा और उनके अंश भी पढ़ सकेंगे। इसके अलावा हम उन पुस्तकों पर अपने यूट्यूब प्लैटफॉर्म पर भी चर्चा का आयोजन करेंगे। सिने बुक रिव्यू के नाम से शुरु इस पहल के लिए हम रचनाकारों, समीक्षकों और प्रकाशकों के सहयोग के आकांक्षी हैं। अधिक जानकारी के लिए ई मेल पर संपर्क करें ndff.india@gmail.com

कह सकते हैं कि दंतकथाओं के रूप में इस तरह की प्रेमकथाओं की रचना द्वारा जनता प्रकारांतर से अपने शासक वर्ग की आलोचना पेश करती है। सलीम-अनारकली की प्रेमकथा का अकबर जैसे महान बादशाह से जुड़ने का खास महत्त्व यह भी है कि प्रेम की ताकत अकबर जैसे महान बादशाह की सत्ता से भी टकरा सकती है जिसके सामने दूसरे बादशाहों की कोई हैसियत नहीं है। इस तरह इन प्रेमकथाओं के माध्यम से जनता यह एहसास कराती है कि धन और सत्ता की ताकत से भी बड़ी ताकत प्रेम की होती है क्योंकि प्रेम ही है जो अमीर और गरीब, बादशाह और गुलाम के बीच के फर्क को मिटा देती है। लेकिन आमतौर पर इन प्रेमकथाओं का अंत दुखद होता है। या तो दोनों प्रेमी मारे जाते हैं या फिर वह जो धन या बल से कमजोर है। इस प्रेमकथा में भी अंत में कनीज अनारकली मारी जाती है। सलीम बचा रहता है जिसे बाद में हिंदुस्तान का बादशाह बनना है और नूरजहां सहित कई राजकुमारियों से विवाह करना है। इस प्रकार अनारकली और सलीम की दंतकथा वास्तविक इतिहास से जुड़कर अनारकली की मौत से भी अधिक त्रासद बन जाती है। जहां अनारकली के लिए अपने पिता से जंग करने वाला शाहजादा सत्तासीन होने के बाद न सिर्फ उस कनीज को भूल जाता है बल्कि उसके अस्तित्व को भी इतिहास से मिटा दिया जाता है।

यहां यह प्रश्न उठ सकता है कि एक ऐसी कथा जिसकी ऐतिहासिकता अप्रमाणित हो, उसका इतिहास के संदर्भ में मूल्यांकन करना क्या अर्थ रखता है? क्या सलीम-अनारकली की कथा के माध्यम से अकबर और उसके समय को जानना-समझना संभव है और क्या ऐसा करना उचित है? इस सवाल का उत्तर दरअसल इस दंतकथा की लोकप्रियता में निहित है। दंतकथा की लोकप्रियता ने ही एक नाटककार को उस पर नाटक लिखने के लिए और कई फिल्मकारों को इस पर फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया। जाहिर है कि एक ही प्रेमकथा को बारबार पेश करना चाहे वह कितनी ही लोकप्रिय क्यों न हो, बुद्धिमानी की बात नहीं है। तब तो और भी नहीं जब इस फ़िल्म के निर्माण के दौरान ही अनारकली की कथा को आधार बनाकर एक लोकप्रिय फ़िल्म बन चुकी हो। 1953 में बनी ‘अनारकली’ से पहले ‘मुग़ले आजम’ पर काम शुरू हो चुका था। फ़िल्म निर्माण के दौरान ही ‘अनारकली’ का प्रदर्शन भी हो गया और उसे पर्याप्त लोकप्रियता भी मिली। इसके बावजूद के. आसिफ ने न सिर्फ इस कथानक पर फ़िल्म बनाई बल्कि यह भी साबित किया कि फिल्म के पर्दे पर बारबार दोहराई जाने वाली कहानी को भी इस ढंग से बनाया जा सकता है कि लोग उसे एक बार नहीं बल्कि बारबार देखना पसंद करे।

contd…

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