गुलज़ार की फिल्मों का ज़िंदगीनामा

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गुलज़ार की फिल्मों का ज़िंदगीनामा

नई ज़िंदगी की तलाश करती गुलज़ार की फिल्में

           Ajay Kumar Sharma
Ajay Kumar Sharma

एक शायर और गीतकार के तौर पर गुलज़ार आज भी सक्रिय हैं, लोकप्रिय हैं और प्रासंगिक हैं। बल्कि साल दर साल उनकी लोकप्रियता और मुकाम और ऊंचाई हासिल करता जा रहा है। उनकी शख्सियत के इस पहलू के घने साए में अक्सर फिल्मकार गुलज़ार की चर्चा छिप जाती है या फिर बाकी रह जाती है। गुलज़ार साहब के 89वें जन्मदिन 18 अगस्त के मौके पर अजय कुमार शर्मा इस पहलू पर रोशनी डाल रहे हैं। पत्रकारिता और साहित्य सृजन में लंबा अनुभव रखने वाले अजय कुमार शर्मा चार दशकों से देश की प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में साहित्य, संस्कृति, नाटक, इतिहास, सिनेमा और सामाजिक विषयों पर निरंतर लेखन करते रहे हैं।  पिछले दो वर्षों से सिनेमा पर साप्ताहिक कॉलम “बॉलीवुड के अनकहे किस्से” का नियमित प्रकाशन हो रहा है। वर्तमान में वो दिल्ली के साहित्य संस्थान में संपादन कार्य से जुड़े हैं।

गुलज़ार का परिचय-कोई एक परिचय नहीं । वे अनेक कला माध्यमों से जुड़े हैं- वे एक मशहूर शायर तो हैं ही कविताएँ भी लिखते हैं और कहानियाँ भी…

फिल्मों के यादगार गीत रचते हैं तो अनूठे संवाद और पटकथाएँ भी… जब फिल्में निर्देशित करते हैं तो बिमल रॉय के स्कूल को तो आगे बढ़ाते ही हैं  बल्कि  उनमें अपने ‘गुलज़ारपन’ का ऐसा स्पर्श छोड़ते है जो हम सब की जिंदगी में एक मीठा सा… भीगा सा… रूमानी सा लम्हा पिरो जाते हैं। उन्होंने बच्चों के लिए भी पूरी मेहनत और ईमानदारी से लिखा है। उनकी किताबों का नाम लेना शुरू करें तो कई कॉलम ऐसे ही निकल जाएं।

दीना (अब पाकिस्तान ) में 1934 में जन्में  गुलजार ऊर्फ संपूर्ण सिंह कालरा विभाजन के बाद दिल्ली पहुंचे और फिर वहां से बंबई (अब मुंबई) यहां लिखते पढ़ते, गैराज में काम करते हुए किसी तरह बुलवाए गए बिमल  रॉय द्वारा एक गीत लिखने के लिए । और पहले ही गीत मेरा रंग दे मोहे श्याम रंग दे दे से प्रतिष्ठित हो गए। बिमल रॉय के साथ सहायक निर्देशक के रूप में उन्होंने 1963 में अपना फिल्मी कैरियर आरंभ किया। उनके द्वारा निर्देशित पहली फिल्म ,”मेरे अपने” 1971 में प्रदर्शित होती है। उन्होंने कुल 17 फिल्मों का निर्देशन किया जिसमें एक फ़िल्म लिबास का प्रदर्शन नहीं हो पाया।

Films of Gulzar

उनकी निर्देशित अन्य फिल्मों का क्रम है- परिचय , कोशिश, अचानक, खुशब, आँधी, मौसम, किनारा किताब, अंगूर, नमकीन, मीरा, इजाजत, लेकिन, माचिस और   हुतूतू । यह उनकी निर्देशित अंतिम फिल्म जो 1999 में प्रदर्शित हुई। इस दौरान दूरदर्शन पर ‘मिर्जा गालिब  सहित अन्य धारावाहिक और कुछ व्रत्तचित्रों का निर्माण भी किया है। उनकी फिल्मों पर बात करना थोड़ा अलग और मुश्किल इसलिए भी  है कि बात उनके केवल निर्देशन की ही नहीं बल्कि फिल्म की कहानी, पटकथा, संवाद, गीत की भी होगी जिसको वे स्वयं ही रचते हैं। निर्देशक के तौर पर काम शुरू करने से पहले ही वे एक अच्छे गीतकार और लेखक के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे।

Earlier Cinema of Gulzar

उन्होंने  सत्तर के दशक में जब निर्देशन शुरू किया तब  हिंदी  के दिग्गज  निर्देशकों की एक पूरी पीढ़ी खत्म हो चुकी थी और नए निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी, विजय आनंद, बासू  भट्टाचार्य, बासू चटर्जी, सई परांजपे और श्याम बेनेगल अपनी पहचान बना रहे थे। वे इन सबसे अलग इसलिए  भी है क्योंकि उनमें जो कई  विधाओं का सम्मिश्रण केवल उनमें है जो उनकी फिल्मों का विशेष बनाता है। इस कारण उनकी फिल्मों के गीत-संगीत, संवाद पटकथा और कहानियाँ भी कसी हुई और संतुलित होती हैं। उनकी फिल्में उपन्यासों  की बजाए छोटी-बड़ी कहानियों पर केंद्रित होती हैं। इस संबंध में गुलजार ने स्वयं एक साक्षात्कार में कहा था कि फिल्म के लिए उपन्यास की बजाए मुझे कहानियाँ अनुकूल लगती है। मुझे लगता है कि उपन्यास में अतीत की बातें ज्यादा होती हैं, उनमें काट-छांट करना  कठिन होता है। कहानी इसलिए अच्छी लगती है कि वह ‘टू द प्वाइंट” होती है। कहानी में उतने ही पात्र होते हैं, जितने ज़रूरी हैं।

Offbeat Cinema of Gulzar

गुलज़ार की फिल्मों का ज़िंदगीनामा

गुलज़ार की फिल्मों का ज़िंदगीनामा संवेदना का एक अलग धरातल रचता है। गुलजार अपनी फिल्मों के पात्र ऐसे चुनते हैं जो हम आप जैसे ही सामान्य होते हैं। वे लार्जर दैन लाइफ नहीं होते। हमारे आसपास के सहज पात्र। इनका एक दूसरे से रिश्ता, उनका टूटना और जुड़ना (गुलजार का पसंदीदा विषय) महत्वपूर्ण होता है। विभाजन की त्रासदी और बचपन में ही मां खो देने का दुख और फिर विस्थापन के दौरान रिश्तों की तोड़-फोड़ उनके भावुक मन में संचित होती रही, लेकिन गुलज़ार की अधिकाँश फिल्मों में सब कुछ गंवाने के बाद भी नई जिंदगी शुरू करने की तीव्र  आकांक्षा रहती है। अपनी फिल्मों की कहानी लिखते वक्त या दूसरे  लेखक की कहानी को अपनी फिल्म के लिए चुनते समय गुलजार इस ‘नई जिंदगी की तलाश’ नहीं छोड़ते। इसीलिए वे बार-बार अपने अतीत में लौटते हैं। वे कहते हैं अतीत शायद सभी को मोहता है। पीछे का यह सफ़र जैसे-जैसे आदमी का कद ऊँचा होता जाता है क्षितिज की रेखा और दूर होती जाती है और नज़र की हदे फैलती जाती हैं। यों तो गुलजार का सिनेमा शहर केंद्रित है पर यह शहरी समाज भी अपने पिछले ग्रामीण मूल्यों से कटा भी नहीं है। निराशा, मोहभंग और आधुनिकता के दबावों तले मानवीय मूल्य पूरी तरह खत्म नहीं हुए है। उनके फिल्मी रिश्ते पढ़े-लिखे, अमीर और वर्ग या सामाजिक  हैसियत में कितने ही बड़े है लेकिन अपने आस पास  की छोटी दुनिया , घर के नौकर या पास  पड़ोस के साथी/ दोस्त के साथ सहज और मानवीय व्यवहार में कहीं आड़े नहीं आती।

89 वर्ष की अवस्था में भी सक्रिय गुलजार अभी भी गीत और कहानियां लिख रहे हैं… अपने पाठकों के लिए वे इसी तरह लंबे समय तक सक्रिय रहें यही दुआ है हमारी…

चलते चलते

गुलजार की चर्चित फिल्म आंधी जो 1975 में रिलीज हुई थी कमलेश्वर के उपन्यास काली आंधी पर केंद्रित बताया जाता है । लेकिन ऐसा है नहीं। हाल ही में उन पर आई किताब में यह खुलासा होता है कि गुलजार के मित्र और उनके सहयोगी भूषण वनमाली ने एक बातचीत के दौरान यह कहानी गुलजार और कमलेश्वर को साथ-साथ ही  सुनाई थी। इस कहानी के आधार पर कमलेश्वर ने उपन्यास और गुलजार ने पटकथा लिखना शुरू किया था। इसीलिए दोनों के मुख्य पात्र और घटनाएं वही हैं लेकिन पटकथा और उपन्यास में इन्हें अलग-अलग तरीकों से लिखा गया है। फिल्म के क्रेडिट में कथा कमलेश्वर की बताई गई है तो सह लेखक के रूप में भूषण वनमाली का  नाम दिया गया है।

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