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मुग़ल ए आज़म 6: अनारकली को माफ़ी बानज़रिए अकबर

एक बादशाह के अपने देश से और अपने सिद्धांतों से प्यार की कीमत एक मामूली कनीज़ को अपनी जिंदगी देकर चुकानी पड़ती है। वह जिन उसूलों की बात करता है उनमें बराबरी की बात शामिल नहीं है। यह गैरबराबरी नस्ली अहंकार और और निरंकुश सत्ता के मद से उपजी है। यह गैरबराबरी किसी धर्मनिरपेक्ष और बहुलतावादी सत्ता को भी लंबे समय तक सुरक्षित नहीं रख सकती। यह बात जितनी अकबर के समय के लिए सत्य है, उससे भी कहीं ज्यादा आज के लिए सच है।

मुग़ल ए आज़म 5: प्यार किया तो डरना क्या…

‘मुग़ले आज़म’ में न्याय का प्रतीक तराजू साझा संस्कृति के प्रतीकों से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। फ़िल्म में इस तराजू को किले की खुली जगह पर रखा बताया जाता है और उसका आकार इतना बड़ा होता है कि अकबर भी उसके सामने बौने नज़र आते हैं। इस तरह फ़िल्मकार शायद यह बताना चाहता है कि इंसाफ का यह तराजू किसी राजा की हैसियत से बहुत बड़ा है। अकबर की नज़र में इंसाफ की कीमत आदमी की निजी सत्ता से कहीं ज्यादा है।

मुग़ल ए आज़म 4: अकबर की हुकूमत में एक संगतराश की आवाज़

‘मुग़ले आज़म’ की पूरी कथा इन्हीं तीन चित्रों के इर्दगिर्द बुनी गई है। अकबर द्वारा एक कनीज को मौत की सजा देना उस चित्र की माफिक है जिसमें बताया गया है कि ”शहंशाह की जबान से निकला हर लफ्ज इंसाफ है जिसकी कोई फरियाद नहीं“। अनारकली के लिए सलीम और अकबर में युद्ध होना जंग के उस चित्र की तरह है जिसके बारे में संगतराश कहता है, ”और ये मैदाने जंग है… लाखों लोगों की मौत और एक इंसान की फतह“। अनारकली का दिवार में चुनवा दिया जाना उस तीसरे चित्र के समान है जिसके बारे में संगतराश कहता है, ”और ये है, सच बोलने का अंजाम, सजा-ए-मौत“।

मुग़ले आज़म 3: शहंशाह अकबर के ‘राष्ट्रवाद’ की महागाथा

यह बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है कि फ़िल्म में बादशाह अकबर के साथ घटी घटनाएं ऐतिहासिक रूप में सत्य है या नहीं। महत्त्वपूर्ण यह है कि यह दंतकथा अकबर जैसे महान बादशाह के बारे में है जो इतिहास में अपनी उदारता और सहिष्णुता के लिए प्रख्यात है और जिसने सारे देश को एकता के सूत्र में बांधने का प्रयत्न किया था और जो इस सच्चाई को समझ चुका था कि इस देश पर शासन तभी किया जा सकता है जब यहां रहने वाले सभी धर्मों के लोगों के बीच बिना किसी तरह का भेदभाव किए व्यवहार किया जाए।

Mughal e Azam

मुग़ले आज़म 2: इतिहास, दंतकथा और कल्पना का अंतर मिटाने वाली फिल्म

मुग़ले आज़म फ़िल्म में जिस हिंदुस्तान को पेश किया गया है उसके पीछे लोकतांत्रिक भारत के प्रति फ़िल्मकार की आस्था व्यक्त हुई है। यह आस्था भारत की मिलीजुली संस्कृति और धार्मिक सहिष्णुता की परंपरा में भी निहित है। फ़िल्मकार के इस नज़रिए को समझे बिना हम ‘मुग़ले आज़म’ को एक दंतकथा पर बनी प्रेमकहानी मात्र समझने की भूल करेंगे।

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मुग़ले आज़म 1: भारतीय सिनेमा का सबसे बड़ा महाकाव्य

के आसिफ की ‘मुग़ले आज़म’ जिस विराट महाकाव्यात्मक कैनवास को लेकर बनाई गई थी उसे प्रायः समझा ही नहीं गया। ‘मुग़ले आज़म’ को तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक कि हम इस बात को ध्यान में नहीं रखते कि यह फिल्म विभाजन की भयावह त्रासदी से उभरते देश के एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्र बनने के आरंभिक सालों की समानांतर रचना है।

धरती को आकाश पुकारे: शरद दत्त का महाप्रयाण

प्रसिद्ध शायर-गीतकार साहिर लुधियानवी पर उन्होंने दो माह पूर्व ही पुस्तक लेखन का कार्य सम्पन्न किया था। इस बारे में बात करते हुए उन्होंने मुझे कहा था कि साहिर पर पुस्तक पूरी हो गयी है और मुझे अपने भीतर जिस संतुष्टि की अनुभूति हो रही है उससे मैं बड़ा आनन्दित हूँ। एक लेखक जब अपनी किसी कृति को लेकर इस प्रकार सन्तोष का अनुभव कर रहा हो तो उसके इस कार्य की गुणवत्ता को सहज ही समझा जा सकता है। शरद दत्त के निधन के पश्चात् यह पुस्तक प्रकाशित होगी इसका भान तब किसे था?

दिलीप कुमार: सालगिरह पर साहिब-ए-आलम की याद

आज दिलीप कुमार ज़िंदा होते तो 99 साल के होते…. 11 दिसंबर 1922 को पेशावर में वो पैदा हुए थे… और इसी साल जुलाई में वो दुनिया को अलविदा कर गए…। इस मौके पर...

नाम में क्या रखा है : दिलीप कुमार के बहाने

हिंदुस्तानी सिनेमा की जो धर्मनिरपेक्षता और साझा संस्कृति की परंपरा रही है, दिलीप कुमार उसी परंपरा के महान आइकन हैं क्योंकि वे जितने दिलीप कुमार हैं, उतने ही यूसुफ खान भी हैं। वे जितने देवदास हैं, उतने ही शहज़ादा सलीम भी हैं, जितने मुंबई के हैं, उतने ही पेशावर के भी हैं और जितने उर्दू के हैं, उतने ही हिंदी के हैं