पंचलाइट की रोशनी में ‘पंचायत’
TVF आमतौर पर अपने कंटेंट में किसी सामाजिक मुद्दे पर तीखा व्यंग्य करता है, ‘पंचायत’ में ये अलग अंदाज़ में, अलग विषयवस्तु के साथ है। राजनीति में महिलाओं की भूमिका को सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण शुरू हुआ था लेकिन गांवों में स्थानीय स्तर पर जनप्रतिनिधि बनी महिलाएं आज भी इस रेस में बहुत पीछे हैं। देश के गांवों में ‘प्रधान-पति’ के कल्चर से हर कोई वाकिफ है और इस वेब सीरिज़ में इसी कल्चर पर चोट की गई है। पारुल बुधकर की समीक्षा
किसके यहां से हैं आप…? अमेज़ॉन पर नई वेब सीरीज़ पंचायत का नायक अभिषेक जब गांव फुलेरा में बिस्किट की दुकान ढूंढने निकलता है, तो पता पूछने पर हर जगह उससे सबसे पहले, लगभग गाते हुए अंदाज़ में यही सवाल पूछा जाता है। गांव की दुनिया छोटी होती है, पर सरोकार बड़े होते हैं। लोगों के पास फ़ुर्सत होती है, सब कुछ जानने की, सब कुछ सुनने की, सब कुछ बताने की…। इसी फुर्सत वाली दुनिया में जब एक आधुनिक शहर का नौजवान ग्राम पंचायत के सचिव की नौकरी करने पहुंचता है तो जो कुछ होता है वो सभ्यताओं के टकराव से कम नहीं होता। गनीमत ये है कि यहां हमारा युवा नायक भी थोड़ा संकोची स्वभाव का सभ्य दिखाया गया है सो गांव के जीवन की लय पर ही इस बेव सीरीज़ की रफ्तार तय की गई है, लेकिन जो रचा गया है वो वेब सीरीज़ की दुनिया में चल रहे ट्रेंड के लिहाज़ से बिलकुल अलग है और वेब कंटेंट के नाम पर तय कर दिए गए संकरे दायरे का और विस्तार करता है।
Amazon Prime पर द वायरल फीवर (TVF) की नई वेब सीरीज़ ‘पंचायत’ कहानी है यूपी के बलिया ज़िले के गांव फुलेरा की। कॉर्पोरेट की हाईफ़ाई नौकरी का सपना टूटने के बाद असफलता के डर और कुंठा से जूझता अभिषेक त्रिपाठी (जितेंद्र कुमार) अपने हिस्से में आई इकलौती नौकरी ज्वाइन करने बड़े बेमन से इस गांव में पहुंचता है। पंचायत के सेक्रेटरी की इस सरकारी नौकरी के दौरान वो किन परिस्थितियों का सामना करता है और और इस नई दुनिया नए लोगों के बीच उसे किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, इसी की कहानी है ‘पंचायत’। लेकिन इस बात की तारीफ करनी होगी कि ये वेब सीरीज़ बड़ी सादगी और सच्चाई से बनाई गई है।
TVF की वेब सीरीज़ अक्सर युवाओं पर केंद्रित होती है। इससे पहले बनाई गई चाहे ‘कोटा फैक्ट्री’ हो या ‘हॉस्टल डेज़’, कॉलेज स्टूडेंट्स पर बनाई गई कहानियों में भाषा और ट्रीटमेंट ऐसा रहा है जिसे परिवार के साथ बैठकर देखना संभव नहीं होता। एक खूबसूरत, मनोरंजक पारिवारिक वेब सीरिज़ की शुरूआत TVF ने ‘ये मेरी फैमिली’ से की और ‘पंचायत’ उसी की अगली कड़ी है। ‘पंचायत’ में हर किरदार को बहुत ही सोच-समझ कर बनाया गया है। शहर का युवा जो गांव की पोस्टिंग वाली सरकारी नौकरी में फंस जाता है, गांव की महिला प्रधान जिन्हे प्रधानी से कोई सरोकार नही, प्रधान-पति जो महिला प्रधान के पति हैं, पर प्रधान का कामकाज वही संभालते हैं, और फिर गांव के लोग जिनकी दुनिया में स्मार्टफोन आ चुके होने के बावजूद बहुत कुछ बदला नहीं है।
कुछ लोगों की शिकायत है कि ये असली गांव नहीं, ये तो थोड़ा फिल्मी गांव लग रहा है, तो इसके विरोध में दो बातें है। पहला- ऐसे लोगों को एक बार गांव दोबारा जाना चाहिए, जो उनकी स्मृतियों वाले ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है’ से काफी आगे बढ़ चुका है। हां एक दो जगह सिचुएशन, कैरेक्टर या अदायगी बनावटी या अति सरल लग सकती है, लेकिन उसे इग्नोर किया जा सकता है और माध्यम की खातिर किया समझौता करार दिया जा सकता है। खास बात ये है कि गांव के जीवन की सूक्ष्मता को औऱ किरदारों के नुआंसेज़ यानी भंगिमाओं की बारीकियों को जिस तरह पकड़ा गया और दिखाया गया है, उसके लिए राइटर चंदन कुमार और डायरेक्टर दीपक कुमार मिश्रा (जो इलेक्ट्रीशियन की छोटी सी भूमिका में दिखते भी हैं) की जितनी भी तारीफ की जाए कम है।
‘पंचायत’ में गांव की सुबह 9 बजे वाली दोपहर का भी ज़िक्र है, शाम 7 बजे के सन्नाटे का भी और दो रुपए पीस बिकने वाले पेठे का भी। गांव के बाहर वाले पेड़ का भूत भी है, शादी में रुठ जाने वाला कमसिन उमर का शौकीन दूल्हा भी और रिंकिया के पापा यानी प्रधान-पति भी हैं। पंचायत में गांव के सारे बिंब उनको मनोरंजक बनाने वाली नज़र के साथ पेश किए गए हैं और यही वजह है कि इसे देखते हुए हिंदी के पाठकों को श्रीलाल शुक्ला के कालजयी उपन्यास ‘राग दरबारी’ की याद हो आएगी।
वेब की दुनिया में टियर 2 और टियर 3 के शहरों के जीवन पर आधारित कंटेंट का बोलबाला है। लेकिन इन्ही शहरों में (और महानगरों में भी) एक बड़ी आबादी है, जिसका गांवों से नाता रहा है। ‘पंचायत’ उसी दर्शक वर्ग के लिए है। निश्चित तौर पर वो इससे रिलेट करेंगे और एन्जॉय भी करेंगे।
राइटर और डायरेक्टर ने जो रचना चाहा उसे कलाकारों ने और आगे पहुंचा दिया। ‘पीपली लाइव’ के बाद से रघुवीर यादव अक्सर गंवई किरदारों में दिखते रहे हैं। लेकिन यहां प्रधान-पति की असुरक्षाएं के साथ साथ पति की कोमल भावनाएं, राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं के साथ साथ सचिव से सहानुभूति जैसे कई लेयर्स वाले रोल को उन्होने बेहद खुलकर और सहजता से निभाया है। हाथ उठा कर बोलने और हाथ झुलाकर चल देने वाले प्रधानपति को देख एकबारगी ध्यान ही नहीं आता कि ये रघुवीर यादव हैं।
फुलेरा गांव पंचायत की प्रधान की भूमिका में नीना गुप्ता हैं। शुरु में लगता है कि कास्टिंग गलत हो गई, लेकिन उनकी एक्टिंग ही है कि आखीर में उनका कम स्क्रीन टाइम अखरता है। उनके भी कैरेक्टर में इतने शेड्स हैं कि मन करता है वो ज्यादा स्क्रीन पर रहतीं तो ज्यादा मज़ा आता। उम्मीद है दूसरे सीज़न में निर्माता इसका ध्यान रखेंगे।
TVF के सबसे फेवरेट जितेंद्र कुमार मुख्य भूमिका में है और हमेशा की तरह उन्होंने इस बार भी बेहतरीन काम किया है। ऊपरी तौर पर तो उनका किरदार एक बेमन में पंचायत सचिव की नौकरी करते एक कुंठित शहरी युवा का है। लेकिन उन्होने अलग अलग सिचुएशन में आते मनोभावों को चेहरे पर इतनी सरलता से पैदा किया है, कि बगैर डायलॉग वाले सीन भी बेहतरीन बन पड़े हैं। और यही खासियत है सचिव के सहायक की भूमिका निभाने वाले अभिनेता चंदन रॉय की, जिन्हे इस सीरीज़ का सबसे बड़ा सरप्राइज़ कहें तो गलत नहीं होगा। चंदन रॉय की कास्टिंग इस सीरीज़ का सबसे स्ट्रॉन्ग प्वाइंट है। एक एक भाव-भंगिमा, संवाद अदायगी ज़बरदस्त है… मतलब जितनी देर वो दिखते हैं खुद ब खुद मनोरंजन होता है। उनकी मौजूदगी और परफॉर्मेंस इतनी नैचुरल है कि उनके किरदार पर ध्यान ही नहीं जाता कि ये बंदा एक्टिंग कर रहा है। ऐसा लगता है जैसे उन्हे उसी गांव से उठाकर यहां रख दिया है। हालांकि इसके पीछे राइटर और डायरेक्टर की भी बड़ी भूमिका होती है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि उनके लिखे-बताए को चंदन और आगे तक ले जाते हैं।
TVF आमतौर पर अपने कंटेंट में किसी सामाजिक मुद्दे पर तीखा व्यंग्य करता है, ‘पंचायत’ में ये अलग अंदाज़ में, अलग विषयवस्तु के साथ है। राजनीति में महिलाओं की भूमिका को सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण शुरू हुआ था लेकिन गांवों में स्थानीय स्तर पर जनप्रतिनिधि बनी महिलाएं आज भी इस रेस में बहुत पीछे हैं। देश के गांवों में ‘प्रधान-पति’ के कल्चर से हर कोई वाकिफ है और इस वेब सीरिज़ में इसी कल्चर पर चोट की गई है।
सीरीज़ का माहौल गुडी गुडी रखा गया है.. स्ट्रॉन्ग नेगेटिव शेड कहीं नहीं है। ‘पंचायत’ में जीवन की बड़ी बड़ी घटनाएं-दुर्घटनाएं नहीं हैं, गांव की छोटी छोटी बातों को बड़े बड़े कन्फ्लिक्ट में बदला गया है। शायद यही वजह है कि कहीं कहीं कहानी खिंचती सी लगती है, लेकिन स्क्रीनप्ले, डायरेक्शन और कलाकारों की एक्टिंग इसे देखने लायक बना देता है। इस सीरीज़ की सबसे बड़ी खासियत इसकी ओरिजिनलटी है।
लॉकडाउन के चलते मद्धम पड़ी लाइफ़ के लिहाज़ से पंचायत एक स्लो पेस वाला बढ़िया एंटरटेनमेंट है। इसे बस तथाकथित ‘वेबसीरीज़’ वाली अपेक्षाओं को किनारे कर मज़े लेकर आराम से देखिए।
सीज़न 1 में ‘राग दरबारी’ की तर्ज़ पर चल रही इस ‘पंचायत’ के अगले सीज़न में शायद रेणु के ‘पंचलाइट’ की भी थोड़ी रोशनी दिखे, क्योंकि सीरीज़ खत्म होते होते रिंकी को दिखाकर कथानक के ट्रैक का भी इशारा कर दिया गया है। बेसब्री से इंतज़ार रहेगा।