‘मदर इंडिया’ का महान फिल्मकार महबूब ख़ान
मूक फिल्मों के दौर से शुरुआत करने वाली पीढ़ी के महबूब खान संभवत:अकेले ऐसे फिल्मकार हैं, जिनकी फिल्में आजतक देखी, सराही जाती हैं और उनकी एक फिल्म ‘मदर इंडिया’ तो कालजयी है और जिसे ऑल टाइम क्लासिक हिंदी फिल्मों की फेहरिस्त में सबसे ऊंचे पायदानों पर रखा जाता रहा है। महबूब का जीवन दरअसल भारतीय सिनेमा के इतिहास के शुरुआती दौर का ही दूसरा पहलू है, जिसे जानना दिलचस्प भी है और ज़रुरी भी। 9 सितंबर को महबूब खान की 117वीं सालगिरह के मौके पर अजय कुमार शर्मा प्रस्तुत कर रहे हैं महबूब के जीवन की कहानी जिसमें हिंदी सिनेमा के इतिहास की कहानी भी छिपी हुई है। पत्रकारिता और साहित्य सृजन में लंबा अनुभव रखने वालेअजय कुमार शर्माचार दशकों से देश की प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में साहित्य, संस्कृति, नाटक, इतिहास, सिनेमा और सामाजिक विषयों पर निरंतर लेखन करते रहे हैं।पिछले दो वर्षों से सिनेमा पर साप्ताहिक कॉलम “बॉलीवुड के अनकहे किस्से” का नियमित प्रकाशन हो रहा है। वर्तमान में वो दिल्ली के साहित्य संस्थान में संपादन कार्य से जुड़े हैं।
भारतीय सिनेमा (बॉलीवुड) को देश और विदेश में एक सम्मानित पहचान दिलाने में कई महत्वपूर्ण फिल्मकारों ने अपना योगदान दिया है। सिनेमा के शुरुआती दिनों में जब इसे बेहद हिकारत की नज़र से देखा जाता था तब कई पढ़े लिखे और विदेश से लौटे फिल्मकारों जैसे हिमांशु रॉय,प्रमथेश चंद्र बरुआ आदि तथा कुछ ऐसे भारतीय लोग जो कभी किसी स्कूल में नहीं गए ने फिल्मों का ऐसा स्कूल तैयार किया जिससे कोई पढ़ा – लिखा व्यक्ति भी बहुत कुछ सीख सकता है। भारतीय जन मानस की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करने वाले इन फिल्मकारों ने तथाकथित फॉर्मूलों फिल्मों से बिल्कुल अलग भारतीय संस्कृति की विविधता में निहित एकता, किसानों और मजदूरों के श्रम की महत्ता और मानवता के संदेश को बहुत व्यापक और गरिमामय रूप में पर्दे पर अंकित किया। इस कड़ी में अनेक नाम हैं लेकिन व्ही. शांताराम, के. आसिफ और महबूब खान के नाम तुरंत ही याद आते हैं। इन्होंने अपने जुनून से भारतीय सिनेमा को देश में तो लोकप्रिय बनाया ही बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी विशेष छाप छोड़ी।
महबूब खान का जन्म गुजरात के बड़ौदा जिले के बिलिमोरा स्थित गांव सरार में 9 सितंबर 1907 को हुआ था। सामान्य मुस्लिम परिवार में जन्मे महबूब खान के कई भाई बहन थे,जिस कारण उनकी पढ़ाई लिखाई और परवरिश ठीक प्रकार से नहीं हो पाई। पिता इकलौते कमाने वाले थे और सिपाही थे। उन्हीं के गांव के एक परिचित रेलवे में गार्ड थे । सिनेमा देखने की चाहत और उसमें काम करने की ललक के चलते 16 वर्ष की उम्र में ही महबूब खान भागकर बंबई (मुंबई) पहुंच गए। वह गार्ड सज्जन इंपीरियल स्टूडियो के मालिक आर्देशिर ईरानी को जानते थे तो उन्होंने किसी तरह उनसे उन्हें मिलवाया। लेकिन आर्देशिर ईरानी ने पहली मुलाकात में ही उन्हें कह दिया कि घर लौट जाओ और गांव में रहकर अपने मां-बाप की सेवा करो और खेती करो। मन मार कर महबूब खान वापस अपने गांव लौट आए। पिता ने उनकी शादी कर दी। मगर महबूब खान का बंबई जाने का सपना नहीं तोड़ पाए।
दो साल बाद यानी 18 साल की उम्र में जेब में तीन रुपए डालकर वह दोबारा बंबई पहुंच गए और फिर से इंपीरियल फिल्म कंपनी जाकर आर्देशिर ईरानी से मिले । उनकी लगन और धार्मिक प्रवृत्ति देखकर वह प्रभावित हुए और उन्होंने 30 रुपए के मासिक वेतन पर एक एक्स्ट्रा के रूप में उन्हें अपनी कंपनी में रख लिया । उनकी पहली फिल्म थी ‘अलीबाबा चालीस चोर’। इसी दौरान उन्होंने एक फिल्म की कहानी लिखी और उसे सिनेमाटोग्राफर फरदून ईरानी की मदद से सागर मूवीटोन के मालिक डॉ. अंबालाल पटेल और चिमनलाल देसाई को सुनाना चाहा। 71 बार यह कहानी सुनाने की असफल कोशिश के बाद 72 वें प्रयास में वे किसी तरह सफल हुए और उन्हें ‘जजमेंट आफ अल्लाह’ नामक इस फिल्म का निर्देशन करने का अवसर भी मिल गया। फिल्म सफल रही और उनके जीवन की दिशा ही बदल गई। तभी द्वितीय विश्व युद्ध के कारण सागर मूवीटोन बंद हो गई तब महबूब खान ने इसकी पूरी यूनिट को साथ लेकर नेशनल स्टूडियो बनाया। इस बैनर तले उन्होंने तीन यादगार फिल्में ‘औरत’, ‘बहन’ और ‘रोटी’ का निर्माण निर्देशन किया। सन् 1943 में उन्होंने स्वयं की कंपनी महबूब खान प्रोडक्शन की स्थापना की और इसके तहत उन्होंने – ‘नजमा’, ‘तकदीर’, ‘हुमायूं’ ,’अनमोल घड़ी’, ‘ऐलान’, ‘अनोखी अदा’, ‘अंदाज’,’आन’ और ‘अमर’ जैसी बेहतरीन फिल्मों का निर्माण किया। ‘मदर इंडिया’ उनकी 19 वीं फिल्म थी और 1940 में बनाई उनकी ही फिल्म ‘औरत’ का रीमेक थी।
‘मदर इंडिया’ एक तरीके से पूरे भारत विशेषकर ग्रामीण भारत और उसमें मां की संघर्षशील भूमिका को बहुत ही सच्चाई के साथ प्रस्तुत करती है। फिल्म को बहुत भव्य तरीके से बनाया गया था और इसको बेहतर बनाने के लिए सभी ने दिन रात मेहनत की थी खासतौर पर नर्गिस ने। फिल्म की उत्कृष्टता और लोकप्रियता के चलते ‘मदर इंडिया’ पहली हिंदी फिल्म थी जिसे प्रतिष्ठित ऑस्कर पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था। ‘मदर इंडिया’ फिल्म औरत का रीमेक थी इसलिए बहुत से लोगों ने वही नाम रखने की सलाह दी थी। परंतु महबूब खान ने बहुत पहले एक अमेरिकन लेखिका कैथरीन मेयो की पुस्तक ‘मदर इंडिया’ के बारे में सुना था और उन्हें यह शीर्षक बहुत अच्छा लगा था। हालांकि इस किताब में भारतीय संस्कृति और भारतीय स्त्री पर कई उल्टे सीधे आक्षेप लगाए गए थे। महबूब खान ने सोचा कि इस फिल्म यानी ‘मदर इंडिया’ के शीर्षक से वह भारतीय स्त्री और भारतीय संस्कृति को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक नए रूप में प्रस्तुत कर सकेंगे और इसीलिए उन्होंने फिल्म का नाम ‘मदर इंडिया’ रखने का ही निर्णय लिया। उनका यह भी मानना था कि यह कहानी भले ही मां और बेटे की है लेकिन इसमें भारतीय नारी के अन्य सारे गुण भी मौजूद हैं। ‘औरत’ फिल्म के किसी भी अभिनेता को ‘मदर इंडिया’ में नहीं दोहराया गया था केवल साहूकार के रूप में कन्हैया लाल को छोड़कर।
महबूब खान पांच वक्त के पक्के नमाज़ी होते हुए भी अपने विचारों में कर्म की महत्ता को स्वीकारते थे। उनके द्वारा निर्मित फिल्में हमेशा श्रम की महत्ता को प्रतिपादित करती थीं। उनके प्रोडक्शन हाउस का प्रतीक चिन्ह (लोगो) हंसिया और हथोड़ा था। जो हाथ यह प्रतीक पकड़ा होता था ,उस मुठ्ठी में ही महबूब के एम अक्षर की आकृति होती थी। इस प्रतीक चिन्ह के साथ ही पार्श्व में एक आवाज गूंजती थी – मुद्दई लाख बुरा चाहे क्या होता है, वही होता है जो मंजूरे खुदा होता है।
फिल्म ‘रोटी’ में उन्होंने सीधे-सीधे पूंजीवाद पर प्रहार किया था और बताने की कोशिश की थी कि केवल धन कमाना ही नहीं मनुष्यता कमाना भी जीवन का एक बहुत जरूरी हिस्सा है। अपने तीस साल के फिल्मी करियर में उन्होंने हॉलीवुड की तरह ही भव्य और तकनीकी स्तर पर श्रेष्ठ फिल्में बनाने की कोशिश की। ‘आन देश’ की पहली टेक्नीकलर फिल्म थी। ‘मदर इंडिया’ को उनकी ऑल टाइम ग्रेट फिल्म कहा जाता है और इसे क्लासिक फिल्म का दर्जा प्राप्त है। ‘मदर इंडिया’ के बाद उन्होंने ‘सन ऑफ इंडिया’ नामक एक भव्य और महत्वाकांक्षी फिल्म का निर्माण किया था पर वह असफल रही। यह उनकी आखिरी फिल्म थी। 28 मई 1964 को महबूब खान दुनिया को अलविदा कह गए।