मिमी: सपनों के सौदे की कहानी, सरोगेसी की ज़ुबानी
नेटफ्लिक्स और जियो सिनेमा पर रिलीज़ हुई नई हिंदी फिल्म मिमी की काफी चर्चा हो रही है। कृति सानन और पंकज त्रिपाठी की मुख्य भूमिकाओं वाली ये फिल्म खासस तौर पर अपने विषय और कलाकारों के अभिनय को लेकर। प्रस्तुत है फिल्म की समीक्षा अमिताभ श्रीवास्तव की कलम से। अमिताभ श्रीवास्तव वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजतक, इंडिया टीवी जैसे न्यूज़ चैनलों से बतौर वरिष्ठ कार्यकारी संपादक जुड़े रहे हैं। फिल्मों के गहरे जानकार और फिल्म समीक्षक के तौर पर ख्यात हैं। न्यू डेल्ही फिल्म फाउंडेशन से बतौर अध्यक्ष जुड़े हुए हैं।
कृति सानन और पंकज त्रिपाठी की फिल्म मिमी मातृत्व के संवेदनशील विषय को सरोगेसी यानि किराये की कोख के इर्दगिर्द रची गयी कहानी के ज़रिये हल्केफुल्के ढंग से कहती है। गंभीर विषय को मनोरंजक शैली में कहने की चुनौती का इस फ़िल्म के निर्देशक लक्ष्मण उटेकर ने संतोषजनक निर्वाह किया है। सभी कलाकारों का अभिनय अच्छा है।
कृति सानन केंद्रीय चरित्र मिमी की भूमिका में हैं -राजस्थान की एक चुलबुली, खूबसूरत लड़की जो होटलों में अपनी पहेली शमा के साथ नाच-गाकर पैसे कमाती है। लेकिन उसका सपना हिंदी फ़िल्मों की हीरोइन बनने का है । हीरोइन बनने के लिए उसे जाना पड़ेगा मुंबई और पोर्टफोलियो बनवाने, म्यूज़िक वीडियो के लिए चाहिए ढेर सारे पैसे जो उसके पास नहीं हैं। एक टैक्सी ड्राइवर भानु पांडे (पंकज त्रिपाठी) अपनी टैक्सी में बैठे निस्संतान अमेरिकी दम्पति जान और समर की बातें सुनता है जो भारत में एक किराये की कोख ढूँढ रहे हैं ताकि उनके परिवार में संतान आ सके। इसके लिए वे ढेर सारे पैसे देने के लिए भी तैयार हैं। संयोग से भानु की मुलाक़ात मिमी से होती है और वह उसे अमेरिकी दम्पति से मिलवा देता है। शुरुआती नानुकुर के बाद मिमी किराये की माँ बनने के लिए तैयार हो जाती है।
इस बीच डाक्टरी जाँच में मिमी की कोख में पल रहे बच्चे में असामान्यता का संदेह पैदा होता है और अमेरिकी दंपति बच्चा स्वीकार करने से पीछे हट जाते हैं। कहानी यहाँ से गंभीर मोड़ लेती है। मिमी एक निम्नवर्गीय आर्थिक-सामाजिक माहौल से आती है जिनके पारंपरिक सांस्कृतिक जीवन मूल्य हैं। कुँवारी लड़की का बिनब्याही माँ बनना हमारे समाज में स्त्री और उसके परिवार के लिए तमाम तरह की मुसीबतें ला सकता है। फ़िल्म में इन परिस्थितियों के इर्दगिर्द काॅमेडी का तानाबाना बुना गया है जो दिलचस्पी बनाये रखता है। मिमी के माता-पिता की भूमिका में सुप्रिया पाठक और मनोज पाहवा ने बहुत बढ़िया काम किया है। मिमी बच्चे को जन्म देती है। बच्चा मिमी, उसके माता-पिता, भानु के प्यार के बीच बड़ा होता है।
ऐसे में कहानी में नाटकीय मोड़ आता है जब अचानक एक दिन अमेरिकी दंपति फिर प्रकट हो जाते हैं। मिमी और उससे जुड़े लोग किस तरह उस परिस्थिति का सामना करते हैं और बच्चा अंततः कहाँ जाता है, यह क्लाइमैक्स का हिस्सा है। यहाँ फिल्म थोड़ी खिंचती सी लगती है और इस संदेश के साथ समाप्त होती है कि मातृत्व की भावना के लिए बच्चे को जन्म देना ही ज़रूरी नहीं है।
कृति सानन के करियर की यह बहुत अहम भूमिका है। लेकिन फ़िल्म अकेले उनकी नहीं है। पंकज त्रिपाठी का काम बहुत शानदार है। यह पंकज और कृति की साझेदारी की तीसरी फ़िल्म है। इससे पहले बरेली की बर्फ़ी और लुकाछिपी में भी दोनों साथ काम कर चुके हैं।
संगीत ए आर रहमान का है। परम सुंदरी वाला गाना हिट होने की संभावना रखता है।
सरोगेसी का विषय समाज में आज खूब चर्चा में है । सिनेमा में यह पहले ही आ गया था। निर्माता निर्देशक लेख टंडन ने इस पर अस्सी के दशक में बहुत अच्छी फ़िल्म बनायी थी – दूसरी दुल्हन। विक्टर बनर्जी, शर्मिला टैगोर और शबाना आज़मी मुख्य भूमिकाओं में थे। निस्संतान दंपति विक्टर और शर्मिला के लिए किराये की कोख देने वाली वेश्या की भूमिका में शबाना आज़मी का अभिनय याद रखने लायक है।
गुलज़ार की बेटी मेघना गुलज़ार ने भी अपनी फिल्म ‘फिलहाल‘ में यह विषय उठाया था। ‘फ़िलहाल‘ सुष्मिता सेन के करियर की एक बहुत अहम फ़िल्म है जहाँ वह तब्बू जैसी बेहद प्रतिभाशाली अभिनेत्री पर भारी पड़ती दिखती हैं। वैसे सलमान खान , प्रीति ज़िंटा और रानी मुखर्जी की फ़िल्म चोरी चोरी चुपके चुपके में भी यह विषय कहानी का एक हिस्सा था । लेकिन वह बहुत सतही फ़िल्म थी।