मृणाल सेन की ‘भुवन शोम’ क्यों मानी जाती है खास?
70 के दशक में परवान चढ़े समनांतर सिनेमा की नई धारा की नींव जिन फिल्मों से पड़ी उनमें 1969 की तीन फिल्मों- मृणाल सेन की भुवन शोम, मणि कौल की उसकी रोटी और बासु चटर्जी की सारा आकाश का ज़िक्र हमेशा होता है। इन तीनों फिल्मों का इस रूप में ज़िक्र किसी धर्मग्रंथ के पवित्र वाक्य की तरह जब-तब होता तो रहा है, लेकिन इनके विषयवस्तु पर विस्तार से सार्थक चर्चा कम मिलती है। सिनेमा के कई जानकारों ने ये फिल्में देखी भी नहीं हैं और कई स्कॉलर इन्हे अर्से पहले देख कर भूल-बिसरा चुके हैं। ऐसे में ‘भुवन शोम’ पर अजय चंद्रवंशी का प्रस्तुत आलेख न सिर्फ इस फिल्म के बारे में एक दिलचस्प आख्यान प्रस्तुत करता है, बल्कि उसे देखने के लिए प्रेरित करता है। इस समीक्षात्मक आलेख के ज़रिए हम ये भी समझ सकते हैं कि आखिर क्यों ‘भुवन शोम’ का नाम हिंदी सिनेमा में यथार्थवादी शैली की नई धारा की फिल्मों के अग्रदूत के तौर पर लिया जाता है। सार्थक सिनेमा को बेहतर जानने-समझने की इस मुहिम के तहत हम आगे भी ऐसी प्रमुख फिल्मों पर चर्चा जारी रखेंगे।
लेखक-समीक्षक अजय चंद्रवंशी बतौर शिक्षा अधिकारी कवर्धा, छत्तीसगढ़ में कार्यरत हैं। उनके कई लेख इससे पहले सिनेमा के साहित्य की समीक्षा श्रृंखला के तहत New Delhi Film Foundation की इस साइट पर प्रकाशित हो चुके हैं।
मनुष्य का जीवन एकरेखीय नहीं होता। अलग-अलग जगहों में वह अलग-अलग भूमिकाओं में होता है। वह कहीं अफसर हो सकता है तो कहीं पिता, प्रेमी, पुत्र या किसी का दोस्त भी हो सकता है। हम उससे हर जगह एक जैसे व्यवहार की उम्मीद नहीं कर सकते। व्यक्ति को इन सभी भूमिकाओं को जीना होता है। यही जीवन का सौंदर्य है।
मगर ‘दुर्भाग्य’ से हमारे यहां नौकरशाही का स्वरूप ऐसा रहा है कि वही व्यक्ति की पहचान सा बन जाता है ,और वह उसी भूमिका को जीने लगता है। यानी उसके लिए अफसर होना मुख्य हो जाता है अन्य गौण। इसकी जड़े ब्रिटिश प्रशासनिक दौर को मानें तो भी आजादी के बाद के दशकों में और आज भी काफ़ी हद तक यही स्थिति है।
लेकिन ऐसा नहीं कि इस ओढ़े हुए छवि के अंदर जीवन की संवेदनाएं ख़त्म ही हो जाती हों। बहुत लोग अफसरशाही ऑफिस में ही छोड़ कर बाहर आते हैं या ऑफिस में भी खुशमिज़ाजी को बनाये रखते हैं। बावजूद इसके ‘नौकरशाही अभिजात्य’ का आतंक और भ्रम अभी भी बहुतों पर हावी है। कहना न होगा इससे बहुत सी जिंदगियां सहज नहीं रह गई हैं।
फ़िल्म ‘भुवन शोम’ का पात्र भुवन शोम रेलवे का एक बड़ा अफसर है। अनुशासन पसन्द ईमानदार व्यक्ति है। भ्र्ष्टाचार बर्दाश्त नहीं करते। वय लगभग पचास का। विधुर हैं। ईमानदारी ऐसी कि अपने बेटे तक की नौकरी ख़त्म करा देते हैँ। उनके व्यक्तित्व को विशिष्ट ’बंगाली व्यक्तित्व’ कहा गया है और पार्श्व में विवेकानंद, रवींद्रनाथ टैगोर, सत्यजीत राय, कम्युनिस्ट आंदोलन के दृश्य से इसे पुष्ट किया गया है।
मगर उनके व्यक्तित्व का एक दूसरा पहलू भी है, जो एकदम नीरस है, यंत्रवत है। उनके जीवन में जैसे उमंग नहीं है। उनको कभी किसी ने हँसते नहीं देखा है। ऑफिस और फाइल ही जैसे उनकी ज़िन्दगी है। लोग उनसे डरते हैं, कोई उनके करीब नहीं आता। उनका जो भी सम्मान है उनके पद के कारण है।
ऐसे में एक दिन भुवन शोम को जीवन में नीरसता का कुछ बोध होता है और वे शिकार करने गुजरात के दूरस्थ ग्रामीण अंचल चले जाते हैं। यहाँ वे एक ग्रामीण के यहाँ रुकते हैँ, जो अपनी बेटी गौरी के साथ रहता है। पिता के अनुपस्थिति में भुवन शोम के सहयोग की जिम्मेदारी गौरी लेती है।
गौरी किशोर वय की सुंदर, सहज, चंचल ग्रामीण युवती है, जो दुनिया की छल -कपट से लगभग अंजान है। उसका विवाह हो गया है लेकिन अभी गौना नहीं हुआ है। संयोग से जिस युवक से उसका विवाह हुआ है वह वही व्यक्ति है जो रेलवे में टिकट कलेक्टर है और जिसके भ्रष्टाचार का प्रकरण भुवन शोम के पास सुनवाई के लिए लंबित है। ज़ाहिर है भुवन शोम के न्याय से उसका बचना संभव नहीं है।
भुवन शोम चिड़ियों का शिकार करने आया है, मगर इस मामले में अनाड़ी है। गौरी इसे ताड़ लेती है और उसकी भरपूर मदद करती है। वह उससे ऐसे पेश आती है मानो भुवन शोम उसके सामने बच्चा हो। मगर उसके व्यक्तित्व में निर्दोषता है। भुवन शोम पर उसके सौंदर्य और व्यक्तित्व के निश्छलता का प्रभाव पड़ते जाता है। पहली बार उसे जैसे सौंदर्य की अनुभूति होती है, पहली बार जैसे उसे एहसास होता है कि उसकी दुनिया से भिन्न कोई दुनिया है। वह महसूस करता है अभी तक की उसकी ज़िन्दगी में कुछ अधूरा रह गया था। यहाँ पहली बार वह अहंकार रहित होता है। गौरी के अलावा उस वातावरण का भी उस पर असर होता है। जब वह एक साथ चिड़ियों के झुंड को देखता है तो कुछ देर उसमें खो जाता है।
वह लगभग पचास वर्षीय विधुर व्यक्ति है। यद्यपि गौरी उसके पुत्र के वय की है और भुवन शोम का मन भी उसके प्रति निश्छल है मगर गौरी के सान्निध्य से स्त्री सौंदर्य के अनूभति की उसकी कामना जागती प्रतीत होती है। एक दो जगह इसके संकेत हैं। एक जगह जब गौरी उसके कांधे पर हाथ रखती है तो वह क्षण भर असहज हो जाते हैँ।
फ़िल्म की नाटकीयता यह है कि भुवन शोम जिस टिकट कलेक्टर को सजा देने वाले हैं वह गौरी का पति है। भुवन शोम की पहचान से अनजान गौरी और उसके पिता जब उसे अपनी समस्या बताते हैं और कहते हैं कि उसकी नौकरी चली गई तो गौरी का गौना नहीं हो पायेगा, तो भुवन शोम द्वंद्वग्रस्त हो जाते हैं। वे बिना उनको अपनी पहचान बताये अपना पक्ष रखते हैं कि अवैध रूप से पैसा लेना गलत है, मगर दोनों उससे असहमत होकर पैसा लेने को सामान्य ’चाय पानी’ का व्यवहार मानते हैं।
भुवन शोम के लौटते समय पहली बार गौरी कुछ उदासी से उससे, ’भुवन शोम’ को उसके पति को माफ कर देने के लिए कहने का आग्रह करती है। फ़िल्म में विछोह की इस पीड़ा को घनीभूत करने के लिए पंछी के प्रतीक का भी प्रयोग किया गया है। शिकार में उनके हाथ एक पंछी लगा रहता है जिसके बारे में गौरी कहती है “ये पंछी बिना जोड़ी के जी नहीं सकते” और उसे भुवन शोम को ले जाने को सौंप देती है। भुवन शोम कुछ दूर जाने के बाद वापस आते हैं और पंछी को फिर से गौरी को सौंप देते हैं। यह एक तरह से उसके पति को बख़्श देने का प्रतीक है।
फिल्म के ’क्लाइमैक्स’ में भुवन शोम अपने ऑफिस के चैंबर में बैठे हैं सामने गौरी के पति की फाइल खुली है। उसे अंदर बुलाया जाता है। वह भयभीत है। भुवन शोम उसे डांटते हुए उसके गुनाहों का चिट्ठा दिखाते हैं। फिर एक क्षण बाद कहते हैं “जाओ इसे जलाकर इसके राख का ताबीज बनाकर पहन लो। एक बार तुम्हे माफ किया,वआइंदा ऐसा मत करना।”
उसके जाने के बाद भुवन शोम एकदम से रिलैक्स हो जाते हैं। सारी फाइलों को एक किनारे रख, सारी गंभीरता को छोड़ एक नए खुशमिज़ाज इंसान सा महसूस करते हैं। उनका जैसे पुनर्जन्म हो गया होता है।
मगर इस ’कहानी’ का अंत का एक दूसरे पहलू के साथ होता है। गौरी का पति खुश होकर उसे पत्र लिखता है कि उसे माफ कर दिया गया है और उसका तबादला एक बड़े जंक्शन में हो गया है जिसका मतलब है और अधिक ऊपरी कमाई। इस तरह भुवन शोम में बदलाव एक तरह से होता है मगर विडंबना कि गौरी का पति इस ’एहसान’ को ’इनाम’ समझता है। क्या यह विडंबना आज की भी नहीं है?
फिल्म को शहरी और ग्रामीण जीवन के विरोधाभास के रूप में भी देखा जा सकता है मगर आज के दौर में ग्रामीण जीवन के ’विशिष्ट लक्षण’ खत्म से हो गए हैं और शहर–ग्राम का भेद लगातार खत्म होते जा रहा है।
इस फिल्म को समानांतर सिनेमा की बुनियाद रखने वाली फिल्मों में गिना जाता है। इस वर्ष (1969 में) मृणाल सेन की ’भुवन शोम’, मणि कौल की ’उसकी रोटी’ और बासु चटर्जी की ’सारा आकाश रिलीज हुई थी। यह फिल्म बलाई चंद मुखोपाध्याय की एक कहानी पर आधारित है। फिल्म में उत्पल दत्त (भुवन शोम) और सुहासिनी मुले (गौरी) का अभिनय काफी प्रशंसित हुआ। फिल्म की पटकथा ’सामान्य’ है। फिल्म एक तरह से वृत्त चित्र की तरह लगती है जो आगे समानांतर सिनेमा की विशिष्ट शैली बन गई।
संपादकीय टिप्पणी– फिल्म स्कॉलर्स के नज़रिए से देखें तो मृणाल सेन की फिल्म “भुवन शोम” (1969) को जिन खासियतों के चलते सिनेमा की न्यू वेव में नींव का पत्थर माना गया, उन्हे नीचे दी बातों के ज़रिए समझा जा सकता है: –फिल्म के विषय और शैली का नयापन: “भुवन शोम” की एक बहुत बड़ी खासियत इसका विषय है। क्योंकि ये वो दौर था, जब फिल्म देखने वाले पूछते थे- स्टोरी क्या है…। तो चंद किरदारों के कुछ पहलू को लेकर एक फिल्म का जो ताना-बाना बुना गया है, और जिसमें कहानी का प्रवाह घटनात्मकता से अधिक यथार्थवादी मानवीय व्यवहार, स्वाभाविक प्रतिक्रियाओं और भावनात्मकता पर निर्भर करता है… वैसा तब तक हिंदी सिनेमा में नहीं दिखा था। तो विषय के इस नएपन में ट्रीटमेंट और तकनीक भी एक नए अंदाज़ की दिखी… इसलिए इसने आम दर्शकों का भी बड़े पैमाने पर ध्यान खींचा। और यही वजह है कि ये भारतीय न्यू वेव आंदोलन की पहली फिल्मों में एक और बेहद खास बन गई। नैरेटिव स्ट्रक्चर: इस फिल्म का नैरेटिव स्ट्रक्चर (कथा संरचना) उस समय तक प्रचलित लीनियर नैरेटिव स्ट्रक्चर (रैखिक कथा संरचना) से भिन्न और प्रयोगवादी था, जिसमें नॉनलीनियर स्टोरीटेलिंग के साथ-साथ, फ्लैशबैक और फैंटेसी सीक्वेंस भी शामिल हैं। फॉर्म और स्ट्रक्चर को लेकर किए इस प्रयोग ने फिल्मकारों की एक पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया।
–लोकेशन शूटिंग: स्टूडियो के बजाय ग्रामीण गुजरात में लोकेशन पर पूरी फिल्म शूट करने के सेन के फैसले ने भारतीय सिनेमा में यथार्थवाद और प्रामाणिकता का एक नया पहलू जोड़ा। यह अप्रोच न्यू वेव मूवमेंट की पहचान बन गया।
–आम आदमी पर फोकस: फिल्म का नायक, भुवन शोम, एक साधारण रेलवे अधिकारी है, कोई पारंपरिक नायक नहीं। आम लोगों के रोजमर्रा के जीवन पर इस फोकस ने जीवन से बड़े पात्रों और मेलोड्रैमेटिक कहानियों के बॉलीवुड फॉर्मूले से भिन्न एक नए तरह का सिनेमा पेश किया।
–व्यंग्य और सामाजिक टिप्पणी का उपयोग: “भुवन शोम” नौकरशाही व्यवस्था और उस समय के सामाजिक मानदंडों की आलोचना करने के लिए व्यंग्य का उपयोग करता है। इस दृष्टिकोण ने कई फिल्मकारों को सामाजिक टिप्पणी और आलोचना के लिए सिनेमा को एक औज़ार के तौर पर उपयोग करने के लिए प्रेरित किया।
“भुवन शोम” की सफलता ने सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक और कुमार शाहनी जैसे दूसरे फिल्मकारों के लिए भी नए ढंग से कहानी कहने और सिनेमाई तकनीकों के साथ प्रयोग करने का मार्ग प्रशस्त किया। इसीलिए ये समानांतर सिनेमा की अगुआ फिल्म मानी जाती है क्योंकि इसने भारतीय सिनेमा की पारंपरिक धारणाओं को चुनौती दी और समकालीन और फिल्मकारों की नई पीढ़ी के लिए भी कहानी कहने के नए तरीकों, तकनीकों और विषयों के साथ प्रयोग करने का रास्ता दिखाया।