लोक कलाओं की दुर्दशा: ‘द लिपस्टिक बॉय’ के बहाने
बिहार राज्य का सिनेमा से गहरा नाता रहा है। सिनेमा ऑफ इंडिया मुहिम के तौर बिहार के सिनेमा में नई आवाज़, नई दस्तक को पहचानने, उसे दर्ज करने और उस पर चर्चा करने का सिलसिला शुरू किया है। बिहार का अर्थ यहां फिल्म की विषयवस्तु के सांस्कृितक जुड़ाव के साथ-साथ बिहार से जुड़े नई पीढ़ी के उन फिल्मकारों से भी है जो नई संभावनाएं जगा रहे हैं। निर्देशक अभिनव ठाकुर की नई फिल्म ‘द लिपस्टिक बॉय’ पर यादवेंद्र का समीक्षात्मक आलेख इसी सिलसिले की एक कड़ी है। लेखक-अनुवादक के तौर पर ख्यात यादवेंद्र सीएसआईआर-सीबीआरआई रूड़की में मुख्य वैज्ञानिक रहे हैं। फिलहाल पटना में निवास। हिंदी में रचनाकर्म में दशकों से सक्रिय रहे हैं। साहित्य, सिनेमा और संस्कृति में विशेष दिलचस्पी है और उन पर लगातार लिखते रहे हैं। हाल ही समसामयिक फिलिस्तीनी कविताओं के अनुवाद पर उनका संग्रह ‘घर लौटने का सपना’ समेत दो अन्य पुस्तकें ‘जगमगाते जुगनुओं की जोत’ और ‘घने अंधकार में खुलती खिड़की’ प्रकाशित हुई है।
आओ हम पढ़ें और पढ़ाई के साथ साथ डांस करें। यह दोनों ऐसे आमोद हैं जो किसी भी सूरत में दुनिया को कोई नुकसान नहीं पहुंचाते।– वॉल्टेयर की प्रसिद्ध उक्ति
बेगूसराय में बचपन बिताने वाले अभिनव ठाकुर को पारिवारिक परिस्थितियों के चलते अचानक अपना घर बार छोड़कर ननिहाल मुंबई जाना पड़ा और आगे की पढ़ाई उन्होंने वहीं की। ग्रेजुएशन के बाद एमबीए और उसके बाद साल भर की बैंकिंग की नौकरी उन्होंने की तो लेकिन वह उन्हें रास बिल्कुल नहीं आई, उनका मन सिनेमा की ओर ही लगा रहा। उन्होंने पुणे के फिल्म संस्थान से बाकायदा पढ़ाई की, उसके बाद फिर कभी पीछे मुड़ कर घर परिवार और नौकरी की ओर नहीं देखा। लघु फिल्मों से अपनी फ़िल्म यात्रा शुरू करने वाले अभिनव अनुराग कश्यप और इम्तियाज़ अली को अपना गुरु मानते हैं। मेरी जानकारी यह है कि बतौर निर्देशक अभिनव ठाकुर की पहली लघु फ़िल्म “दहलीज़: एक कहानी हमारी भी” 2016 में रिलीज़ हुई थी जो यू ट्यूब पर देखी जा सकती है।
एक दूसरे से बिल्कुल अलग विषयों पर बनाई गई जुंको, रंगमंच, रेडियो, ये सुहागरात है इंपॉसिबल इत्यादि अभिनव की कुछ महत्वपूर्ण फ़िल्में हैं। बिहार दिवस के आयोजन में पटना में खचाखच भरे हॉल में दिखाईं गई फ़िल्म ‘द लिपस्टिक बॉय’ बिहार पूर्वी उत्तर प्रदेश में लोकप्रिय लौंडा नाच के एक मशहूर कलाकार कुमार उदय सिंह के जीवन संघर्ष पर केंद्रित है। एक ओर मुख्य किरदार का इस लोक नृत्य के प्रति वास्तविक निष्ठा और खिंचाव है तो दूसरी ओर बदलते माहौल में इसके दरकते अर्थतंत्र और परिवार और समाज में मिले तिरस्कार की गंभीर चुनौती है।
लेखकों को अक्सर यह कहते हुए सुना है कि उन्होंने कहानी खुद ब खुद नहीं लिखी बल्कि कहानी के पात्रों ने उनसे कह कर अपनी कहानी लिखवा ली।अभिनव ठाकुर से बात करते हुए यह उजागर हुआ कि ‘द लिपस्टिक बॉय’ की कहानी भी उन्होंने खुद नहीं लिखी बल्कि लौंडा नाच के प्रमुख समकालीन कलाकार कुमार उदय सिंह ने न सिर्फ़ उनसे हाथ पकड़कर लिखवा ली बल्कि एक प्रभावशाली व मुकम्मल फ़िल्म भी बनवा ली। शुरुआत से लेकर स्क्रीन पर दिखाए जाने के बीच 6 – 7 साल का फ़ासला है (इनमें से दो साल कोरोना की बलि चढ़ गए)। निर्देशक को निकुंज शेखर जैसे बिहार को प्रेम करने वाले प्रोड्यूसर मिले जिनके बेशर्त सहयोग से फ़िल्म अपनी परिणति तक पहुंच पाई। फ़िल्म की पूरी शूटिंग बिहार में और बिहारी कलाकारों को लेकर की गई है।
‘लौंडा नाच’ भले ही हम इसे बोलें लेकिन किसी न किसी रूप में भारत और अन्य देशों में सदियों से स्त्रियों की वेशभूषा में मंच पर उपस्थित होकर पुरुषों का अभिनय और नृत्य करना चलता रहा है – शील और मर्यादा का हवाला देकर कलाओं का सार्वजनिक प्रदर्शन स्त्रियोचित कार्य नहीं माना गया है। लेकिन मनोरंजन की अनिवार्य ज़रूरत को देखते हुए समझौते का रास्ता यह निकाला गया कि मंच पर स्त्री किरदार होंगे तो लेकिन उनकी भूमिका पुरुष निभाएंगे। उदय शंकर,केलुचरण महापात्र, राम गोपाल,बिरजू महाराज,गोपी कृष्ण जैसे नामचीन कलाकारों ने लंबे संघर्ष के बाद कला जगत में अपनी प्रतिष्ठाजनक जगह बना ली… बाद के वर्षों में अस्ताद देबू जैसे नर्तक को पद्म पुरस्कार दिया गया। पर पुरुष नर्तक होने के कारण उन्हें जिस तरह समाज, जाति और परिवार की उपेक्षा,तिरस्कार और प्रताड़ना सहनी पड़ी उस के बारे में मुंह पर ताला ही लगा कर रखा गया। इन्हें जातिगत और लिंग आधारित अपमान दोनों झेलने पड़े।
अभिनव और कुमार उदय के सामने प्रोफेशन को लेकर जो दुविधा थी वह भारतीय समाज में गहरे बैठा पूर्वाग्रह है। उदाहरण के लिए,बंगलुरु के भरतनाट्यम गुरु वसंत किरण न सिर्फ देश और विदेश में अपने नृत्य के कार्यक्रम सफलतापूर्वक प्रस्तुत करते हैं बल्कि परिवार के दबाव के चलते उन्हें एमबीए करना पड़ा(नृत्य भी कोई पुरुषों का काम है एटीट्यूड) और वह आज आईआईएम सहित अनेक शीर्ष मैनेजमेंट इंस्टिट्यूट में आमंत्रित विशेषज्ञ व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किए जाते हैं।
अभिनव की फ़िल्म देखते हुए मुझे अपने युवा जीवन में देखी एक फ़िल्म याद आ रही थी – कांतिलाल राठौड़ ने राम नगरकर की आत्मकथा पर 1982 में रामनगरी नाम से एक शानदार फ़िल्म बनाई थी जिसमें मुख्य भूमिका में अमोल पालेकर और सुलभा देशपांडे थे। मैंने शायद पहली बार इसी फ़िल्म में दोनों कलाकारों को देखा था जिन्होंने बाद में अपनी प्रतिभा के झंडे गाड़े। यह किताब/फ़िल्म बडे़ मनोरंजक ढंग से बताती है कि ऊंची जातियों की तो छोड़िए, महाराष्ट्र में हाशिए पर रहने वाली नाई जाति में भी घूम घूम कर नाट्यकला का सार्वजानिक प्रदर्शन तब बेहद घटिया काम माना जाता था।
राम नगरकर के दादा कहा करते कि हम नाई हैं तो क्या, ब्राह्मण के बराबर हैं। ब्राह्मण तो भीक (भीख) मांगता है हम मेहनत करके रोटी खाने वाले ना भीक हैं।
“नाई को नाच गाने का धंधा शोभा नहीं देता। चाहे कुछ भी कहो नौटंकी का धंधा है घटिया ही…बेटा मांग महारों सा नाचता है। बिरादरी को बट्टा लगा रहा है। उसकी अपनी इज्जत कहां।”
लगभग इसी कालखंड में भिखारी ठाकुर बिहार की भूमि पर अपनी नाट्यकला का प्रदर्शन करते हुए पदार्पण करते हैं जिनके बारे में साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित जीवनी (लेखक: तैयब हुसैन पीड़ित) में कहा गया है कि “निम्न वर्गीय पात्रों अथवा दलित वर्ग का समावेशन भिखारी ठाकुर के नाटकों में स्वाभाविक है क्योंकि उन्हें ऐसे ही लोगों के जीवन का भरपूर अनुभव था। इन्हीं वर्गों के लोग उनकी नाटक मंडली में भी थे। दूसरा वर्ग उनकी मंडली में आ नहीं सकता था क्योंकि नाच तब सम्मानजनक पेशा नहीं समझा जाता था।” वे स्वयं नाई जाति के थे इसलिए उन्हें अभिजात कलाक्षेत्र में वह सम्मान कभी नहीं दिया गया जिसके वे अधिकारी थे।
दशकों पहले दिल्ली के रंगमंच पर महेश दत्तानी का बेहद मशहूर नाटक “डांस लाइक ए मैन” (अंग्रेजी में, साहित्य अकादमी पुरस्कृत) देखा था जो ऐसे ही एक कलाकार जयराज की व्यथा और दुविधा बयान करता है जिसे नृत्य का बेहद शौक है। उसके समाज सुधारक स्वतंत्रता सेनानी पिता बेटे के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं लेकिन उन्हें यह कतई स्वीकार नहीं कि वह स्त्रियों की तरह मंच पर सार्वजनिक नृत्य करे।
“यदि क्रिकेट में तुम्हारी दिलचस्पी होती तो मैं तुम्हारे लिए अपने लॉन में क्रिकेट का पिच बनवा देता। ज्यादातर लड़के क्रिकेट में इंटरेस्ट लेते हैं लेकिन मैं ऐसा अभागा हूं कि मेरा बेटा डांस में रमा रहता है। मैंने कभी यह सोचा भी नहीं था कि तुम्हारा डांस में यह इंटरेस्ट लेना किसी दिन एक ऑब्सेशन में सनक में बदल जाएगा।”, उनका कहना था।
आज़ादी की लड़ाई पिता का जुनून था,बेटे का जुनून डांस। जयराज कहता है आप अपना जुनून देखिए, मुझे अपना देखने दीजिए। दोनों एक ही तरह के जुनून हैं, इनमें कोई फ़र्क नहीं। मेरे लिए आज़ादी का मतलब अपनी पसंद का काम कर सकने की आज़ादी है, जयराज का मानना था।
इन्हीं पारिवारिक सामाजिक आर्थिक दबावों के बीच कुमार उदय का जीवन भी ऊबड़ खाबड़ रास्ते पर चलता है जिसमें एक तरफ़ भिखारी ठाकुर के दिखलाए रास्ते पर चलने का आदर्श मन में है तो दूसरी अपना सम्मान और परिवार बचाने की चुनौती। फ़िल्म में मनोज पटेल कुमार उदय की भूमिका में गहरे उतर कर दर्शकों के दिलों तक पहुंचने में सफल हुए हैं तो सभी साथी कलाकारों ने भी भरपूर साथ दिया है। कई कई बार बिहार आकर और संबद्ध लोगों से मिल बात कर अभिनव ने अपने विषय की अंतरंग जानकारी हासिल की और कहीं कोई असावधान कोना छोड़ा नहीं – फ़िल्म के संवादों और संगीत में यह मेहनत पूरी तरह झलकती है।
देखना यह होगा कि बिहार सरकार इस मृतप्राय लोक कला को फ़िल्म की एक स्क्रीनिंग तक सीमित कर देती है या आगे इसके व्यावहारिक प्रचार प्रसार और इससे जुड़े कलाकारों की बेहतरी के लिए भी कुछ करने की जिम्मेदारी निभाती है।
(इस फिल्म के निर्माता दीपक सावंत हैं, जो कई सालों से अमिताभ बच्चन के मेकअप आर्टिस्ट रहे हैं। दीपक सावंत ने इससे पहले भी 5 फिल्मों का निर्माण किया है।)