हिन्दी सिनेमा में ब्राह्मणवाद और दलित मुक्ति के संदर्भ 2


हिंदी सिनेमा में ब्राह्मणवाद और दलित मुक्ति के संदर्भ में प्रस्तुत है प्रोफेसर जवरीमल्ल पारख के एक विस्तृत आलेख की दूसरी कड़ी। 14 अप्रैल को अंबेडकर जयंती के दिन शुरु हुए तीन अंकों के इस आलेख की दूसरी कड़ी का समय आते-आते ये विषय और प्रासंगिक हो गया है। इसकी वजह ज्योतिराव फुले पर आधारित हालिया फिल्म फुले (निर्देशक- अनंत महादेवन) पर सेंसर बोर्ड की आपत्तियों को लेकर उठा विवाद, जो फिल्ममेकर अनुराग कश्यप की सोशल मीडिया पर एक प्रतिक्रिया के चलते और गरमा गया। मीडिया-सोशल मीडिया पर बयानों और पोस्टों के वार-पलटवार वाले विवादों में गंभीर से गंभीर विषय धमकी-गालीगलौज और हिंसा प्रतिहिंसा की गति चढ़ जाते हैं। लेकिन ये विषय गंभीर और इसके सामाजिक पहलू को समझना ज़रूरी है। ब्राह्मणवाद और दलित मुक्ति के संदर्भ को बेहतर समझने और हिंदी सिनेमा के बरक्स समझने में ये लेख ऐतिहासिक रुप से बेहद मददगार साबित होगा। प्रोफेसर पारख इंदिरागांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (IGNOU) के Humanities Faculty के निदेशक पद पर रहे हैं। उनकी तमाम पुस्तकों में से सिनेमा आधारित ‘हिन्दी सिनेमा का समाजशास्त्र’ और ‘लोकप्रिय सिनेमा और सामाजिक यथार्थ’ काफी चर्चित और लोकप्रिय रही हैं।

1950-60 के दशक में कुछ फ़िल्में ऐसी भी बनीं जिनका सीधे तौर पर संबंध ब्राह्मणवादी परंपरा और जाति समस्या या दलित प्रश्न से नहीं था, लेकिन जिनमें उठाये गये सवालों का संबंध दलित समाज से सबसे ज्यादा है। इस दृष्टि से ‘दो बीघा ज़मीन’, ‘बूट पालिश’, ‘जागते रहो’ और ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ‘दो बीघा ज़मीन’ (1953) का संबंध एक गरीब किसान परिवार से है जिसकी ज़मीन ज़मींदार के पास गिरवी रखी हुई है और वह उसको छुड़ाने की स्थिति में नहीं है। ज़मींदार उस पर दबाव डालता है कि वह उसे ज़मीन बेच दे। लेकिन वह उसके लिए तैयार नहीं होता। कर्ज चुकाने के लिए वह कलकत्ता जाकर रिक्शा चलाता है, लेकिन तय समय के अंदर वह कर्ज नहीं चुका पाता और ज़मीन उससे छीन ली जाती है। वह किसान से मजदूर बन जाता है। ‘दो बीघा ज़मीन’ के किसान का नाम शंभु महतो (बलराज साहनी) है। ‘गोदान’ का नायक होरी भी महतो होता है। महतो दलित नहीं है, लेकिन सवर्ण भी नहीं है। बिमल राय ने यह फ़िल्म वर्गीय दृष्टि से बनायी है, लेकिन ज़मीन की जिस समस्या को उठाया है, वह सबसे ज्यादा गरीब, पिछड़े और दलित किसानों की ही है।
1954 में बनी ‘बूट पालिश’ का संबंध भी दलित वर्ग से है हालांकि इसमें भी जाति का उल्लेख नहीं है। इस फ़िल्म का संबंध समाज के उस वर्ग से है जिनमें सबसे ज्यादा संख्या दलितों की है। फ़िल्म में उन लोगों के जीवन को प्रस्तुत किया गया है जो शहरों और महानगरों की झुग्गी बस्तियों में रहते हैं और अपना जीवनयापन छोटा-मोटा काम करके या भीख मांगकर करते हैं। यह ऐसे दो बच्चों की कहानी है जिनकी मां हैजे से मर गयी और पिता को काले पानी की सजा हो गयी है। दोनों बच्चों का पालन-पोषण करने वाली चाची बच्चों से भीख मंगवाती है। लेकिन उसी बस्ती में रहने वाले जॉन चाचा (डेविड) ने उन्हें सिखाया है कि भीख मांगना बुरा है, मेहनत की रूखी-सूखी रोटी कहीं ज्यादा अच्छी है। इसी तरह ‘जागते रहो’ (1956) का किसान जो मजदूरी की तलाश में शहर आया है और एक बड़े भवन में पानी की आस में घुस जाता है। एक जातिवादी समाज में जैसे दलित के लिए पीने का पानी तक आसानी से उपलब्ध नहीं होता क्या इस किसान की स्थिति भी ठीक वैसी ही नहीं हैॽ ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ (1957) का मजदूर हरी जिसे उस अपराध के लिए जेल में बंद कर दिया गया है जिसे उसने किया ही नहीं। गरीबी, बेकारी और कर्ज में फंसा एक मजदूर जिसके घसीटा और मसीटा जैसे जेबकतरे दोस्त हैं, उसके दलित होने में क्या कोई संदेह हैॽ छठे दशक की ये फ़िल्में जो कई मायनों में क्लासकीय दर्जा हासिल कर चुकी हैं, समाज के उस वर्ग की कहानी कहती है दलित समाज जिसका अटूट हिस्सा है।

विमल राय ने 1959 में दलित समस्या पर ‘सुजाता’ फ़िल्म बनायी। फ़िल्म दरअसल दलित यथार्थ पर आधारित नहीं है बल्कि दलितों के प्रति सवर्णों के रवैये को कहानी का आधार बनाया गया है। दलित प्रश्न को इस दृष्टि से देखने का अपना महत्त्व है क्योंकि जातिगत भेदभाव के लिए और जातिवाद की समाप्ति के लिए सबसे जरूरी यह है कि सवर्ण हिंदू अपने उच्च होने के अहंकार का त्याग करे और दलित को न केवल इंसान समझे बल्कि उनके साथ रोटी-बेटी का संबंध भी बनाए। सुजाता की कहानी कुछ इस प्रकार है: पेशे से इंजीनियर बंगाली ब्राह्मण उपेंद्रनाथ चौधरी उर्फ उपेन बाबू (तरुण बोस) और उनकी पत्नी चारु (सुलोचना) को अपने अछूत नौकर की बेटी सुजाता का पालन-पोषण करना पड़ता है। उनकी अपनी भी एक बेटी है, रमा जो सुजाता की हमउम्र है। चारु में सुजाता को लेकर हमेशा द्वंद्व बना रहता है। अपने ब्राह्मण संस्कारों के कारण वह सुजाता को अपने से दूर करना चाहती है जबकि उसका मातृ हृदय उसे अपनाना चाहता है। इसके विपरीत उपेन बाबू इस तरह के छुआछूत और ऊंच-नीच की धारणा को ठीक नहीं समझते। पति-पत्नी के विरोधी दृष्टिकोण की वजह से जहां एक ओर सुजाता को उस घर में आश्रय मिल जाता है वहीं उसे वह सबकुछ नहीं मिलता जो रमा को सहज ही मिल जाता है। उपेन बाबू की बुआ (ललिता पवार) जो छुआछूत को बहुत मानती है और अपने भाई के घर पर किसी दलित स्त्री का रहना उचित नहीं मानती उसीका बेटा अधीर (सुनील दत्त) सुजाता (नूतन) से प्रेम करने लगता है जबकि चारु अपनी बेटी रमा (शशिकला) का विवाह अधीर से करना चाहती है। रमा को मालूम है कि अधीर सुजाता से प्रेम करता है और उसे उनके प्रेम से कोई समस्या नहीं है। इसी दौरान सुजाता को चारु बता देती है कि वह एक अछूत माता-पिता की संतान है। वह अपने को अधीर से अलग करने की कोशिश करती है, लेकिन अधीर स्पष्ट घोषणा कर देता है कि वह शादी करेगा तो सुजाता से ही। चारु को इस बात से बहुत धक्का लगता है और वह गुस्से में अपने को संभाल नहीं पाती और सीढ़ियों से गिर जाती है। उसकी जान बचाने के लिए सुजाता अपना खून देती है क्योंकि घर में किसी और का खून चारु से नहीं मिलता। जब चारु को मालूम पड़ता है कि सुजाता ने अपना खून देकर अपनी जान बचाई है तो उसे अपनी भूल का एहसास होता है और वह अधीर और सुजाता की शादी के लिए तैयार हो जाती है। इस तरह फ़िल्म एक ब्राह्मण लड़के और एक दलित लड़की के विवाह के साथ समाप्त हो जाती है।
इस फ़िल्म में सुजाता को छोड़कर शेष सभी प्रमुख पात्र उच्च जाति (ब्राह्मण) के हैं। उच्च जाति के ये पात्र तीन पीढ़ियों के हैं। सबसे पुरानी पीढ़ी की बुआजी। वह पुरी तरह से जातिवादी संस्कारों से बंधी स्त्री है। बुआजी अछूतों को घर में रखना तो दूर, उनकी छाया भी अपने ऊपर पड़ जाने को पाप समझती है। दूसरी पीढ़ी के उपेन बाबू और चारु हैं। उपेन बाबू का दृष्टिकोण ज्यादा प्रगतिशील और मानवीय है। सुजाता को अपना लेने के बाद वह उसके साथ किसी तरह के भेदभाव को उचित नहीं समझते और अपने इसी व्यवहार के कारण वह सुजाता के प्यार और श्रद्धा के हकदार भी बनते हैं। इसके विपरीत चारु अधिक रूढ़िवादी और संस्कारी स्त्री है। उसका दृष्टिकोण बुआजी जितना निष्ठुर और नफरत से भरा नहीं है। फिर भी, वह सुजाता को सहजता से अपना नहीं पाती। तीसरी पीढ़ी रमा और अधीर की है। रमा एक खुले विचारों वाली युवा लड़की है जिसने सुजाता को सहज रूप से अपना लिया है। उसके लिए इस बात का कोई महत्त्व ही नहीं है कि सुजाता किसकी बेटी है और किस जाति की है। उसने उसे अपनी बहन मान लिया है और उसकी यह भावना शुरू से अंत तक अक्षुण्ण बनी रहती है। अपने कालेज में वह रवींद्र के गीतिनाट्य ‘चंडालिका’ में चंडालिका की भूमिका निभाती है। अधीर भी नयी पीढ़ी का जागरूक युवा है। उसके कमरे में रवींद्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी और विवेकानंद की तस्वीरें लगी है। इससे उसके प्रगतिशील वैचारिक दृष्टिकोण को समझा जा सकता है।
‘सुजाता’ दलित समस्या की विकरालता और भयावहता के उन जटिल रूपों को नहीं छूती जिनके बिना इस समस्या को पूरी तरह से नहीं समझा जा सकता। ‘सुजाता’ में दलित प्रश्न काफी हद तक एक सवर्ण परिवार की निजी और नैतिक समस्या के रूप में सामने आता है। फ़िल्म में सुजाता का दलित होना इस अर्थ में बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं छोड़ता क्योंकि उसका पालन-पोषण एक ब्राह्मण परिवार में हुआ है। फिल्म कुछ ऐसा कहती प्रतीत होती है कि सुजाता तो वैसे भी जन्मना ही दलित है अन्यथा ब्राह्मण परिवार में पालन-पोषण होने के कारण वह तो ब्राह्मण ही है। इसका अर्थ यह भी निकलता है कि दलित अगर सवर्णों के संस्कार अपना ले तो वे समाज में स्वीकार्य हैं। प्रकारांतर से यह कहना ब्राह्मणवाद की श्रेष्ठता को स्थापित करना है। फ़िल्म में जिन अन्य दो दलित पात्रों को दिखाया गया है उससे इसका आभास भी होता है। एक वह व्यक्ति जो फोकट में सुजाता को अपनाने के लिए तैयार नहीं है और जो शराब के नशे में धुत रहता है। दूसरा वह दुहाजु जो सुजाता से शादी करना चाहता है। निश्चय ही इन दोनों की तुलना में सुजाता काफी अलग नज़र आती है। उसके संस्कार और व्यवहार वैसे ही होते हैं जैसे उपेन बाबू के परिवार के अन्य लोगों के। ‘सुजाता’ जैसी फ़िल्मों के प्रगतिशील सोच की यह सीमा भी है।

भारतीय समाज में निहित जटिलताओं को कहीं ज्यादा सूक्ष्मता से चित्रित उन फ़िल्मकारों ने किया है जिन्होंने यथार्थवादी परंपरा से अपने को जोड़ा है। 1970 के लगभग भारतीय सिनेमा में यथार्थवाद की जो नयी लहर उभरी उसने दलित समाज की समस्याओं को भी अपना विषय बनाया। श्याम बेनेगल ने आरंभ से ही इस ओर ध्यान दिया है। ‘अंकुर’ (1973), ‘मंथन’ (1976) और ‘समर’ (1998) में उन्होंने दलित समस्या को अपनी फ़िल्मों का विषय बनाया है। इसी तरह मृणाल सेन की ‘मृगया’ (1976), गोविंद निहलानी की फ़िल्म ‘आक्रोश’ (1980), सत्यजित राय की फ़िल्म ‘सद्गति’’ (1980), गौतम घोष की फ़िल्म ‘पार’ (1984), प्रकाश झा की फ़िल्म ‘दामुल’ (1984), अरुण कौल की फ़िल्म ‘दीक्षा’ (1991) और शेखर कपूर की फ़िल्म ‘बैंडिट क्वीन’ में भी किसी न किसी रूप में हम दलित यथार्थ का चित्रण देख सकते हैं। ये फ़िल्में दलितों के सवाल को व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखती हैं। इनमें न तो वर्गीय शोषण के सवाल को ही मूल सवाल मानकर सामाजिक उत्पीड़न के सवाल को छोड़ दिया गया है और न ही सामाजिक अन्याय के प्रश्न की आड़ में आर्थिक सवालों की उपेक्षा की गयी है। ‘अंकुर’ फ़िल्म में दलित स्त्री की आर्थिक पराधीनता का लाभ उठाकर उसका शारीरिक शोषण करने वाले जमींदार के खिलाफ फ़िल्म में व्यक्त गुस्सा किसी विद्रोह में परिणत नहीं होता लेकिन एक छोटे बच्चे द्वारा ज़मींदार के घर पर पत्थर फेंकना उस भविष्य की ओर जरूर संकेत करता है, जब दलित इस तरह के शोषण के विरुद्ध उठ खड़े होंगे। ‘मंथन’ में सहकारिता का आंदोलन दलित समाज में जागरूकता का वाहक बनकर आया है। प्रेमचंद की इसी नाम की कहानी ‘सद्गति’ उच्च जातियों द्वारा बेगारी के माध्यम से दलितो के शोषण की कथा कहती है। यह फ़िल्म दलितो की एकता और दमन के खिलाफ संकल्प के साथ खड़े होने की ताकत का भी चित्रण करती है। श्याम बेनेगल की फ़िल्म ‘समर’ शहरी आधुनिकतावादी होने का दावा करने वाले सवर्णों में भी जातिवाद किस तरह अंदर तक बैठा हुआ है, उसका अत्यंत प्रभावशाली चित्रण करती है।

1990 के दशक में जब प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की तो आरक्षण के विरोध में देश भर में आंदोलन खड़ा हो गया। लेकिन राजनीतिक पार्टियों के लिए आरक्षण का विरोध करना संभव नहीं था, और न ही फ़िल्मकारों के लिए आरक्षण के विपक्ष में फ़िल्म बनाना संभव था। लेकिन इस पूरे दौर में ऐसा कोई फ़िल्मकार सामने नहीं आया जो आरक्षण के पक्ष में फ़िल्म बनाये। लगभग दो दशक बाद प्रकाश झा ने जरूर आरक्षण पर ‘आरक्षण’ (2011) के नाम से फ़िल्म बनायी थी। ‘आरक्षण’ लोकप्रिय विधा में बनी एक साधारण फिल्म है। यह फ़िल्म बनाने के वक्त तक प्रकाश झा ‘दामुल’ और ‘परिणति’ की परंपरा को बहुत पीछे छोड़ आये थे। विवादास्पद मुद्दों पर फ़िल्में बनाने के बावजूद रचनात्मकता के लिए खतरा उठाने की प्रवृत्ति उनमें नहीं हैं। यह ‘गंगाजल’ (2003), ‘राजनीति’ (2010), आदि फ़िल्मों से भी स्पष्ट है। निश्चय ही उक्त दोनों फ़िल्मों की अपेक्षा प्रकाश झा की यह फिल्म अधिक सुलझी हुई और कम समझौतापरस्त है लेकिन है यह एक व्यावसायिक फ़िल्म ही। यदि फ़िल्म के केंद्रीय चरित्र प्रभाकर आनंद (अमिताभ बच्चन) के नज़रिये को फ़िल्म का नज़रिया माना जाये तो यह फ़िल्म आरक्षण का न सिर्फ समर्थन करती है बल्कि प्रकारांतर से निजी शिक्षा संस्थाओं में आरक्षण लागू किये जाने का प्रस्ताव भी करती है। खुद प्रकाश झा की पहले की फ़िल्मों के विपरीत इस फ़िल्म का नायक एक दलित है और खलनायक एक सवर्ण। फ़िल्म का पूर्वार्द्ध आरक्षण के मुद्दे पर केंद्रित है इसलिए आरक्षण से जुड़े तर्क चाहे वे पक्ष के हों या विपक्ष के, विभिन्न पात्रों के माध्यम से सामने आये हैं। इसके साथ ही आरक्षण विरोधी सवर्णों की दलितों और पिछड़ी जातियों के प्रति घृणा और नफ़रत भी उजागर होती है। इसे मुख्य रूप से मिथिलेश सिंह (मनोज वाजपेयी) के माध्यम से दिखाया गया है जो उसी निजी कॉलेज का वाइस प्रिसिंपल है जिसके प्रिसिंपल प्रभाकर आनंद है। प्रभाकर आनंद भी सवर्ण हैं लेकिन वे दलितों और पिछड़ों के विरोधी नहीं हैं। इसके विपरीत वे हमेशा उनकी मदद के लिए तत्पर रहते हैं। वे जातिवाद में विश्वास भी नहीं करते इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि उन्हें अपनी इकलौती बेटी के एक दलित से प्रेम करने पर किसी तरह का विरोध नहीं है। यही नहीं फ़िल्म इसे समस्या के रूप में भी नहीं प्रस्तुत करता। आरक्षण विरोधी सवर्णों का जबाब फ़िल्म के दलित नायक दीपक कुमार (सैफ अली खान) की तरफ से दिलवाया गया है। दीपक कुमार के जवाब भी वे ही हैं जो दलित बुद्धिजीवियों और जातिवाद विरोधी प्रगतिशीलों द्वारा दिये जाते रहे हैं। इस दृष्टि से देखें तो इस सारी बहस में दीपक कुमार वैचारिक दृष्टि से अधिक प्रभावशाली दिखाया गया है। इस फिल्म का नाम आरक्षण जरूर है लेकिन यह फिल्म आरक्षण की समस्या तक सीमित नहीं है बल्कि इसका केंद्रीय मुद्दा शिक्षा का बढ़ता व्यावसायीकरण है। फ़िल्म की सीमा यह है कि वह दलित यथार्थ के उन पहलुओं की पूरी तरह उपेक्षा करती है जिनके बिना आरक्षण के सवाल को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं समझा जा सकता है और न ही सत्ता के वर्गीय चरित्र को समझे बिना शिक्षा के व्यवसायीकरण को समझा जा सकता है। ‘आरक्षण’ दरअसल इन गंभीर मुद्दों का व्यावसायिक इस्तेमाल करने की एक कोशिश कही जा सकती है।
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Part 1 : हिन्दी सिनेमा में ब्राह्मणवाद और दलित मुक्ति के संदर्भ 1